तनवीर जाफऱी
यदि हम इस्लाम के लगभग साढ़े चौदह सौ वर्षों के इतिहास को पलट कर देखें तो हमें यही मिलेगा कि इस्लाम धर्म को सबसे अधिक नुक़सान इस्लाम विरोधियों,तथाकथित काफिऱों , मुशरिकों या इस्लामी दुश्मन शक्तियों द्वारा नहीं बल्कि दुर्भाग्यवश उन्हीं लोगों द्वारा पहुंचाया गया है जो एक अल्लाह के नाम का कलमा पढ़ते थे, खुद को मुसलमान कहते थे तथा इस्लाम के अनुयायी दिखाई देते थे। चाहे वह पैग़म्बर हजऱत मोहम्मद के जीवन काल में उठने वाले अंतर्विरोध के स्वर हों, उसके बाद खलीफाओं या इमामत का दौर रहा हो या मैदान-ए-करबला की लड़ाई की बात हो या फिर उस दौर से लेकर अब तक इस्लाम के नाम पर अथवा स्वयं को मुसलमान कहकर लूटमार,आक्रमण, सत्ता विस्तार की कोशिश करने वाले या धर्म के नाम पर लोगों को वर अगला कर आतंकवाद की राह पर ले जाने जैसा अमानवीय प्रयास हो। हम देखेंगे कि लगभग 1450 वर्ष के इन सभी घटनाक्रमों में किसी भी गैर मुस्लिम समाज, संगठन अथवा गिरोह का कहीं भी कोई दख़ल नहीं था। ऐसे में यह सवाल उठना लाजि़मी है कि पैगम्बर हजऱत मोहम्मद के जीवन काल में उनके बाद के दौर-ए-खि़लाफत व दौर-ए-इमामत में जो इस्लाम धर्म दुनिया में इतनी तेज़ी से फैला कि दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी ताकत बन गया। आखिर आज उसी इस्लाम धर्म को आतंक के पर्याय के रूप में क्यों देखा जाने लगा है? इस्लाम में आतंकवाद के अतिरिक्त और भी अन्य तमाम बातें ऐसी हैं जिसे लेकर विवाद होते देखा जा रहा है। उदाहरण के तौर पर कभी महिलाओं की शिक्षा को लेकर, कभी संगीत को लेकर, कभी औरतों के परदे या हिजाब के विषय पर, कभी पहनावे या दाढ़ी को लेकर, कभी इस्लाम धर्म के ही मानने वाले लोगों के अलग-अलग विश्वास या अकीदे या परंपराओं को लेकर तो कभी जीवन की प्राथमिकताओं को निर्धारित करने जैसे तमाम विषयों को लेकर विवाद के स्वर उठते दिखाई देते हैं। आमतौर पर ऐसे विवाद उस समय सामने आते हैं जबकि कोई मौलवी या इस्लामी धर्मगुरु किसी ज़िम्मेदार ओहदे पर बैठते हुए कोई विवादास्पद बयान दे डालता है। सूचना एवं संचार के आधुनिक युग में अब किसी भी तरह का विवादपूर्ण बयान चाहे वह किसी भी देश के मौलवी-मुल्ला या किसी अन्य जि़म्मेदार व्यक्ति द्वारा दिया गया होता है वह कुछ ही पलों में पूरे विश्व में सूचना माध्यमों के साथ-साथ सोशल मीडिया के द्वारा भी तत्काल प्रसारित हो जाता है। और सोशल नेटवर्किंग में ऐसे विवादित व हास्यास्पद बयानों को लेकर न सिर्फ चर्चा शुरु हो जाती है बल्कि बयान देने वाले व उसके धर्म व विश्वास पर उंगली भी उठाई जाने लगती है। और ऐसे बयानों की खिल्लियां उड़ाई जाने लगती हैं। कुछ समय पूर्व एक इसी प्रकार का विवादपूर्ण वक्तव्य मिस्र के एक इस्लामी धर्मगुरु द्वारा टेलीविजऩ पर प्रसारित किया गया। हो सकता है ऐसे विवादित बयान को देकर मौलवी ने यही समझा हो कि वह ऐसा वक्तव्य इस्लाम व मुसलमानों के हित में दे रहा है परंतु दरअसल उसका यह प्रवचन इस्लाम के लिए अहितकारी है। मिस्र के प्रसिद्ध मौलवी महमूद-अल-मसरी,मिस्त्र के एक टेलीविजऩ चैनल पर यह फरमा रहे थे कि इस्लाम में झूठ बोलना गुनाह है इसके बावजूद कौन-कौन सी परिस्थितियां ऐसी हो सकती हैं जिनमें एक मुसलमान झूठ भी बोल सकता है। अपनी इस बात को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने एक कहानी का सहारा लिया। उन्होंने बताया कि एक मुसलमान के घर के बगल में एक यहूदी रहा करता था। वह यहूदी बहुत ही नेक,अच्छे स्वभाव का ईमानदार तथा गुणवान व्यक्ति था। मुसलमान पड़ोसी ने सोचा कि क्यों न इस यहूदी को इस्लाम स्वीकार करने की दावत दी जाए। एक दिन उसने यहूदी को अपना प्रस्ताव सुनाते हुए कहा कि आपका इस्लाम धर्म के बारे में क्या विचार है? और आप इस्लाम क्यों नहीं स्वीकार कर लेते? इस पर यहूदी ने जवाब दिया कि नि:संदेह मेरी नजऱ में इस्लाम में सारी विशेषताएं हैं। मुझे हय धर्म बहुत अच्छा भी लगता है। इस्लाम स्वीकार करने योग्य भी है। परंतु मेरे साथ समस्या यह है कि मैं रोज़ाना शराब पीता हूं, शराब पिए बिना मैं एक दिन भी नहीं रह सकता। जबकि एक मुसलमान के लिए शराब पीना हराम और गैर इस्लामी बताया गया है। यही वजह है कि मैं इस्लाम धर्म स्वीकार नहीं कर सकता। यहूदी की बात सुनकर उस मुसलमान को एक युक्ति सूझी। उसने यहूदी से कहा कि कोई बात नहीं आप इस्लाम स्वीकार कर लें और उसके बाद आप नियमित रूप से शराब भी पी लिया करिए। उसकी यह बात सुनकर यहूदी चौंका और पूछा कि क्या ऐसा संभव है कि मैं इस्लाम स्वीकार करने के बाद भी शराब पी सकता हूं? मुसलमान ने कहा हां-हां क्यों नहीं। ऐसा मुमकिन है। इस पर यहूदी खुश हुआ। उसने उस मुसलमान के सामने अल्लाह का कलमा पढ़ा। कलमा पढऩे के बाद यहूदी ने मुसलमान से पूछा कि क्या अब मैं मुसलमान हो गया? मुसलमान बोला बेशक अब आप मुसलमान बन चुके हैं। और आपने कलमा पढकऱ इस्लाम क़ुबूल कर लिया है। उसके बाद उस यहूदी ने शराब पीने की इच्छा जताई तब वह मुसलमान बोला कि चंूकि अब आप मुसलमान हैं इसलिए कोई भी गैर इस्लामी काम नहीं कर सकते। शराब भी नहीं पी सकते। यदि आपने शराब पी या कोई भी गैर इस्लामी हरकत की तो आप इस्लाम के गुनहगार होंगे और आपको इस्लामी सज़ा के अनुसार जान से भी मारा जा सकता है। यह बात सुनकर वह यहूदी भयभीत हो गया और उसने शराब पीना छोड़ दिया। मिस्त्र के मौलवी महमूद-अल-मसरी ने यह कथा टेलीविजऩ पर सुनाकर यह बताने की कोशिश की कि किन-किन परिस्थितियों मं एक मुसलमान झूठ बोल सकता है। परंतु मौलवी के उपरोक्त वक्तव्य के सामने आने के बाद उनकी घोर निंदा हुई, उनका मज़ाक उड़ाया गया, साथ-साथ इस बात पर भी बहस छिड़ गई कि क्या झूठ बोलकर , धोखा देकर या दहशत फैलाकर इस्लाम धर्म का प्रसार करना उचित व न्यायसंगत है? इसी प्रकार और भी कई तथाकथित मौलवियों के तमाम विवादित बयान समय-समय पर सुनने को मिलते रहते हैं जिन्हें सुनकर यही लगता है कि इस्लाम के विषय में समय-समय पर की जाने वाली गलत व्याख्या तथा उनमें ऐसे नीम-हकीम मौलवियों का दखल निश्चित रूप से 1450 वर्षों से इस्लाम को बदनाम करता आ रहा है। अब आईए एक और भारतीय मौलवी कल्बे सादिक की नजऱों से इस्लाम की व्याख्या सुनें और इन दो अलग-अलग मौलवियों की व्याख्याओं से इस्लाम को समझने की कोशिश करें। इस्लाम में इंसान के जीवन को कितना महत्व दिया गया है इस विषय पर मौलवी कल्बे सादिक़ फरमाते हैं कि यदि कोई मुस्लिम अपने घर से नहा-धो कर पवित्र होकर यहां तक कि नमाज़ से पहले किया जाने वाला वज़ू कर और रोज़ा रखकर हज करने की गरज़ से अपने घर से बाहर निकलता है वह मुसलमान अपने पास हज यात्रा का पासपोर्ट भी अपनी जेब में रखे होता है ऐसी स्थिति में यदि कोई व्यक्ति जोकि काफिर,हिंदू या गैर मुस्लिम है वह किसी नदी में डूब रहा है और उसके मुंह से डूबते वक्त यह आवाज़ भी निकल रही हो कि हे राम मुझे बचाओ। इस अवस्था में उस मुसलमान व्यक्ति पर पहले यह वाजिब है कि वह उस डूबते हुए गैर मुस्लिम व्यक्ति की जान बचाने की कोशिश करे।
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