मनीराम शर्मा
ब्रिटिश सरकार ने भारत के देशी उद्योग धंधों को नष्ट कर दिया था। कच्चा माल ब्रिटेन जाता था और बदले में तैयार माल आता था। इस प्रकार देश का शासन विशुद्ध व्यापारिक ढंग से संचालित था। स्वतंत्रता के पश्चात देशवासियों को आशा बंधी थी कि रोजगार में वृद्धि से देश में खुशाहाली आएगी और देश फिर से सोने की चिडिय़ा बन सकेगा।भारत में प्राकृतिक और मानव संसाधन प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं। यहाँ तक कि देश में उपलब्ध संसाधनों की अमेरिका, चीन, जापान और दक्षिण अफ्रिका से तुलना की जाये तो भी भारत किसी प्रकार से पीछे नहीं है। जापान में तो मात्र 1/6 भूभाग ही समतल और कृषि योग्य है और वहां बार बार भूकंप आते रहते हैं किन्तु फिर भी वहां कुछ घंटों में ही जनजीवन सामान्य हो जाता है। भारत की स्थिति पर नजर डालें तो यहाँ आम व्यक्ति को पेयजल, बिजली, सडक जैसी मूलभूत सुविधाओं के लिए महानगरों से लेकर ढाणियों तक वंचित रहना पड़ता है और धरने प्रदर्शन करने पड़ते हैं फलत: उत्पादक समय नष्ट होता है। हमारी सरकारें वर्षा अच्छी होने पर भी बिजली पर्याप्त नहीं दे पाती और बहाने बनाती हैं कि कोयला खदान में पानी भर जाने से कोयला नहीं पहुँच सका, बिजली की लाइनें खराब हो गई। वहीं वर्षा की कमी होने से सरकार कहती है कि गर्मी के कारण फसलों की सिंचाई व सामान्य उपभोग में बढ़ोतरी के कारण बिजली की कमी आ गयी है। ठीक यही हालत पेयजल की है। हमारी सड़कें भी बरसात से क्षतिग्रस्त हो जाती हैं और गर्मी में आंधियों से सड़कें मिटटी से सन जाती हैं।कुल मिलाकर प्रकृति चाहे हमारे पर मेहरबान या कुपित हो, हम दोनों ही स्थितियों का मुकाबला करने के स्थान पर बहाने गढऩे में माहिर है। नगरपालिका क्षेत्र में नालों की सफाई के लिए कई दिनों तक जलापूर्ति रोकनी पड़ती है। इन सभी के लिए संसाधनों की कमी एक बहुत बड़ा कारण बताया जाता है किन्तु चुनाव नजदीक आते ही संसाधनों का जुगाड़ हो जाता है और जनता को दिग्भ्रमित करने के लिए सडक, बिजली और पानी की व्यवस्था को कुछ समय के लिए सुचारू बना दिया जाता है और वोटों के ठेकेदारों को थैलियाँ भेंट कर दी जाती हैं। फिर 5 वर्ष के लिए रामराज्य की पुन:स्थापना हो जाती है। यह हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था है जिस कारण देश में आर्थिक विकास की गति मंद रही है और स्वतंत्रता के वृक्ष के फल आम आदमी की पहुँच से बाहर हैं। देश नौकरशाही और लालफीताशाही के शिकंजे से आज भी मुक्त नहीं है अत; विकास की गति धीमी है। भ्रष्टाचार, सुरक्षा और न्याय व्यवस्था की स्थिति तो और भी खराब है अत: आम व्यक्ति अपनी पूर्ण क्षमता से कार्य नहीं कर पाता है। देश के आम नागरिक को कोई उपक्रम शुरू करने से पूर्व अपनी पूंजी की सुरक्षा और सरकारी तंत्र की भेंटपूजा के विषय में कई बार सोचना पड़ता है। दूसरी ओर जापान, जो द्वितीय विश्व युद्ध में 1946 में जर्जर हो गया था विश्व पटल पर आज एक गण्यमान्य स्थान रखता है। दक्षिण अफ्रिका को जो भारत से 14 वर्ष बाद आजाद हुआ उसने भी काफी तेजी से विकास किया है और आज वहां प्रति व्यक्ति आय (10,9।3 डॉलर) भारत (3,694) से 3 गुणी है वहीं युद्ध जर्जरित व्यवस्था का पुनर्निर्माण करने के बाद आज जापान की प्रति व्यक्ति आय (34,।40) भारत से 9 गुणा है। यही नहीं भारत की प्रति व्यक्ति आय विश्व की प्रति व्यक्ति औसत आय (10,।00) से भी एक तिहाई है। आज जिस गति से भारत में हवाई जहाज चलते हैं उस गति से तो जापान में रेलगाड़ी चलती है। भारत में देशी उद्यमियों को जिन छूटों से इनकार किया जाता है वे छूटें विदेशी निवेशकों को दे दी जाती हैं। जिस दर पर विदेशों से घटिया गेहूं आयात किया जाता है वह समर्थन मूल्य देश के मेहनतकश किसानों को उपलब्ध नहीं करवाया जाता है। क्या लोकतंत्र का यही असली स्वरूप है जिसके लिए हमारे पूर्वजों ने अंग्रेजो की लाठियां और गोलियां खाई थी या देश का नेतृत्व फिर विदेशी और पूंजीपतियों के हाथों की कठपुतली मात्र रहा गया है। देश की खराब हालत का जिक्र करने पर नेता लोगों का बचाव होता है कि बड़ा क्षेत्र होने के कारण नियंत्रण नहीं हो पाता है। किन्तु उनका यह बहाना भी बनावटी मात्र है। एक छोटा सा महावत अपनी युक्ति, इच्छाशक्ति और कौशल के आधार पर विशालकाय हाथी पर भी नियंत्रण कर लेता है। दूसरी और हमने इसी तर्क पर झारखंड, छत्तीसगढ़ जैसे छोटे राज्य भी बनाकर देख लिए हैं किन्तु इन राज्यों में अराजकता, असुरक्षा और सार्वजानिक धन की लूट में बढ़ोतरी ही हुई है कोई कमी नहीं आई है। छोटे प्रदेश तो राज नेताओं को अधिक पदों का सृजन कर अपने स्वामीभक्तों को उपकृत करने के लिए चाहिए। वास्तव में आज भारत में जनता के सुख-दु:ख से राजनीति का कोई सरोकार नहीं रह गया है। जब देश में निगरानी, नियंत्रण और शासन व्यवस्था मजबूत हो तो नीजी क्षेत्र से भी अच्छा काम लिया जा सकता है। अमेरिका और इंग्लॅण्ड में आज जेलें, जोकि सरकार का संप्रभु कार्य है, भी निजी क्षेत्र में सफलतापूर्वक संचालित हैं।
भारत में सरकारें सामाजिक उद्देश्यों की आड़ में राजनैतिक हित साधने के लिए उद्यमों का भी राष्ट्रीयकरण करती हैं किन्तु आज भारत में जनता का रक्तपान करने की दौड़ में सरकारी उपक्रम भी पीछे नहीं हैं। जब बैंकों की ब्याज दरों पर रिजर्व बैंक का नियंत्रण हुआ करता था तब रिजर्व बैंक के उप गवर्नर की अध्यक्षता में भारत सरकार ने बैंकों की मियादी जमा पर ब्याज दरों के निर्धारण के लिए एक कमेटी का गठन किया था। तत्कालीन कमिटी का आकलन था कि मियादी जमाओं पर ब्याज दर चालू मुद्रा स्फीति की दर से 2त्न प्रतिशत अधिक होनी चाहिए ताकि जमाकर्ता को वास्तव में सकारात्मक ब्याज मिले अन्यथा मुद्रा स्फीति की दर से कम ब्याज दर से तो जमाकर्ता को ऋणात्मक ब्याज मिलेगा और उसे बचत से किसी वस्तु का संग्रहण करने के बजाय जमा कराने पर शुद्ध हानि होगी। बाद में रिजर्व बैंक की ही एक अन्य कमिटी ने दिनांक 1।.09.01 को प्रस्तुत एक अन्य रिपोर्ट में भी इस तथ्य पर विचार किया है। कमजोर कानून और न्यायव्यवस्था के चलते देश के निजी क्षेत्र में निवेश सुरक्षित नहीं है अत: निजी क्षेत्र को जनता से सीधा धन मिलना कठिन होता है। एक व्यवसायी के लिए तो कोई भी ब्याज दर मायने नहीं रखती क्योंकि उसने तो अपने उत्पाद या सेवा की लागत में ब्याज को भी जोडऩा है। व्यवसायी लोग तो स्टोक का अपसंचय कर मुनाफाखोरी और कालाबाजारी के माध्यम से सामान्य लाभ के अतिरिक्त अच्छा लाभ कमा लेते हैं अत: मुद्रास्फीति भी उनके लिए लाभकारी होती है और वे उसका विरोध नहीं करते।समाजवादी सिद्धांतों के विपरीत, कालांतर में पूंजीपतियों के इशारों पर, बैंकों जमा की ब्याज दरों को अनियंत्रित कर दिया गया ताकि ऋणों की ब्याज दरों में कमी होने से उनको लाभ मिल सके। भारत में स्वतंत्रता काल से आज तक की मुद्रास्फीति दर का औसत 8त्न वार्षिक चक्रवृद्धि आता है। गत 10 वर्ष में तो यह दर 13त्न आती है किन्तु आज किसी भी बचत योजना में ब्याज दरें मुद्रा स्फीति की इस दर से अधिक होना तो दूर रहा इसके बराबर भी नहीं है और बचत करने वालों को शुद्ध हानि हो रही है। आज मियादी जमाओं पर ब्याज दरें 9त्न के दायरे में चल रही हैं और ब्याज दरों में कमी का लाभ बैंकों के माध्यम से जहां एक ओर ऋण लेने वाले पूंजीपतियों को प्राप्त हो रहा है, वहां अल्प साधनों वाले नागरिकों को बचत करने से शुद्ध हानि हो रही है। इनमें भी सेवानिवृत और वृद्ध नागरिक जो अपनी बचतों को किसी अन्य स्थान पर लगाने या व्यवसाय करने की स्थिति में नहीं हैं उन्हें विवश होकर अपनी बचतों को मात्र बैंकों या अल्प बचत योजनाओं में लगाना पड़ता है। लोक -प्रदर्शन के लिए उन्हें ½त्न की दर से अतिरिक्त ब्याज दिया जाता है जो किसी भी प्रकार से पर्याप्त नहीं है।उक्त वृतांत से बड़ा स्पष्ट है कि संवैधानिक उद्देश्यों के विपरीत कमजोर वर्ग से सस्ती दर पर जमाएं एकत्रित करके समर्थ व्यावसायियों को कम ब्याज पर ऋण उपलब्ध करवाने में हमारा बैंकिंग तंत्र मदद कर रहा है और मजबूर लोगों का शोषण कर रहा है। ऐसी स्थिति में देश में समाजवाद कैसे स्थापित हो सकता है।हमारी सरकारों के छुपे हुए एजेंडे होते हैं जिन पर चलकर वे लोक कल्याण के स्वांग करती हैं। आज से 10 वर्ष पूर्व जब सीमेंट और स्टील उद्योग मंदी का गिरफ्त में था तो बैंकों को निर्देश देकर आवास ऋण की ब्याज दरें ।त्न तक नीचे ला दी गयी और कालान्तर में उक्त उद्योग मंदी से उबर गए हैं और भू सम्पतियों की दरें आसमान छूने लगी हैं। अब मकानों की अधिक लागत के कारण ऋण की आवश्यकताएं बढ़ी हैं किन्तु अब आवास ऋणों की ब्याज दरें 11त्न कर दी गयी हैं।वित्तीय क्षेत्र में लोग जनता का धन लूटकर उसका मनमाना उपभोग करते हैं अथवा फरार हो जाते हैं व उनका कुछ भी नहीं बिगड़ता है और जनता हाथ मलती रह जाती है। देश की इस कमजोर व जिम्मेदारी विहीन कानूनी और न्याय व्यवस्था को देखकर ही निजी व विदेशी लोग बैंकिंग व वित्तीय क्षेत्र में आने को आतुर रहते हैं। ये लोग जानते हैं कि इस देश में चाहे कितने ही सख्त कानून बना दिए जाएँ उन्हें पैसे की शक्ति से नर्म बनाया जा सकता है। अत: बैंकिंग और वित्तीय क्षेत्र विदेशी और निजी निवेशकों के लिए बड़ा आकर्षक है। भारत में जीवन बीमा व्यसाय में मात्र 1.5त्न जोखिम है किन्तु वे एजेंटों के माध्यम से जनता को डरावने सपने दिखाकर व्यवसाय कर रहे हैं और बीच में पालिसी बंद करने वालों का धन अवैध रूप से हडप रहे हैं। आम जनता को भ्रमित करने, और बीमा योजनाओं को बैंकों से अधिक आकर्षक बताने के लिए बीमा कम्पनियां अपना बोनस भी प्रतिशत के स्थान पर प्रति हजार घोषित करती हैं जोकि 3-5त्न आता है और यह भारत में प्रचलित मुद्रा स्फीति की दर से ही कम है। अत: बीमा में निवेश करने पर भी आम जनता को हानि ही हो रही है। बीमा कंपनियों द्वारा संग्रहित इस धन में से 5त्न हिस्सा सरकार को सस्ते ब्याज पर उपलब्ध हो जाता है अत: सरकार भी इस लोभ में जनता के शोषण के प्रति आँखें मूंदे रहती है और इस आकर्षक क्षेत्र में भी निजी और विदेशी निवेशक आने को लालायित रहते हैं। बैंकिंग, दूर संचार, शेयर बाजार, बीमा आदि व्यवसायों की नियामक एजेंसियां भी जनता को कोई राहत नहीं देती हैं और अंत में जनता को सक्षम न्यायालय/मंच में जाने का परामर्श देकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेती हैं।केंद्र सरकार ने कृषि ऋणों पर ब्याज दरें कम करने और नियमित खातों पर कृषकों को ब्याज अनुदान देने की घोषणा की किन्तु इस घोषणा का भी वास्तविक लाभ किसानों को नहीं मिला। सरकारी बैंकें पहले 30000 रूपये तक के कृषि ऋणों पर मात्र 25 रूपये वार्षिक खाता प्रभार लिया करते थे किन्तु सरकार द्वारा रियायती ब्याज दर की घोषणा करने पर यह प्रभार 10 गुना से भी अधिक अर्थात 280 रूपये वार्षिक कर दिया गया है।इस प्रकार किसानों को सरकार ने एक हाथ लाभ दिया और दूसरे हाथ सरकारी बैंकों के माध्यम वसूल लिया। कृषि ऋण खातों की निगरानी के लिए सामान्यतया बैंक अधिकारीगण कोई निरीक्षण नहीं करते फिर भी अवैध रूप से रूपये 500 से अधिक वार्षिक निरीक्षण प्रभार वसूल रहे हैं। भारी भरकम नवीनीकरण शुल्क अलग रह जाता है। बहुत सी बैंक शाखाओं में इन वसूले गए प्रभारों की राशि बैंक द्वारा खर्च किये गए यात्रा भत्ता बिलों की राशि से भी अधिक हो सकती है। कृषि क्षेत्र के ऋण के लिए रिजर्व बैंक के निर्देशानुसार किसी अन्य बैंक या वित्तीय संस्था से कोई अदेय प्रमाण-पत्र लेने की आवश्यकता नहीं है और इसके लिए मात्र संभावित ऋणी से इस आशय का शपथ पत्र लेना पर्याप्त है। राजस्थान सरकार ने वर्ष 1980 में एक अधिसूचना जारी कर सरकारी बैंकों के शाखा प्रबंधकों को इस शपथ पत्र के सत्यापन के लिए अधिकृत कर रखा है और इस पर देय स्टाम्प शुल्क की भी छूट दे दी गयी है। किन्तु इसके बावजूद बैंकें कृषकों से अदेय प्रमाण पत्र पर बल देती हैं जिनके लिए उन्हें शुल्क देना पड़ता है और समय नष्ट होता है। रिजर्व बैंक के निर्देश हैं कि आवश्यक होने पर कृषकों के अदेय प्रमाण पत्र ऋणदाता बैंकें एक साथ समूह में अपने स्वयम के ही स्तर पर मंगवा सकती हैं। किन्तु इन निर्देशों की अवहेलना खेदजनक तथ्य है।भारत गाँवों का देश है और कृषि व सम्बंधित उद्योग उसकी आत्मा है। कृषि और ग्रामीण क्षेत्र को सस्ता व सुलभ ऋण उपलब्ध करवाने के लिए सहकारिता आन्दोलन की शुरुआत की गयी थी और सहकारिता के माध्यम से देश के ग्रामीण क्षेत्र की बड़ी आर्थिक सहायता की जा रही है। केंद्र सरकार सहकारिता क्षेत्र को वितीय सहायता उपलब्ध करवा सकती है। सहकारिता, राज्य सरकारों का विषय है अत: इस क्षेत्र में अतिक्रमण करने के लिए केन्द्र सरकार ने बिना किसी व्यवहारिक योजना के 19।4 से जिला स्तर पर 300 से अधिक ग्रामीण बैंकों की स्थापना की। कुछ समय तक ग्रामीण बैंकों की अंधाधुंध शाखाएं खोलने का सिलसिला चला और इस हेतु प्रशस्ति-पत्र दिए गए। किन्तु शीघ्र ही इस अभियान से सरकार को हाथ खेंचने पड़े। बाद में इन शाखाओं को अर्थक्षम और व्यवहारिक नहीं पाया गया अत: इनमें से लगभग आधी शाखाओं को बंद कर दिया गया या अन्य शाखाओं में मिला दिया गया अथवा स्थापित उद्देश्यों के विपरीत शहरी क्षेत्र में अंतरित कर दिया गया। कालान्तर में ये बैंकें भी जब सक्षम नहीं रही तो इनका विलय कर अब मात्र 56 ग्रामीण बैंकें बना दी गयी हैं। यह सब हमारी अपरिपक्व व अदूरदर्शी सोच और सस्ती लोकप्रियता मूलक नीतियों का परिणाम था।
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