बंदगी से खुदा नही मिलता : राही तू आनंद लोक का
गतांक से आगे…
हे भारती! तू उन ऋषियों की संतान है जिन्होंने मानव मात्र के लिए आदर्श उपस्थित किये थे। इसलिए तेरा जीवन आज भी आदर्शों से ओतप्रोत होना चाहिए-
चौबीस घंटे जी इस राग में।
समर्पण, अभिप्सा और त्याग में।।
अपना, वेदों का ये विधान
रे मत भटकै प्राणी……..19
साधक को चौबीस घंटे किन भावों के साथ जीना चाहिए।
1. अभिप्सा (तडफ़, प्यास, जिज्ञासा) प्रत्येक साधक के हृदय में प्रभु मिलन की प्यास होनी चाहिए। उसका ध्यान प्रभु चरणों में ऐसे होना चाहिए जैसे कुतुबनुमा की सुई सर्वदा उत्तर दिशा में ही रहती है चाहे उसे किसी भी अवस्था में रखो।
अत: साधक को चाहिए कि उसके हृदय में सांसारिक वस्तुओं की प्राप्ति के लिए ही नही अपितु परमात्म तत्व की प्राप्ति के लिए एक गहरी तडफ़ होनी चाहिए। जैसे कोई बच्चा अपने किसी प्रिय खिलौने को प्राप्त करने के लिए बेचैन हो उठता है, जिद करता है, रूदन करता है, अंतत: उसे प्राप्त करके ही शांत होता है ऐसे ही साधक के हृदय में परमात्म प्राप्ति की अभिप्सा होनी चाहिए, एक तडफ़ होनी चाहिए। जैसे पपीहा स्वाति नक्षत्र की बूंद को प्राप्त करने पर ही शांत और प्रसन्न होता है, ठीक ऐसे ही साधक के हृदय में परमात्म प्राप्ति के लिए चातक की सी चाह होनी चाहिए, एक ऐसी प्यास होनी चाहिए जो उसे परमात्म प्राप्ति के लिए अधीर कर दे।
2. त्याग-साधना की राह पर चलते अनेकों प्रलोभन आएंगे, क्रोध और वासना के तूफान आएंगे, राग की वैतरणी आएगी, ईष्र्या और द्वेष की धुआं रहित अग्नि भी निरंतर जलाएगी, अहंकार का बवण्डर उठेगा, मोह की गहरी खाई भी होगी, यहां तक कि ‘किंकत्र्तव्यविमूढ़’ की मन:स्थिति भी होगी किंतु इन सब, बाधाओं को त्याग कर विवेक के प्रकाश में आत्मा की आवाज पर साधना के पथ पर निरंतर बढऩा होगा। सभी उपरोक्त बाधाओं के बीच साधक को अपने चित्त को ऐसे पवित्र और प्रसन्न रखना होगा जैसे कीचड़ में कमल खिलता है। उपरोक्त बाधाओं को बाधाएं समझकर नही अपितु परीक्षा के विभिन्न आयाम समझकर उत्तीर्ण करना होगा, तितीक्षा का जीवन जीना होगा। सर्वदा इस भाव में जीना होगा-हे प्रभु! कठिन से कठिन परीक्षा ले लो, मेरा पदस्खलन नही होगा क्योंकि मेरा अंतिम ध्येय तुझे प्राप्त करना, तेरा साक्षात्कार करना है, तेरा कृपा पात्र बनना है, तेरी ज्योति में ही अपनी ज्योति को ऐसे विलीन करना है जैसे सूर्य अपनी ज्योति को सांझ के आगोश में विलीन कर देता है।
3. समपर्ण-धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, ज्ञान, वैराग्य और अंत:करण की शुद्घि इन सबके लिए भक्ति परम साधन है और भक्ति तब तक अधूरी है जब तक साधक के हृदय में समर्पण का भाव नही। साधक चौबीसों घंटे ऐसे सत्कर्म करें जिनसे उसका प्रीतम प्रसन्न हो और हृदय में समर्पण का भाव रहे कि यह सत्कर्म मैं अपने लिए नही अपितु अपने प्रीतम को प्रसन्न करने के लिए कर रहा हूं जैसे एक प्रेमी अपनी प्रेमिका को प्रसन्न करने के लिए करता है। इस संदर्भ में किसी उर्दू के कवि ने कितना सुंदर कहा है-
आशिकी से ही मिलेगा, ऐ जाहिद!
बंदगी से खुदा नही मिलता।।
जाहिद अर्थात तपस्वी आशिकी अर्थात प्रेमाभक्ति। जब प्रेम चरम सीमा पर पहुंच जाए तो इसे कहते हैं आशिकी। साधक जब समर्पण और प्रेम की इस चरम सीमा पर पहुंच जाता है तभी अन्नमय कोश, प्राणमयकोश, मनोमय कोश और विज्ञानमय कोश से आगे जाकर आनंदमय कोश में भगवान के दर्शन होते हैं। इस अवस्था में पहुंचने पर साधक को अरबों खरबों सूर्यों की भांति चमकता हुआ वह प्रकाश दिखायी देता है जिसे देखने के बाद कुछ देखना शेष नही रहता, जिसे पाने के बाद कुछ पाना शेष नही रहता, जहां इच्छाओं का अंत हो जाता है, बेचैनी का, अशांति का अंत हो जाता है, परमशांति छा जाती है, परम आनंद जाग उठता है परम कल्याण की भावना से भरपूर परमशक्ति देदीप्यमान प्रकाश के साथ चमकने लगती है।
साधक के द्वारा प्रेम और समर्पण की इस ऊंची अवस्था को प्राप्त करने की स्थिति को प्रेमाभक्ति कहा है। भगवान कृष्ण ने गीता में इसे शरणागति कहा है योगदर्शन में इसे ईश्वर प्राणिधान कहा है, अर्थात अपने आपको प्रभु के अर्पण कर देना। वेद ने ऐसी भक्ति को दाषुश कहा है अर्थात ऐसी भक्ति जिसमें अपना सर्वस्व, यहां तक कि अपना आपा भी प्रभु चरणों में समर्पित कर दिया जाए। जब यह अवस्था आती है तो साधक ऐसे थिरकने लगता है जैसे नर्तकी स्वर लहरियों और वाद्य की ताल पर थिरकती है। केवल मात्र प्रभु का नाम जुआं पर आ जाए तो वह भाव विभोर हो जाता है, हृदय के तार झंकृत हो जाते हैं। इसीलिए इस संदर्भ में कवि कहता है-
यही है जिंदगी अपनी,
यही है बंदगी अपनी।
कि तेरा नाम आया,
और गर्दन झुक गयी अपनी।।
हे मनुष्य! तुझे उपरोक्त तीनों भावों के साथा जीवन जीना चाहिए। तू सामान्य प्राणियों जैसा नही है। तू आनंद लोक का राही है। तेरा गंतव्य भगवदधाम है। जिसे प्राप्त करने के लिए तुझे सर्वदा तत्पर रहना चाहिए।
जान ले त्रिविध ब्रह्मा को।
सफल बनाना इस जन्म को।।
‘विजय’ छोड़ जा ऐसे निशान,
रे मत भटकै प्राणी……..20
प्रथम पंक्ति की व्याख्या-श्वेताश्वतर उपनिषद, पृष्ठ संख्या-988, 989 पर इस उपनिषद का ऋषि कहता है-वह नित्य देव कहीं दूर नही, आत्मा में ही स्थित है, उसी को जानना चाहिए। उसे जानने के बाद, उससे परे, जानने योग्य कुछ नही रहता। जीव भोक्ता है, प्रकृति भोग्य है, ईश्वर प्रेरक है-भोक्ता, भोग्य और प्रेरक-यह त्रिविध ब्रह्मï है-यह कह दिया तो सर्वप्रोक्तम-सब कुछ कह दिया।
ब्रह्मï, अर्थात महानता के ये ही तो तीन रूप हैं। अत: हे मनुष्य! समय रहते हुए इन्हें जान और संसार में अपनी विलक्षण पहचान छोड़ कर जा। ताकि तेरा यह जीवन सार्थक हो, सफल हो। यह कभी मत भूल कि तून आनंद लोक का राही है, आनंद लोक का वासी है।
गुरूदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर के इन विचारों के साथ अपनी वाणी को विराम देना चाहता हूँ जो कितने मार्मिक हैं, हृदय स्पर्शी हैं, प्रेरणास्पद हैं। जरा इन पर चिंतन कीजिए-
‘जैसे कोई नीर भरी बदली भटक जाती है, ठीक इसी तरह मनुष्य भी एक भटका हुआ फरिश्ता (देवता) है। मनुष्य यदि अपने आपको पहचाने तो वह देवत्व की बुलंदियों को छू सकता है, भगवत्ता को प्राप्त हो सकता है।