———————
– भावेश मेरजा
आर्य समाज के प्रवर्तक स्वामी दयानंद सरस्वती जी ने धर्म शब्द को अनूठे ढंग से व्याख्यायित किया है। उन्होंने धर्म शब्द की ऐसी व्याख्या की है कि जिसमें ज्ञान के साथ साथ आचरण को भी अर्थात् सत्य के अनुसंधान एवं सत्याचरण दोनों को समुचित स्थान दिया है।
सर मोनियर विलियम्स प्राच्य विद्याविद् थे। वे ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में संस्कृत के प्रोफेसर रहे। 1876 में जब वे मुंबई में थे तब उन्होंने स्वामी दयानंद जी के व्याख्यान सुने थे एवं उनसे वार्तालाप भी किया था। इसी वार्तालाप के दौरान उन्होंने स्वामी जी से “धर्म” की परिभाषा पूछी थी। इस प्रसंग को उन्होंने अपनी “ब्राह्मनिजम एंड हिंदुइजम” पुस्तक में लिपिबद्ध किया है। वे लिखते हैं –
“I made his (Dayanand’s) acquaintance in 1876 and much struck by his fine countenance and eloquent discourse on the religious development of the Aryan race. He began by repeating a hymn to Varun (iv-16), preceded by the syllable Om protating the vowel in deep sonorous tones. (p. 529)… In one of my interviews with him I asked him of his definition of religion (dharma). He replied in Sanskrit. Religion (dharma) is a true and just view and the abandonment of all prejudice and partiality, that is to say, it is an impartial enquiry in to the truth by means of senses and other instruments of knowledge, reason and revelation (Vedas).”
[Source: Brahmanism and Hinduism, by M. M. Williams, London, 4th Edition, p. 529-530, 1891]
अर्थात् 1876 में बम्बई में मेरा स्वामी दयानन्द से परिचय हुआ था। मैं उनकी भव्य मुखाकृति से बहुत प्रभावित हुआ। यहीं मैंने ‘आर्य जाति के धार्मिक विकास’ विषय पर उनका एक प्रभावशाली भाषण सुना। उन्होंने अपने भाषण के आरंभ में वरुण (ईश्वर) की स्तुति में रचित एक वेदमन्त्र का ओम् के मधुर ध्वनि में उच्चारणपूर्वक गान किया। अपने एक बार के वार्तालाप में मैंने जब उनसे ‘धर्म’ की परिभाषा पूछी तो उन्होंने संस्कृत में कहा कि – “धर्म वह है जो सत्य तथा न्याय से युक्त होता है, जिसमें पक्षपात का लेशमात्र भी नहीं होता; जिसे ज्ञानन्द्रियों तथा ज्ञानप्राप्ति के अन्य साधनों के अतिरिक्त तर्क एवं वेदप्रमाण (वेदाज्ञा) से भी जाना जा सकता है।”
स्वामी जी ने सत्यार्थप्रकाश के अंत में दिए गए स्वमन्तव्यामन्तव्यप्रकाश में तथा आर्योद्देश्यरत्नमाला पुस्तक में भी धर्म की ऐसी ही परिभाषा दी है। जैसे कि –
“जो पक्षपातरहित न्यायाचरण, सत्यभाषणादि युक्त, ईश्वराज्ञा, वेदों से अविरुद्ध है, उसको ‘धर्म’ और जो पक्षपातसहित अन्यायाचरण, मिथ्याभाषणादि ईश्वराज्ञाभङ्ग, वेदविरुद्ध है, उसको ‘अधर्म’ मानता हूँ।” (स्वमन्तव्यामन्तव्यप्रकाश, क्रम 3)
“धर्म – जिसका स्वरूप ईश्वर की आज्ञा का यथावत् पालन और पक्षपातरहित न्याय, सर्वहित करना है, जो कि प्रत्यक्षादि प्रमाणों से सुपरीक्षित और वेदोक्त होने से सब मनुष्यों के लिए यही एक मानने योग्य है, उसको ‘धर्म’ कहते हैं।” (आर्योद्देश्यरत्नमाला, क्रम 2)