यह सर्वमान्य सत्य है कि सृष्टि के प्रारंभ में ही सृष्टि’ की प्रलय पर्यन्त जो संविधान वेद के रूप में हमें दिया गया वह आज प्रचलन से बाहर हो गया है। यह अलग बात है कि उसको मानने वाले आज भी भारत में ही नही अपितु विदेशों में भी पर्याप्त हैं।
हम भारतीय अपने मूल स्वभाव के अनुसार उदार हैं। यह उदारता हमें वेदों से शिष्टाचार को सिखाते सिखाते मिली हैं। भोजन पानी लेते समय, या कहीं किसी स्थान पर बैठते समय भी हम उदारता के शिष्ट आचरण का प्रदर्शन करते हुए एक दूसरे के लिए ‘पहले आप-पहले आप’ की रट लगाते हैं। पहले आप की यह बीमारी हमारे लिए (वेदों के संदर्भ में) एक अभिशाप बन गयी। यह सिद्घांत तो अच्छा था, परंतु इस शिष्टता की अति हो गयी। हम भूल गये कि अति सर्वत्र वर्जयेत्।
इस ‘पहले आप’ की बीमारी का परिणाम ये निकला कि जब ईश्वरकृत ‘वेद’ जैसी पवित्र पुस्तकों का सामना करने के लिए किन्हीं अन्य संप्रदाय वालों ने अपनी (मानवकृत) कुछ पुस्तकों को वेद के समान या उससे भी उच्चतर मानने की घोषणा की तो हमने ‘पहले आप’ का शिष्टाचार निभाते हुए उसे सहज रूप में ही वेद सम्मत मान लिया। फलस्वरूप हमारे इस ‘लचीलेपन’ के कारण लड़ाई ‘पुस्तकों की सर्वोच्चता’ की छिड़ गयी।
ईसा मत और मुस्लिम मत के लोगों ने वेदों की सर्वोच्चता को भंग करने के लिए अपनी पुस्तकों को स्थापित करना आरंभ कर दिया। मूलोद्देश्य था वेद को पुस्तकों की सर्वोच्चता की प्रतियोगिता से बाहर कर देने का। विश्व के चार दर्जन से अधिक देश आज मुस्लिम राष्ट्र कहलाते हैं, यानि वहां से वेद की सर्वोच्चता समाप्त कर दी गयी। ईसाई देशों में यद्यपि बाईबिल का शासन प्रत्यक्षत: नही है परंतु वहां ‘बाईबिल के बादशाह’ पोप के प्रति पूरी निष्ठा रखी जाती है, और पूरा ईसाई जगत आज भी ‘वैटिकन सिटी’ के प्रति श्रद्घा रखता है। इस प्रकार ‘दृष्टि भेद’ ने वेद के प्रति इन लोगों को भी श्रद्घाहीन कर दिया। अंग्रेजों और ईसाईयों ने बड़ी चतुरता से लोकतंत्र के नाम पर और आधुनिकता के नाम पर विश्व में बाईबिल का राज्य स्थापित किया और आज भी उसी के लिए वे प्रयासरत हैं। इसलिए भारत जैसे देशों में ईसाईकरण की प्रक्रिया बड़ी तेजी से चल रही है। इसे वह भारत की ‘पहले आप’ की उदारता का लाभ उठाकर भारत में प्रस्तुत कर रहे हैं और दुर्भाग्य से भारत ऐसा होने दे रहा है।
विश्व में संप्रदायों का महिमा मंडन करते हुए उन्हें धर्म का स्वरूप दिया गया। यह एक चालाकी थी। भारत धर्म की परिभाषा जानता था, क्योंकि वह धर्म का आदि स्रोत था। पर वह चूक कर गया। सम्प्रदाय को जब ‘धर्म’ के रूप में महिमामण्डित किया जा रहा था तब उसने सही समय पर इस चालाकी का प्रतिरोध नही किया और ‘पहले आप’ के अपने मानसिक रोग के कारण सम्प्रदाय को धर्म का प्रतिस्थानापन्न बनने दिया। भारत में ऐसे लोग पैदा हुए जिन्होंने सम्प्रदायों को धर्म घोषित किया और सब धर्मों की शिक्षाओं को मानवता के लिए उपयोगी घोषित किया। इससे संप्रदायों की पुस्तकों की हिंसा फेेलाने वाली आज्ञाओं पर भी औचित्यपूर्ण होने की मुहर लग गयी।
भारत की इस निष्क्रियता का परिणाम ये निकला कि विश्व में शासक और शासित के मध्य की खाई बढऩे लगी। फलस्वरूप नास्तिक लोगों की संख्या में वृद्घि होने लगी। क्योंकि सभी लोग या सभी संप्रदाय ईश्वर के नाम पर ही लोगों का शोषण कर रहे थे। इसलिए कुछ लोगों ने सोचा कि यदि वह ईश्वर ही कुछ लोगों को शोषक बनाता है और कुछ को शोषित बनाकर भेजता है तो वह ईश्वर ईश्वर है ही नही। इसलिए उस ऐसे ईश्वर के विरूद्घ आवाज उठनी चाहिए और उसे नकारना चाहिए। फलत: संसार में कम्युनिस्ट लोग आए, उन्होंने सम्प्रदायों की उन्मादपूर्ण सोच को एक अफीम की संज्ञा दी, फलस्वरूप लोगों ने इस धर्म को नकारना आरंभ कर दिया।
कालांतर में लोगों ने पंथ निरपेक्ष शासन को ही वरीयता देना आरंभ किया। क्योंकि संप्रदाय का उन्माद संसार के लिए घातक सिद्घ हो चुका था। भारत ने अपने वेद से पीछे हटना आरंभ कर रखा था, वह पीछे हटता गया और लोग उसकी थाली में रखे स्वादिष्ट भोजन को ही चट कर गये। उन्होंने भारत के वेद को भी साम्प्रदायिक ग्रंथ घोषित कर दिया। जो वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना से ओत प्रोत ग्रंथ था वह कम्युनिटीज में विभाजित करके देखा जाने लगा। हम देखते हैं कि उन ग्रन्थों को भारत में धर्मनिरपेक्षता के नाम पर पूजनीय माना जाने लगा जो वास्तव में साम्प्रदायिकता को बढ़ावा देने वाले रहे।
वास्तव में तो कम्युनल वही होता है जो कम्युनिटीज की बात करता है। जो व्यक्ति ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ के उच्चादर्श से प्रेरित है और विश्व मानस का धनी है वह साम्प्रदायिक (कम्युनल) नही कहा जा सकता। परंतु भारत में ऐसा किया गया। फलस्वरूप वेद के प्रति श्रद्घा भाव मिटने लगा। आज तक हम यह नही समझ पाए कि धर्म की रक्षा शासन सत्ता के सहयोग के बिना नही हो सकती। धर्म का मूल वेद है। इसलिए वेद की शिक्षाओं का सम्मान कराना तथा उन्हें स्थापित कराना शासन सत्ता के सहयोग के बिना असंभव है। कुरान तब तक कायम है जब तक कि उसकी शिक्षाओं (चाहे वह साम्प्रदायिक और हिंसक ही क्यों न हों) को लागू कराने के लिए शासन सत्ता का सहयोग प्राप्त है। यही स्थिति बाईबिल की है।
शंकराचार्य भारत के वेद धर्म के मर्मज्ञ आचार्य थे। यदि वह न आते तो आज भारत में वेद का नाम लेने वाला एक भी व्यक्ति नही होता। उन्होंने ‘पहले आप’ की आत्मघाती नीति को नही अपनाया अपितु वेदों पर आक्षेप करने वाले लोगों को तथा राजसत्ताओं को शास्त्रार्थ की चुनौती दी और वेदमत को बचाया। आज के विश्व पर आचार्य का यह बहुत बड़ा उपकार था। वेदमत के विपरीत चलने वाले या विपरीत राय रखने वाले लोगों को शंकराचार्य ने महिमंडित नही किया अपितु उन्हें शास्त्रार्थों में पराजित कर वेदमत को मानने के लिए प्रेरित और विवश किया। महर्षि दयानंद ने कहा है-‘सुधन्वा राजा के साथ जो बौद्घ मत का अनुयायी था, शंकराचार्य का शास्त्रार्थ हुआ। इसमें प्रतिज्ञा यह हुई कि यदि शंकराचार्य पराजित हुए तो उन्हें बौद्घमत स्वीकार करना होगा। बौद्घ पंडित वेदों की निंदा करते हुए कहते थे कि वेदों के बनाने वाले भाण्ड, धूत्र्त और राक्षस हैं। झूठे दोष वेदों पर लगाते हैं। सुधन्वा शास्त्रार्थ में हार गया और उसने वेद मत को स्वीकार कर लिया। इसे पश्चात शंकराचार्य बुद्घ गया में गये, वहां का राजा कट्टर बौद्घ था, वर्णाश्रम व्यवस्था को यह राजा नही मानता था। इस राजा को भी जीतकर शंकराचार्य ने वैदिक धर्म का अनुयायी बनाया। बौद्घमत का अब पतन होने लगा।’
इसका अभिप्राय हुआ कि भारत में वेद विरोधी बौद्घमत को शंकराचार्य के सत्प्रयासों ने प्रसारित होने से रोका। महर्षि दयानंद ने भी अपने समय में शंकराचार्य की इसी शास्त्रार्थ परंपरा का आश्रय लिया और उन्होंने राजाओं को विशेषत: सुधारकर सही मार्ग पर लाने का प्रयास किया। आज भी आवश्यकता इसी मार्ग का अनुकरण करने की है। राजशाही आज भी दिशाहीन है। क्योंकि हमारे संविधान ने कई स्थानों पर जिन उच्चादर्शों की बात कही है या उन्हें अपना उद्देश्य घोषित किया है, उन्हें वह (वेद से लेकर भी) प्राप्त करने में असफल रहा है।
आंशिक रूप से भी यदि हमारा संविधान वेद संगत बातों को या आदर्शों को स्थापित करना अपना उद्देश्य बनाता है या घोषित करता है तो उन बातों को आदर्शों को स्थापित कराने में हमारे जनप्रतिनिधि ही सहायक हैं। अधिकांश जनप्रतिनिधियों को वेद का ज्ञान नही है। इसलिए सुधार की आवश्यकता इन्हीं लोगों की है।
शंकराचार्य और दयानंद के पुरूषार्थपूर्ण उद्यम को पुन: क्रियान्वित करने की अवश्यकता है। पूर्वाेत्तर में बाईबिल वेद को पराजित कर चुकी है तो इस्लाम बहुल क्षेत्रों में कुरान वेद को भगा रही है।
हमारे सुधन्वा स्वयं को धन्य मान रहे हैं और आधुनिकता के नाम पर गलत कार्य का प्रतिकार करने की क्षमता खो बैठे हैं। फलस्वरूप कम्युनल शक्तियां कम्युनिटी की बात कहकर बलवती होती जा रही हैं। संविधान का सामासिक संस्कृति के विकास का सपना धूमिल होता जा रहा है। आदर्श ओझल और जीवन बोझिल होता जा रहा है।
हम ‘पहले आप’ की रट को भूल जायें। राष्ट्र धर्म और संस्कृति के संदर्भ में यह सिद्घांत नही चलता। वहां ‘पहले हम’ का सिद्घांत चलता है। वहां शास्त्रार्थ होते हैं कि मानव जीवन के लिए ही नही अपितु प्राणिमात्र के जीवन के लिए कौन से सिद्घांत उचित हैं। इस शास्त्रार्थ से जो औचित्यपूर्ण सिद्घांत सिद्घ हों उन्हें स्वीकार करना अनिवार्य होता है। वहां यह नही चलता कि आप गोमांस खाते हैं तो भी अपनी जगह उचित है और मैं गोरक्षा करता हूं तो अपनी जगह मैं भी उचित हूं।
यह सोच ही गलत विचार को आगे बढऩे का अवसर उपलब्ध कराती है। गलत विचार की कोंपल को यदि व्यक्ति फूटते फूटते ही मसल दे तो वह एक विकार नही बन पाता है। स्वस्थ रहने के लिए ‘पथ्यापथ्य’ का ध्यान रखना पड़ता है।
इसी प्रकार स्वस्थ समाज की संरचना के लिए भी हमें किसी विचार के ग्राह्य या अग्राह्य होने पर पहले ही सावधानी बरतनी चाहिए। यदि ऐसा नही किया जाता है तो समाज की विसंगतियां बढ़ती जाएंगी और हम अपने सर्वनाश की ओर यूं ही बढ़ते जाएंगे। समय रहते हमें अपने आदि संविधान वेद से अपनी दूरियों को समेट लेना चाहिए। स्वस्थ चिंतन से स्वस्थ समाज का निर्माण होता है, जबकि संकीर्ण चिंतन संकीर्ण समाज का सृजन करता है।