डा0 कुलदीप चंद अग्निहोत्री
प्रणव मुखर्जी पिछले दिनों बंगला देश की यात्रा पर गये थे । इस प्रकार की यात्राओं का उद्देश्य बहुत हद तक दोनों देशों के बीच सम्बध बढ़ाना और आत्मीयता स्थापित करना ही होता है । इस लिये यात्रा से पहले ऐसे कारकों की पहचान भी कर ली जाती है जो दोनों देशों में साँझा हों और जिनके व्यवहार से दोनों में भावनात्मक स्तर पर सूत्र जोड़ें जा सकें । जो देश दूर होते हैं , उनमें साँझे सांस्कृतिक सम्बध ढूँढना थोड़ा मुश्किल हो जाता है और उस देश के साथ भौतिक रिश्ते यथा, व्यापार इत्यादि के आपसी हितों पर ही ज़ोर देना पड़ता है । लेकिन इस प्रकार के भौतिक रिश्ते परिस्थितियों के बदलाव से बदलते भी रहते हैं और दूसरे वे दोनों देशों की बैलेंस शीशों पर टिके होते हैं , लोगों के दिलों से जुड़े रिश्तों पर नहीं । इस लिये जब राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी की बंगला देश यात्रा की तैयारियाँ शुरु हुईं तो इन सब कारकों को ध्यान में रखकर योजना बनाई ही गई होगी । फिर बंगला देश तो भारत के लिये कोई दूसरा या तीसरा देश भी नहीं है । वह तो एक प्रकार से उसका सगा सम्बधी ही है । बंगला देश के साथ जब साँझे कारकों की बात आती है तो इस समय तो सबसे बड़ा साँझा कारक यही है कि राष्ट्रपति स्वयं भी बंगाली हैं । ढाका और कोलकाता से जो एक सांस्कृतिक व्यार बहती है प्रणव दा उसी के साँझे प्रतिनिधि हैं । दोनों को जोडऩे का सबसे सशक्त माध्यम है उनकी एक ही भाषा । बंगला देश भी वही भाषा बोलता है जो प्रणव बाबू बोलते हैं । जो भाषा क़ाज़ी नज़रिए इस्लाम बोलते थे , जो भाषा शेख मुजीबुर्रहमान बोलते थे , जो भाषा रवीन्द्र नाथ ठाकुर बोलते थे , उसी भाषा में भारत के राष्ट्रपति प्रणव मुखोपाध्याय भी बोलते हैं । यही भाषा भारत और बंगला देश के नान केन्द्र को जोडऩे का काम करती है । भाषा के प्रति बंगला देश कितना संवेदनशील है ,इसका अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इस देश का जन्म ही बंगला भाषा के कारण हुआ । पाकिस्तान के साथ मज़हब साँझा होने के बावजूद , यह देश इसी एक भाषा के कारण , उसके साथ ज़्यादा देर नहीं टिक पाया और अलग हो गया । इसलिये भाषा एक ऐसा कारक था जिसके माध्यम से प्रणव मुखर्जी बंगला देशीयों के ह्रदय के तारों को झंकृत कर सकते थे । लेकिन दुर्भाग्य उन्होंने ऐसा नहीं किया और एक स्वर्णिम अवसर खो दिया । बंगला देश ने अपने प्रणव दा को देश के द्वितीय सर्वोच्च अलंकरण बांगला देश मुक्तियुद्ध सम्मान से अलंकृत किया । सभी को आशा थी कि इस अवसर पर प्रणव मुखर्जी बंगला भाषा में ही बोलेंगे क्योंकि बंगला मुक्ति और बंगला भाषा एक दूसरे की पूरक बन गई हैं । लेकिन वे वहाँ बंगला में नहीं बल्कि अंग्रेज़ी भाषा में बोले । उस भाषा में जो न उनकी अपनी भाषा है और न ही सम्मान देने बाले बंगला देश की । ऐसे अवसरों पर प्रतीकों का बहुत महत्व होता है । प्रतीक रुप में तो अंग्रेज़ी उस साम्राज्य की भाषा थी जिसने भारत को ग़ुलाम ही नहीं बनाया बल्कि उसका सांस्कृतिक व आर्थिक शोषण भी किया । उन दिनों यह बंगला देश भी भारत का ही अंग था । उस आर्थिक शोषण का सबसे बड़ा शिकार भी बंगाल ही हुआ था , जिसमें पड़े अकाल से लाखों लोग मर गये थे ।यह मानने का तो कोई कारण नहीं कि बंगाल के मुखोपाध्याय लोग इस करुण कथा को जानते नहीं होंगे । फिर क्या कारण रहा होगा कि बंगलाभाषियों के बीच ही प्रणव दा अपने मन की बात बंगला भाषा में कहने का साहस नहीं जुटा पाये ? क्या बंगला भाषा सभ्य समाज में बोलने लायक नहीं है ? ऐसा तो सोचना ही मानसिक दिवालियापन होगा । बंगला भाषा की मधुरता और उसके साहित्य के तो विदेशी भी क़ायल हैं । बंगला भाषा की गीतांजलि ने तो भारत को प्रथम साहित्य नोबेल पुरस्कार दिलाया था । फिर आखऱि अपनों के बीच अपनी भाषा बोलने में भारत के राष्ट्रपति क्यों सज्जा अनुभव करने लगे ? लगता है अंग्रेज़ साम्राज्यवादियों ने जो भारत का आर्थिक शोषण किया , उसके निशान तो धीरे धीरे मिट गये , लेकिन उन्होंने जो सांस्कृतिक शोषण किया उसके निशान अभी तक मिटने का नाम नहीं ले रहे । भारत के राष्ट्रपति बंगला देश में इसके जीते जागते सबूत बन कर उभरे हैं ।
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