अजित पिल्लै
व्यंग्यकार
मेडिकल साइंस ने भले ही कितनी तरक्की कर ली हो उसके पास उन रहस्यमयी और शिथिल कर देने वाले मर्ज़ का इलाज नहीं है, जिसने भारत की सियासी पार्टियों को अपनी गिरफ्त में ले लिया है.
राजधानी दिल्ली में अगर कोई ऐसा सुपर स्पेशलिटी अस्पताल होता जहां क़यास के आधार पर मर्ज की जांच-परख हो पाती तो वहां के मरीज़ों की फिहरिस्त कुछ इस तरह की होती
कांग्रेस
132 साल पुरानी पार्टी की बीमारी कुछ इस तेज़ी से बढ़ रही है कि उसकी स्थिति को रडरलेस ड्रिफ्ट सिंड्रोम कह सकते हैं, यानी, एक ऐसी नाव जो बिना पतवार के बह रही हो.
ये बीमारी की वो किस्म है जिसमें कमांड और कंट्रोल, दोनों ताक़तें कमज़ोर हो जाती हैं. नतीजा लुंज-पुंज होता पार्टी संगठन.
वैसे कांग्रेस के हालात बदल भी सकते हैं, गाड़ी पटरी पर फिर से आ सकती है. लेकिन इलाज ‘हाईकमान के स्तर’ पर ही होना चाहिए और उसके बाद भी संगठन को तीमारदारी की जरूरत बनी रहेगी.
कांग्रेस जिस बीमारी से जूझ रही है उसके मरीजों के सामने अक्सर पहचान का संकट भी खड़ा हो जाता है. आधार कार्ड या पहचान बताने वाला कोई दूसरा पुर्जा इसका इलाज नहीं हो सकता.
आराम और विश्राम, मक्खन लगाने का कोई आयुर्वेदिक या गैर आयुर्वेदिक तरीका, आरोप-प्रत्यारोप, यकीन दिलाने की कोशिशों से मदद नहीं मिलने वाली.
और न ही दूसरों को प्रभावित करने के काम आने वालीं डेल कार्नेगी जैसे लेखकों की किताबें. और इस मामले में तो सही सिग्नल देना सीखने के लिए किसी ट्रैफिक पुलिस के अंदर की गई इंटर्नशिप भी कारगर नहीं होने वाली है.
किसी और चीज से कहीं ज्यादा इस मरीज को पॉलिटिकल प्लेटलेट्स वाला खून चढ़ाने की जरूरत है ताकि मोदी के डर का भूत भाग सके और इरादों का संचार हो सके.
दरअसल कांग्रेस को भरोसा बढ़ाने के लिए बूस्टर डोज़ की सख्त जरूरत है जिससे पार्टी सियासी तौर पर समझदार लगे.
आगे की लड़ाइयों में अस्तित्व का संघर्ष होना है और इससे जूझने के लिए पार्टी को अपने चाणक्यों के साथ अक्सर मिल-बैठकर सोच विचार करना होगा. शायद इससे मदद मिले.
समाजवादी पार्टी
बायपोलर डिसऑर्डर यानी पल में माशा, पल में तोला की तरह बदलने वाला बाप-बेटे का झगड़ा समाजवादी पार्टी की सबसे बड़ी बीमारी है.
इससे पहले कि ये नासूर बन कर लाइलाज हो जाए, पार्टी को इसे सुलझाना होगा.
परिवार के लोग मिल-बैठकर इसे सुलझा लें, यही इलाज है. परिवार के लोगों का ख्याल और मिज़ाज इस कदर एक दूसरे से जुदा है कि उनके एक हो जाने से चीजें बेहतर होने वाली नहीं हैं.
आपराधिक तत्वों के खिलाफ हाल ही में विकसित किया गया टीका मददगार हो सकता है. हालांकि अभी तक इसका ट्रायल भी नहीं हुआ है.
अलग-अलग सुरों में बोलने की बीमारी का ऑपरेशन वो इलाज है जिसे बिना किसी शक सुबहे के अपनाया जा सकता है.
कांग्रेस को जो पॉलिटिकल प्लेटलेट्स चढ़ाने का परचा लिखा गया था, वो सपा को भी मदद कर सकता है.
मरीज को जातिवादी राजनीति से ऊपर उठने की जरूरत है. उन्हें ये सोचना चाहिए कि बंटे हुए समाज को वे सियासी तौर पर कैसे जोड़ेंगे.
इत्तेफाक से ये एक ऐसी बीमारी है जो मायावती की बहुजन समाज पार्टी को भी है. मायावती से दोस्ती भरोसा बहाल करने का बड़ा कदम हो सकता है.
नर्सरी के बच्चों की तरह ये कविता पाठ भी मदद कर सकता है, “पार्टी छोटी या बड़ी… सब को लोकतंत्र की देवी ने बनाया है…”
आम आदमी पार्टी
पंजाब और गोवा में निराशाजनक प्रदर्शन के बाद अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी को अजीब सा रोग लग गया है.
ये एटिसिफोबिया या नाकामी से डर की बीमारी है. इसके लक्षण हैं, जबरदस्त बेचैनी और तकलीफ.
इसके मरीज को अक्सर ये लगता है कि हर कोई उसके खिलाफ साजिश रच रहा है और खतरा किसी भी लम्हा उसके सामने बिन बुलाये मेहमान की तरह आ सकता है.
दिल्ली नगर निगम चुनावों से ठीक पहले इस खबर से कि बीजेपी आम आदमी पार्टी को कांग्रेस से ज्यादा भ्रष्ट समझती है, पार्टी का रोग बढ़ा दिया है.
नाकामी के डर से जूझ रहे मरीजों को अक्सर उस हालात का सामना करना पड़ता है जिसे ‘मति भ्रम’ कहते हैं और सदमे की सूरत में पेशेंट को ये समझ में नहीं आता है कि क्या करें, क्या न करें.
मरीज को ये लगता कि उसके फायदा से दुश्मन (भाजपा) का नफा हो जाएगा.
ये लक्षण तब और स्पष्ट हो गए जब आम आदमी पार्टी कांग्रेस और भगवा ताकतों के खिलाफ चुनावी मैदान में उतर गई और फिर इस ख्याल से सहम गई कि उसने बीजेपी को जीत थाली में सजाकर दे दी है.
समझा-बुझाकर किसी को रास्ते पर लाना वो नुस्खा है जो ऐसे मरीजों को बताया जाता है जो समझने के लिए तैयार हों और जो खुद डॉक्टर बनकर दूसरों का इलाज करने की कोशिश नहीं करता हो.
दोस्त से दुश्मन बने योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण जैसे लोगों से फिर से रिश्ता जोड़कर भरोसा और साख दोनों बहाल किया जा सकता है.
शिव सेना, बीजेडी, अन्नाद्रमुक
ये सभी पार्टियां एक गंभीर रोग का शिकार हैं. इसे पहचान का संकट कहते हैं.
सत्ता विरोधी रुझान और बीजेपी नाम की ग्रंथि से पीड़ित इन पार्टियों को इलाज की दरकार है.
पुराने दोस्त बीजेपी से ठुकराये जाने की जिल्लत से शिवसेना को उबरने की जरूरत है.
ऐसे मरीजों को इलाज के तौर पर ये सलाह दी जाती है कि वे खारिज किए जाने को ज्यादा दिल पर न लें.
ओडिशा में नवीन पटनायक को सत्ता विरोधी लहर और भगवा ताकतों द्वारा निगल लिए जाने का डर सता रहा है.
जयललिता के निधन के बाद अन्नाद्रमुक भी कांग्रेस की तरह ही रडरलेस ड्रिफ्ट सिंड्रोम से पीड़ित है.
भारतीय जनता पार्टी
ऐसा नहीं है कि सारी बीमारियां केवल विपक्षी पार्टियों को ही हैं. सत्तारूढ़ बीजेपी भी बीमार दिखती है. वह फिलहाल ह्यूब्रिस सिंड्रोम का शिकार है. यह एक तरह का व्यक्तित्व दोष है जिसमें सत्ता में बैठे व्यक्ति को ये लगता है कि उसे जबरदस्त समर्थन हासिल है और उसे कोई भी कुछ भी करने से रोक नहीं सकता है.
इसकी वजह से बीजेपी को ये लगा कि उसके पास लोकप्रिय जनादेश का लाइसेंस है. वो चाहे तो हिंदुत्व के एजेंडे को आगे बढ़ाने से लेकर अर्थव्यवस्था को मनमाने तरीके से चला सकती है.
लगातार चुनावी जीत हासिल करने के बाद ह्यूब्रिस सिंड्रोम के मरीजों में तानाशाही प्रवृतियां पल्लिवत हो जाती हैं. और इसके बाद वो बेतुक फैसले जल्दबाजी में लेने लगता है और आलोचना या मशविरों को लेकर उसकी नाफरमानी बढ़ जाती है.
ह्यूब्रिस सिंड्रोम का क्या कोई इलाज है? साल 2009 में राजनेता रह चुके मनोवैज्ञानिक डेविड ओवेन ने जोनाथन डेविडसन के साथ ह्यूब्रिस सिंड्रोम पर एक पेपर लिखा.
जोनाथन डेविडसन नॉर्थ कैरोलिना के ड्यूक यूनिवर्सिटी मेडिकल सेंटर के मनोवैज्ञानिक हैं. रिसर्च पेपर में डेविड ओवन ने उम्मीद जताई कि आने वाले कल में मेडिसिन से इसके इलाज का जरिया खोजा जा सकेगा. लेकिन उन्होंने ह्यूब्रिस सिंड्रोम के खतरों को लेकर भी आगाह किया.
उन्होंने कहा, “क्योंकि सत्ता के नशे में चूर एक राजनेता कई लोगों की जिंदगी पर बुरा असर डाल सकता है. इसलिए ऐसे विचारों का माहौल बनाने की जरूरत है जिसमें नेताओं को अपनी कारगुजारियों को लेकर ज्यादा जिम्मेदार होना चाहिए.”
निराशा के भंवर में फंसे विपक्ष को मजबूत करके और सवाल पूछने वाली मीडिया को बढ़ावा देना ही इस बीमारी का एकमात्र इलाज है. मीडिया को साइकोफैंट सिंड्रोम यानी खुशामद करने वाली आदत से बचना होगा.
लेकिन सवाल ये उठता है कि क्या सर्वशक्तिमान मरीज ऐसे इलाजों को आजमाने की इजाजत देगा. हाल के दिनों में राजनेता खुद को मसीहा समझने लगे हैं कि उन्होंने सबको बचाने का ठेका ले रखा है. मुमकिन है कि जनता से ठुकराये जाने पर ही इस तरह के नेता और पार्टी बच जाए.
(वामपंथी दलों को कुछ साल पहले इंटेसिव केयर यूनिट में देखा गया था. उन्हें लिस्ट में शामिल नहीं किया गया है क्योंकि वे अस्पताल में इलाज कराये जाने पर यकीन नहीं करते हैं. उन्हें क्रांतिकारी इलाज चाहिए.)