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भारतीय संस्कृति

मैं नारायण का अवतार मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम हूँ

अमित सिन्हा , बिहार

मैं नारायण का अवतार मर्यादा_पुरुषोत्तम श्रीराम हूं. मानव निर्मित विश्व की प्रथम राजधानी अयोध्या का राजा.

अजीब विडंबना है ना..! स्वतंत्र भारत में अपने ही शासकों द्वारा 14 वर्षों से भी अधिक वनवास देने के बाद भी आज अयोध्या सूनी रहेगी. मेरे जन्म स्थान पर चाह कर भी मेरे भक्त अपने घरों से निकलकर मेरे दर्शन नहीं कर सकेंगे. पूरा भारत वर्ष बंद पड़ा है. किसके अधर्म से यह दुर्गति छाई ? यह कैसी विपदा आयी. पापकर्मों का फल सबको भोगना है, यह मेरी ही बनाई हुई रचना है, इस नियम को मैं भी नहीं तोड़ सकता.

अपने ही लैंगिक_सुख और स्वार्थ के वशीभूत होकर, भोग काम में लिप्त प्रज्ञाशक्ति से हीन हिंदुओं..! कब तक खुद को बहलाते रहोगे! आज मुझसे दूर होने का कारण महामारी है, कल कुछ और होगा. आज मनुष्य अपने ही कुटिलता के जाल में फंस चुका है.

तुमने मुझे वर्षों तक तंबू में रखा. मैंने वह भी स्वीकार किया और समस्त हिंदुओं को लगातार संकेत देता रहा कि सावधान हो जाओ! मैं तंबू में नहीं हूं बल्कि तुम्हारा भविष्य तंबू में है. मुझसे छल करके क्या करोगे? मैं तो ब्रह्म हूँ, पूरी सृष्टि ही मेरी है. सृजन_और_प्रलय मेरी ही गोद में पलते हैं. कश्मीरी हिंदू भी मेरी आंखों में धूल झोंक रहे थे, 30 वर्षों से कश्मीरी_हिंदुओं की तंबुओं में बिता रहे अपमानजनक जिंदगी देखने के बाद भी तुम्हारी आंखें नहीं खुली तो दोष किसका है?

शांति स्थापना की आड़ में, न्याय-अन्याय की परिभाषा भूलकर, पाँच_एकड़ भूमि के बदले तुमने मेरे ही जन्मस्थान का सौदा कर डाला..! यह भी ना सोचा कि तुम्हारी आने वाली पीढ़ियां कैसे जियेगी? शांति स्थापित करने के लिए ही ना तुमने भारत भूमि का विभाजन कर स्वतंत्रता की आड़ में पाकिस्तान को बांग्लादेश सहित उपहार में दे दिया था. आज बप्पा रावल के नाम पे बसा शहर रावलपिंडी में कितने हिन्दू शेष हैं जो मेरा नाम जपते हैं?

आज जो सनातन से अलग होकर मेरी तस्वीरों पर जूते-चप्पल मार रहे हैं, सच तो यह है कि वह जूते-चप्पल तुम्हारे चेहरे पर मारे जा रहे हैं, जो आज मेरी तस्वीरों पर थूक रहे हैं, वे ही लोग कल तुम्हारी गर्दनें उड़ा देंगे, तुम्हारे घर की स्त्रियों को अपमानित करेंगे.

तुम सोचते होंगे कि मैंने सीता के लिए रावण से युद्ध किया, पर वह युद्ध इसलिए था क्योंकि तुम खुली आंखों से देख सको कि जहां राजा_जनक की पुत्री और रघुकुल की मर्यादा सुरक्षित नहीं थी, वहां आम स्त्रियों का शील कैसे सुरक्षित रहेगा! सीता तो स्वयं लक्ष्मी_स्वरूपा है. उसके तो स्पर्श मात्र से ही रावण भस्म हो जाता.

जगत_जननी सीता जिसे तुम मां कहते हो वह भी लज्जित होकर रो रही है, कि जिसकी सतीत्व की रक्षा के लिए मैंने रावण का संहार कर धरती के समस्त प्राणियों को अत्याचार से मुक्ति दिलाई थी, आज उसी भूमि पर हरपल स्त्री के इज्जत की धज्जियां उड़ाई जाती है, उसी धरती पर मनुष्यों ने वेश्यालय खोलकर खुद को धार्मिक होने का ढोंग रचा रखा है. चौक-चौराहे पर नारीशक्ति को नचाने वालों..! मेरे नाम का जयकारा लगाते समय तुम्हें जरा भी लज्जा नहीं आती..!

मैंने ही शिवस्वरूप धारण कर नंदी को अपना वाहन बनाया, ताकि तुम समझ सको की नंदी की रक्षा ही धर्म रक्षा है. त्रेतायुग में पिता दशरथ द्वारा गायों की सेवा से प्रसन्न होकर ही मेरा धरती पर अवतरण हुआ था, द्वापर में कृष्ण के रूप में गायों की सेवा के लिए ही मैंने अवतार लिया था, इसलिए नहीं कि स्वतंत्रता की आड़ में भारत की पवित्र भूमि पर गायों का रक्त बहे.! क़त्लखानों में असंख्य जीवो की हत्या हो. स्वतंत्र भारत के समय 3 करोड़ 32 लाख एकड़ भूमि गायों के चरने के लिये तुम्हारे पूर्वजों ने दान में दिए थे, वह गोचर_भूमि कहां गई?

गायों की ही भूमि छीनकर कहते हो कि गाय आवारा होकर सड़कों पर घूम रही है? मलेच्छ को मंदिरों में स्थान दे दिया किन्तु गौ मां से इतनी घृणा की मंदिरों से धकेल कर उसे कत्लखानों में पहुंचा दिया, जो गाय काटने का लाइसेंस देकर सत्ता के गलियारों में बैठा है, उसकी जय जयकार करते हो, उसके तलवे चाटते हो. तुम ही बताओ, ऐसे मूर्ख और स्वार्थी समाज की रक्षा भला कौन से देवता करने आएंगे?

ओ अभागों..! जहां सनातन की आड़ में असंख्य पाप हो रहे हो. वहां उसे देखते रहने के लिए तुम अब तक जीवित कैसे हो? मेरा पूरा जीवन संघर्षमय था, फिर तुमने यह मार्ग क्यों नहीं अपनाया! मैंने धर्म की स्थापना के लिए राजसिंहासन छोड़ा, तो क्या तुम अपने निजी स्वार्थों की बलि भी नहीं दे सकते! धर्म की रक्षा कोई खेल है क्या?

यदि तुम मेरे अवतार की प्रतीक्षा कर रहे हो तो मैं आऊंगा, किंतु उस महापराक्रमी रावण का संहार करने जो अत्याचारी होते हुए भी शिवभक्त था, जिसने इंद्र, वायु, अग्नि, पवन तथा शनिदेव जैसे महावीरों को भी बंदी बना रखा था. तीनों लोक जिसके बाहुबल से थरथर काँपता था. क्या मनुष्य रूपी छोटे-छोटे दानवों का वध करने के लिए भी मैं ही आऊं.?

हे_मानव..! हर बार मैं ही धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाऊं यह आवश्यक नहीं ! समाज के क्षुद्र अराजक तत्वों से तो तुम्हें ही निपटना होगा.

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