इदन्नमम् की सार्थक जीवन शैली ही विश्वशांति और विश्व कल्याण की एकमात्र कसौटी है। अभी तक हमने इसी विषय पर पूर्व में भी कई बार अपने विचार स्पष्ट किये हैं। अब इस अध्याय में पुन: कुछ थोड़ा विस्तार से अपने विचार इस विषय पर रखे जा रहे हैं।
भर्तृहरि जी संसार में तीन प्रकार के लोगों का वर्णन करते हुए लिखते हैं :-
प्रारभ्यते न खलु विघ्नभयेन नीचै:
प्रारभ्य विघ्नविहिता विरमन्ति मध्या:।
विघ्नै: पुन: पुनरपि प्रतिहन्यमाना
प्रारभ्य चेत्तमजना न परित्यजन्ति।
भर्तृहरि जी कह रहे हैं कि नीच लोग, मध्यम लोग और उत्तम लोग ये तीन प्रकार के लोग संसार में होते हैं, जो किसी कार्य को अपने हाथ में लेते हैं तो उसे अपनी-अपनी प्रकृति के अनुसार या तो कार्य को प्रारंभ ही नहीं करते, या करते हैं तो उसे बीच में ही छोड़ देते हैं, अथवा कुछ लोग अपनी प्रकृति के अनुसार उस कार्य को पूर्ण करके ही रूकते हैं। इसके लिए भर्तृहरि जी उन लोगों को जो कि विघ्नभय से कार्यारम्भ ही नहीं करते, नीच पुरूष कहते हैं। क्योंकि वे कार्य को इस भय से प्रारंभ नहीं कर पाते कि यदि इस कार्य को करेंगे तो ‘ऐसा हो सकता है’ या वैसा हो सकता है? इसीलिए उनकी चेतना भी निम्नतम स्तर की होती है और निम्नतम चेतना में जीने के कारण ही कार्यारम्भ करने ना करने के बहाने खोजते रहते हैं। जिस कारण उन्हें नीच पुरूष कहा जाता है।
अब आते हैं मध्यम पुरूषों पर। ये वे लोग होते हैं जो कार्य का आरंभ तो कर देते हैं पर जैसे ही कोई विघ्न या बाधा आती है, तो ये अपने कार्य को आरंभ करने पर भी बीच में ही छोड़ देते हैं। इन्होंने कार्य को बिना सोचे समझे आरंभ तो कर दिया , पर मध्य में ही छोडक़र बैठ गये – इसलिए मध्यम पुरूष कहलाते हैं। पथ का चयन किया-उस पर चले भी, पर लक्ष्य से पहले ही कहीं अटक गये। इसलिए यात्रा को बीच में ही विराम दे दिया। अपनी इस प्रवृत्ति के कारण ये मध्यम पुरूष भी लोगों के लिए आदर्श हो सकते हैं। इसके पश्चात अब आते हैं तीसरे प्रकार के लोगों पर ।ये वे लोग हैं-जो अपने यात्रा पथ पर बढ़े पग को लक्ष्य से पहले ना तो कहीं अटकने देते हैं और ना ही भटकने देते हैं। कष्टों को ये लोग बड़े धैर्य से सहन करते हैं और उन्हें कभी अपने अंत:करण के निकट फटकने भी नहीं देते हैं।
कहने का अभिप्राय है कि कष्टों की छाया को ये अपनी चेतना से दूर ही रखते हैं। ये लक्ष्य को प्राप्त कर लेते हैं और एक दिन संसार में अपनी ‘विजय पताका’ फहराकर लोगों के लिए आदर्श बन जाते हैं। इसीलिए इस प्रकार के लोगों को भर्तृहरि ने ‘उत्तम पुरूष’ कहा है। जब हम ‘इदन्नमम्’ की परम्परा और इन उत्तम पुरूषों का या उनसे इतर लोगों का समन्वय बनाकर देखते हैं तो ज्ञात होता है कि ‘उत्तम पुरूष’ वही बना जो इस ‘इदन्नमम्’ की परम्परा का रहस्य और यथार्थ जान गया था। इस परम्परा का रहस्य है कि संसार में कार्य करते समय संसार की ओर मत देखो केवल अपने लक्ष्य को देखो। उस समय संसार के आवेगों, आवेशों और अन्य अवरोधों की ओर बिना देखे कहते जाओ कि ये मेरे नहीं हैं-‘इदन्नमम्’। ये तो किसी और के हैं, जो मुझे भटकाने के लिए कहीं से भेजे जा रहे हैं। अज्ञानी लोगों ने इन अवरोधों या बधाओं को ‘घायल छुड़वाना’ कहा है, उन्हें नहीं पता कि संसार के लोग आपकी सफलता में बाधा डालकर आपको पथभ्रष्ट कर देना चाहते हैं। इसलिए उनके षडय़ंत्रों के परिणामास्वरूप बहुत सी विघ्न बाधाएं सामने आ रही हैं तो तू इन्हें किसी की ‘घायल’ मत मान, अपितु अपने धैर्य की परीक्षा मान।
धीरे-धीरे इन से निकलने का प्रयास कर, एक दिन देखना ये ‘घायल’ तूने जिस प्रकार ‘इदन्नमम्’ ‘इदन्नमम्’ कहते-कहते छोड़ी थीं – ये तेरा कुछ नहीं बिगाड़ पायीं । उल्टे उसी को जा लगीं जो तेरी उन्नति या प्रगति में बाधा डालना चाहते थे।
भर्तृहरि जी ही कहते हैं कि-
रत्नैर्महाब्धेस्तुतुषर्न देवा: न
भेजिरे भीम विषेण भीतिम्।
सुधां विना न प्रययुर्विरामं न
निश्चितार्थाद्विश्मन्ति धीरा।।
(नी.श. 82)
यहां पर कवि देवताओं के पुरूषार्थी स्वभाव का वर्णन कर रहा है। उसका संकेत है कि देवता लोग समुद्रमंथन के समय अनमोल रत्न पाकर भी संतुष्ट नहीं हुए, उन्होंने समझ लिया था कि ये अनमोल रत्न अमृत के समक्ष सर्वथा तुच्छ हैं, इसलिए उन्होंने अपना समुद्रमंथन का अध्यवसाय तब तक जारी रखा जब तक कि उन्हें अमृत न मिल गया। इससे पूर्व भयंकर विष निकला, जो सभी देवताओं को मार डालने की क्षमता रखता था, परंतु हमारे देवता थे कि वे उससे भी नही हिचके, ना ही भयभीत हुए। कवि का मानना है कि जैसे देवता लोग अपनी अभीष्ट सिद्घि से पूर्व नही रूके वैसे ही धीर पुरूष भी बिना अभीष्ट सिद्घि के अपने कार्य को मध्य में नही छोड़ते हैं। अपनी अभीष्ट सिद्घि के लिए धीर पुरूषों को कैसी-कैसी विषम परिस्थितियों से निकलना पड़ता है ?
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत