देवेन्द्र सिंह आर्य
पाकिस्तान के प्रधानमंत्री राजा परवेज अशरफ अपनी निजी यात्रा पर अजमेर शरीफ में जियारत के लिए आए, जिनका देश में भारी विरोध हुआ और अजमेर शरीफ के दीवान ने भी पाकिस्तानी प्रधानमंत्री की यात्रा का विरोध करते हुए स्वयं को उनकी यात्रा से दूर ही रखा।
लांस नायक हेमराज सिंह व उनके साथी के बलिदान के बाद पाकिस्तान के किसी उच्च राजनीतिज्ञ की यह पहली भारत यात्रा थी। भारत सरकार ने इस समय भी पाक प्रधानमंत्री की यात्रा पर अपनी ओर से गर्मजोशी दिखाते हुए अपने बलिदानी सैनिकों के बलिदान के प्रति एहसान फरामोशी का प्रदर्शन किया और देश का विदेश मंत्री दुश्मन पड़ोसी के प्रधानमंत्री की मेहमान नवाजी और अगवानी के लिए अजमेर पहुंच गया। देश की आत्मा ने देश के विदेश मंत्री के इस कार्य पर उसे धिक्कारा यह बात अलग है कि धर्महीन और दिशाहीन लोगों को ऐसी लताड़ और धिक्कार सुनाई नही दी।
स्वागत के लिए उतावले और पलक पावड़े बिछाए विदेशमंत्री खुर्शीद आलम से देश को उम्मीद थी कि वो सीमा पर सैनिकों के बलिदान की घटना पर पाक प्रधानमंत्री को जरूर ही कुछ न कुछ सुनाएंगे और देश की भावनाओं से पड़ोसी को अवगत कराएंगे। लेकिन खुर्शीद आलम ने पड़ोसी दुश्मन का हाथ इस्तकबाल की मुद्रा में यूं जा पकड़ा जैसे दोस्त से मिलने की लंबी मुराद पूरी हो गयी हो। प्रैस को फोटो दिये तो खुर्शीद साहब की भावभंगिमा कुछ यूं लग रही थी जैसे मानो गा रहे हों कि… कब के बिछुड़े, कब के बिछड़़े….आज कहां आके मिले। …स्वागत के आनंद और मेहमान नबाजी के जोश से भीगे खुर्शीद आलम बाहर आए तो पत्रकारों ने देश की ओर से पूछा कि देश के बहादुरों के बलिदान पर क्या कहकर आए हो? तब जनाब ने फरमाया कि यह कोई ऐसा अवसर नही था और न ही मुझे ऐसा कोई अधिकार इस समय था कि मैं उन सैनिकों की हत्या के विषय पर चर्चा करूं।
जनाब खुर्शीद आलम का यह कथन कोई गलत नही है, उन जैसे नेताओं से यही उम्मीद की जाती है। क्योंकि ये लोग ‘जुगाड़’ से बने नेता हैं, देश के भविष्य के सपनों को बुनने वाली पतवार पर चढ़कर आगे बढऩे वाली नाव के नाविक नही हैं। इसलिए इन्हें नही पता कि तुम्हारे अधिकार क्या हैं और तुम्हारी जिम्मेदारियां क्या हैं? इन्हें गुलाब का फूल लगाकर या अच्छी अचकन पहनकर उस पर इत्र छिड़कवाकर फोटो खिंचाने का शौक है और उसे अगले दिन ये अपने पसंदीदा समाचार पत्रों में देखकर खुश हो जाते हैं। वर्तमान में गांधीगीरी की गाड़ी कांग्रेस के नेताओं की इसी सस्ती नेतागीरी के जंगल में पेंचर हुई पड़ी है। सारी सियासत का बदमाशों और छोटे कद और बड़े पद के लोगों ने अपहरण कर लिया है। इसीलिए तो सवा अरब की आबादी के देश का विदेशमंत्री अपने बहादुर सैनिकों के बलिदान का जिक्र तक पड़ोसी दुश्मन से नही कर पाता है, और कह देता है कि उससे मुझे इस विषय पर बात करने का कोई हक नही था। सारी सियासत और हुकूमत ऐसा पूछने का हक नही था तो फिर किसको है? और यदि अधिकार था तो फिर क्या पड़ोसी के लिए केवल बावर्ची बनने गये थे? देश के उच्च संस्थानों का पतन बहुत हो लिया, अब बस करो।
बात पूरी सियासत की है तो यशवंत सिन्हा जो कि पूर्व विदेश मंत्री रहे हैं, ने भी अपना स्वरूप दिखा दिया है। उनका कहना है कि शिष्टाचार निभाना ठीक है लेकिन विदेशमंत्री का उनके लिए जयपुर जाना उचित नही था। उनका स्वागत सत्कार राजस्थान सरकार भी कर सकती थी। यशवंत भी भूल कर रहे हैं, उन्हें पता होना चाहिए कि राजा परवेज अशरफ देश के सरकारी मेहमान नही थे, उन्हें सरकारी यात्रा पर न तो बुलाया गया था और ना ही पाक से भेजा गया था। यह उनकी निजी यात्रा थी जिसके लिए उनका उच्चायोग भारतीय अधिकारियों के सहयोग से आवश्यक तैयारी करता और बात खत्म हो जाती। ऐसी ही टिप्पणी जदयू नेता की रही है और उन्होंने भी जियारत के समय पाक प्रधानमंत्री की यात्रा का विरोध वहां के दीवान द्वारा कराने को परंपरा के विरूद्घ करार दिया है।
किसी भी नेता ने ये नही कहा है कि पाक पीएम को इस समय यदि भारत आना ही था तो वह अपनी यात्रा को अपने तक सीमित रखते और भारत के विदेश मंत्री को यदि फिर भी उनसे मिलना ही था तो भारत के सम्मान पर आयी चोट से उबलते देश की भावनाओं को स्पष्ट शब्दों में उन्हें बताना चाहिए था। बारूद के व्यापारी बने पड़ोसी को ज्ञात होना ही चाहिए कि यदि उसने आग लगाने की मूर्खता की तो उसकी दुकान भी जलेगी और वह खुद भी जलेगा। लेकिन इस बात को कहने के लिए हौंसले वाले और जमीन से जुड़े हुए नेताओं की जरूरत है। यह देश का दुर्भाग्य है कि नेताओं के जूते चप्पल सीधे करने वाले लोगों की इस समय देश का नेतृत्व करना पड़ रहा है। चाटुकारिता और चापलूसी की राजनीति में पले बढ़े नेताओं को ये पता नही होता कि उसके अधिकार क्या हैं और देश के सम्मान का मुद्दा उठाने का कौन सा समय सही होता है और कौन सा नही।
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