तैत्तिरीयोपनिषद में महर्षि ने स्नातकों के दीक्षांत समारोह के अवसर पर बतायी जाने वाली कुछ ऐसी बातों का उल्लेख किया है जिनसे हमारा जीवन व्यवहार सुधर सकता है और साथ-साथ ही संसार में प्रेमपथ का विस्तार हो सकता है। वह स्नातक से कहते हैं :-

श्रद्घया देयम्। अश्रद्वया देयम्। श्रियादेयम।

हिृया देयम्। भियादेयम्। संविदा देयम्। (तैत्तिरी. 1/11)

मनुष्य को श्रद्घापूर्वक देना चाहिए यदि श्रद्घा न हो तब भी देना चाहिए, प्रसन्नता से देना चाहिए। लज्जा से देना चाहिए, भय से देना चाहिए और प्रेम से देना चाहिए। जहां धर्मार्थ का कार्य हो रहा है, लोक कल्याण का कार्य हो रहा है-वहां श्रद्घा से कुछ न कुछ देना ही चाहिए। देते समय किसी से अपनी तुलना मत करो, आपको जो देना है-उसे दे दो। ऐसे स्थानों पर यदि श्रद्घा कम भी हो तो भी दे देना चाहिए। क्योंकि ऐसे स्थानों पर देने से लाभ ही लाभ है।

प्रसन्नता से तो सभी देते हैं, अर्थात जब आप प्रसन्न हों, घर में कोई प्रसन्नता की बात हुई हो, पुत्र पौत्रादि का जन्म हुआ हो या कोई विवाहादि का शुभ संस्कार हुआ हो तो तब तो सभी देते हैं-पर कभी-कभी ऐसे अवसर भी आते हैं कि जब आप लोक लज्जा से देते हैं, और जब आपको लोकलज्जा के कारण दे भी देना चाहिए। आप देना तो नहीं चाहते पर आपके मित्र साथी बंधु बांधव उसे दे रहे हैं-तो आप पर लोकलज्जा का एक मनोवैज्ञानिक दबाव बना कि मुझे भी कुछ देना चाहिए। तब उस मनोवैज्ञानिक दबाव को अपने लिए शुभ संकेत मानकर दे दो।

बाद में पश्चात्ताप न करो कि मैंने कुछ देकर भूल कर दी। दे दिया तो उचित कर दिया-इसी में आनंद मनाओ। इसी को उपनिषत्कार ऋषि हमारे जीवन व्यवहार की नींव बनाकर हमें स्नातक दीक्षांत के समय समझाता है और बताता है कि चाहे जिस भाव से देना हो, पर दे दो और फिर देकर पश्चात्ताप मत करो। हां, इतना ध्यान करो कि दिया हुआ कहीं न कहीं अच्छे स्थान पर व्यय होना चाहिए। इसी भाव से देने वाले को विदुरजी कहते हैं कि दरिद्र होते हुए भी दान देने वाला स्वर्ग में रहता है।

धन की तीन गतियां

नीति शतक में भर्तृहरि जी कहते हैं कि दान, भोग और नाश धन की ये तीन गति होती हैं। जो न देता है, और न खाता है उसके धन की तीसरी गति होती है अर्थात उसके धन का नाश होता है। संसार में ऐसा ही देखने में आता है कि जो व्यक्ति अपने धन को कंजूसी से जोड़ता रहा और अपने ऊपर भी कभी व्यय नही कर पाया उसके धन का नाश हो जाता है। कहा गया है कि दान से ही सुख की प्राप्ति होती है और दान से ही सुख का भोग किया जाता है। दान के कारण ही मनुष्य इस लोक में तथा उस लोक में पूजनीय होता है। पूजनीय होने का अर्थ है कि वह नि:स्वार्थ भाव से सारे कार्यों का संपादन करता रहा, उसका स्वार्थभाव मिट गया, जिससे वह संसार में प्रेम पथ के विस्तार में सहायक बना। फलस्वरूप लोग उसका सम्मान करने लगे। दान से वास्तव में सब प्राणी वश में हो जाते हैं वैर समाप्त हो जाते हैं, पराये लोग भी अपने लगने लगते हैं। दान ही सब प्रकार के व्यसनों को नष्ट करता है अर्थात दानी व्यक्ति व्यसनों में नही फंसता।

इस अध्याय का शीर्षक भी यही स्पष्ट करता है कि जब स्वार्थ भाव मिट जाता है- तभी संसार में प्रेमपथ विस्तार पाता है। भारतीय संस्कृति का मूल है यह चिंतन। इसका विस्तार करना हर भारतीय का पावन कर्त्तव्य है।

जैसी दृष्टि वैसी सृष्टि

दृष्टि और सृष्टि का अन्योन्याश्रित संबंध है। कुछ लोग संसार को असार कहते हैं, तो उनका अपना दृष्टिकोण है-अपनी दृष्टि है। इसी प्रकार कुछ लोग इसी संसार को संग-संग रहते हुए सारयुक्त मानते हैं-तो उनकी भी अपनी सोच है, अपनी दृष्टि है और अपना दृष्टिकोण है। परंतु जो लोग संसार के संग-संग रहकर इसे सारयुक्त मानते हैं उनके लिए यह संसार मृत्युलोक न होकर मृत्यु के भाव बंधन से मुक्ति दिलाने का एक माध्यम बन जाता है। जिनकी मुक्ति हो गयी, अथवा जिन्हें मोक्ष पद प्राप्त हो गया उनके लिए संसार के सारे सुख और ऐश्वर्य छोटे पड़ जाते हैं। आनंद की प्राप्ति कर परमानंद में विलीन हो जाना या उसके साथ एकाकार हो जाना-एकरस हो जाना मानव जीवन का परमउद्देश्य है। स्वार्थभाव मिटकर जब जीवन में प्रेम पथ विस्तार पा जाता है तब जीवन की इस उपलब्धि को हम प्राप्त कर पाते हैं। गुरूदेव रविन्द्रनाथ टैगोर संसार को छोड़ रहे थे तो उनके एक परमशिष्य ने कह दिया कि आपको तो मोक्ष मिल रहा है। तब उन्होंने कहा था कि मैं मोक्ष को प्राप्त करना नहीं चाहूंगा क्योंकि मुझे यह संसार ही प्रेमपूर्ण सौंदर्य से सना हुआ और भीगा हुआ दिखायी देता है। यह सर्वत्र सौंदर्य है, एक से एक सुंदर मूत्र्ति मानव के रूप में मुझे ईश्वरमयी दिखायी देती है, हर चेहरे के पीछे से ईश्वर का तेज और सौंदर्य चमकता हुआ दिखता है। इसलिए मैं पुन: पुन: इसी सौंदर्यमयी संसार में आना चाहूंगा।

गुरूदेव रविन्द्रनाथ टैगोर के लिए यह संसार सौंदर्यमयी हो गयी-क्योंकि उनकी दृष्टि में सौंदर्य था, उनकी सोच में सौंदर्य था और उनकी कृति में सौंदर्य था। इसी प्रकार जो लोग संसार को मृत्युलोक मानते हैं-वह भी गलती करते हैं। कुछ लोगों के लिए यह संसार मृत्युलोक हो सकता है, किंंतु कुछ लोगों के लिए यही संसार मृत्यु से छुड़ाकर मोक्ष पद दिलाने वाला हो सकता है। देवता लोग जिस मोक्ष पद की अभिलाषा करते हैं-उनकी यह अभिलाषा इसी संसार में आकर पूर्ण हो सकती है। इसलिए यह संसार ऐसे लोगों के लिए भी ‘सत्यम् शिवम् सुंदरम्’ का जीवन्त उदाहरण बन जाता है-जो संसार में रहकर मोक्ष पद के अभिलाषी बने हुए हैं। इन सब बातों से स्पष्ट होता है कि जैसी हमारी दृष्टि होती है -यह संसार भी हमारे लिए वैसा ही बन जाता है।

जब संसार के लोगों का स्वार्थभाव मिट जाता है, मैं और मेरे की स्वार्थपूर्ण सोच समाप्त हो जाती है-तब संसार में लोगों को सर्वत्र आनंद ही आनंद बिखरा हुआ दिखाई देने लगता है। जहां स्वार्थ होता है-वहीं क्रोध होता है, वहीं घृणा होती है, वहीं द्वेष होता है और वहीं क्लेश होता है। जहां पर ये सारी चीजें होती हैं वहां न तो शांति होती है और ना ही प्रेमपथ का विस्तार हो पाता है। अत: हमारे लिए उचित है कि हम संसार में रहकर उन मानवीय मूल्यों की रक्षा करें जिनके कारण यह संसार सुखों का सागर और आनंद का आगार बन सकता है। जो लोग स्वार्थपूर्ण मानसिकता के चलते संसार को दुख और दुर्गुणों से भरने का प्रयास करते रहते हैं वे संसार में शांति व्यवस्था के शत्रु होते हैं। उनके कारण सामाजिक परिवेश दूषित होता है और लोगों में एक दूसरे के प्रति घृणा के भाव विकसित होते हैं।

तुलसीदास जी कहते हैं-

जाकी रही भावना जैसी।

प्रभु मूरत देखी तिन तैसी।।

तुलसीदास जी की यह उक्ति पूर्णत: सत्य है। हमें संसार को स्वर्ग बनाने की चाह तो है, परंतु हम संसार को नरक बनाने की कार्यों में लगे रहते हैं। हम संसार में रहकर जितना वैचारिक प्रदूषण फैलाते हैं या अपान वायु आदि के माध्यम से दूसरे प्रकार का प्रदूषण फैलाते हैं-उसे दूर करने का हम प्रयास नहीं करतेे। जबकि एक जिम्मेदार मानव होने के नाते हमारा यह पुनीत दायित्व होता है कि हम स्वार्थपूर्ण प्रदूषण को दूर कर संसार में प्रेमपथ को विस्तार देने का सदैव प्रयास करते रहें। हमारी ऐसी भावना से ही यह संसार स्वर्ग बनेगा।

डॉ राकेश कुमार आर्य , संपादक : उगता भारत

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