18 मार्च, अर्थात ‘उगता भारत’ परिवार की पूज्यनीया माताश्री श्रीमती सत्यवती आर्या जी की पुण्यतिथि, अर्थात बीते हुए कल की बातों को कुरेदने का दिन, अर्थात मां के साथ बीते हुए पलों को याद करने का दिन है। जब 18 मार्च 2006 को माताश्री गयीं थीं तो वह दिन जीवन भर के लिए गमगीन यादों को हृदय में संजोने वाला दिन बनकर रह गया था।
मां के पार्थिव शरीर के निकट बैठा हुआ गुमसुम सा परिवार और उसी के साथ मैं स्वयं कभी अतीत में खो जाते तो कभी आसीन वर्तमान को देखकर फफक पड़ते। यादों के आईने में और भविष्य के सामने खड़े प्रश्न चिन्ह के साथ वर्तमान के सत्य को देखकर मेरा चिंतन मुझसे कह रहा था….यद्यपि मां एक छोटा सा शब्द है। परंतु यह शब्द सारी सृष्टि का मानो सार है। मां सृष्टि का प्रथम शब्द है जो कि हृदय की गहराईयों की अनुभूति का प्रस्फुटन है। इस शब्द में सम्मोहन है, प्रेम है, करूणा है और है ममता! मां जगत की आधार है इसीलिए वह जगज्जननी है। पशु जगत में भी बहुत से प्राणी हैं कि जो मां शब्द का उच्चारण करते प्रतीत होते हैं। बछड़े की मां… तो सभी समझते हैं। प्राणि विज्ञान के ज्ञाताओं का कहना है कि और भी ऐसे बहुत से प्राणी हैं जो कि मां को इसी रूप में पुकारते हैं। मनुष्य और पशु के बीच अभिव्यक्ति का अंतर हो सकता है, परंतु भाव का अंतर नही है। जब कोई बच्चा इस परमात्मा की सृष्टि में पदार्पण करता है तो वह इस संसार को जिज्ञासु भाव से मौन रहकर बिना शब्दोच्चारण के ही प्रश्न पूछता है-ये सब क्या है? मैं कौन हूं? कहां से आया हूं? कहां आ गया हूं? तब वह मां ही तो है कि जो उसे अपने प्यार दुलार एवं स्नेह से पुचकारती है। चूमती है। इस दुलार से, स्नेह से, पुचकारने से और चूमने से बच्चा अपने प्रश्नों को भूल जाता है। उसे मां के प्यार का अहसास जो हो जाता है। मां उसको ज्ञान कराती है। इसीलिए प्रथम गुरू मां को कहा गया है। गुरू का अर्थ है-
गु-अंधकार, रू-हटाने वाला अर्थात अज्ञानरूपी अंधकार को मिटाने वाला। मां हमें प्रथम ज्ञानोपदेश करती है। इसलिए वह हमारा प्रथम गुरू है। मां हमें सही रास्ता दिखाती है। वह ढाल बनकर बुराईयों से हमारी रक्षा करती है। वह समय-समय पर अपने उपदेश से हमें सावधान कर मार्गदर्शन कराते हुए सुरक्षा कवच प्रदान करती है। यह कवच मां का आशीर्वाद बनकर हमारी हमेशा रक्षा करता है। हर बच्चा मां के आशीर्वाद की छत्र छाया में रहते हुए बुराई से बचता है। गुरू देवता है। इसलिए मां भी प्रथम देवता है। हर मनुष्य आपत्तिकाल में मां को याद करता है। मानो आपत्ति से उभरने का गुर वहीं से मिलेगा। मां की मूर्ति बनाए तो लगता है कि एक भोली भाली, प्यारी प्यारी सहनशीलता की देवी हमारे सामने साक्षात खड़ी है। संतान के दुख से द्रवित, संतान के पालन पोषण में आने वाले हर दुख को सहर्ष झेलने वाली, संतान को हर प्रकार का सुख अपने सुख को दाव पर लगाकर भी उपलब्ध कराने वाली दिव्य गुणों से शोभित जिस एक देवी का चित्र हमारे सामने उभरकर आये समझ लेना, वह मां है।
संतान के लिए हर कष्ट को झेलकर भी ‘सी’ न करने वाली, चेहरे पर दिव्य संतोष की रेखाओं से नहाई हुई, गर्भावस्था से लेकर हमारे साथ बिताने वाले अपने शेष सारे समय में हमारे लिए सर्वस्व न्यौछावर करने वाली त्याग और तपस्या की जो तस्वीर आपकी आंखों में उभरकर आए समझ लेना वह मां है। स्वयं सर्दी से ठिठुरकर भी अपने आंचल में हमें समेट कर गर्मी देने वाली, हमारी प्राण रक्षक, भूख से तड़पती हुई भी अपने मुंह तक के ग्रास को हमारी क्षुधा निवृत्ति के लिए हमें दे देने वाली, साधना की साक्षात प्रतिमा यदि आपको कहीं दिखे तो भी समझ लेना कि वह मां है।
मां हमारा मूल है। मां न होती तो हम भी न होते। इसलिए मां हमारे जीवन का श्रंगार है, हार है, आधार है। मां बच्चे के जीवन की सृजनहार है, पालनहार है। गृहस्थ की गाड़ी की चालिका है, और चेतन देवता है। मां की ममता की छांव में संतान रूपी पुष्प उचित रूप में पुष्पित, पल्लवित, प्रस्फुटित एवं मुखरित होते हैं। इसीलिए श्रीलंका विजय के पश्चात राम ने यथाशीघ्र विभीषण का राज्याभिषेक करने के उपरांत अनुज लक्ष्मण को अयोध्या लौटने की तैयारी करने का आदेश निम्न श्लोक कहकर दिया-
‘स्वर्णमपि लंका न मे रोचते लक्ष्मण,
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।
हे! लक्ष्मण स्वर्ण नगरी लंका भी अब मुझे अच्छी नही लग रही क्योंकि जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर हैं।
इसीलिए यक्ष युधिष्ठर संवाद में युधिष्ठर ने मां का स्थान पृथ्वी से भी भारी बताया है। बस यही कारण है कि मां को हमारे सभी महापुरूषों ने अत्यंत श्रद्घा और सत्कार की पात्र बताया है। हर मां महान होती है। आवश्यकता उसकी महानता को समझने, परखने और वर्णन करने की है। इसलिए जब भी किसी की भी मां संसार से प्रयाण करे तो उसके प्रति श्रद्घा से हमें झुकना सीखना चाहिए। मां बच्चे की प्रथम पाठशाला है। उसकी प्रथम अध्यापक है। मां एक सुधारक है, संस्कारों की संवाहक है, मानवीय मूल्यों की प्रचारक है, हमारी उद्घारक है। मां शक्ति है, मां ही भक्ति है, मां ही मुक्ति है। मां दुखहरणी है, आस्था का प्रमाण है, जीवन की शान है, जग की जान है, हम सबके प्राण है! मां एक संस्कृति है, मां निर्मात्री है। मां एक संकल्प है, मां शांति है, और शास्ति है, तभी तो सर्वत्र भासती है। मां जन्मदायिनी है, जीवन प्रवाहिणी है।
मां साधना है, मां ममता, तप, त्याग, सत्य, सादगी और सरलता का सागर है। ब्रह्मांड में प्रथम पूजनीया है क्योंकि उसका पिता और आचार्य से प्रथम स्थान है। वह सब योनियों में हमें मिलती है, लेकिन उसकी करूणा हर योनि में हमारे लिए समान रूप से उपलब्ध होती है। इसलिए हर योनि में मां का स्वरूप एक जैसा ही है। वह जग की कल्याणकत्र्ता है। मां ही है जो संतान के लिए सुख दुख और नफा नुकसान सब में समान काम आती है। इसलिए मां ऊर्जा का एक अक्षय स्रोत है। मानवता का इतिहास इस बात का साक्षी है कि मां की ममता का प्रवाह एक सरिता के समान है किंतु यह प्रवाह मान सरिता अनादि और अनंत है। यह पूर्व सृष्टि रचने का क्रम आरंभ हुआ है और जब तक चलेगा यह प्रेममयी सरिता सूखने वाली नही है। इसका प्रवाह चलता रहेगा, बहता रहेगा। हमारे विकास के लिए, हमारी समृद्घि के लिए। इसलिए हमें मां के प्रति श्रद्घावान बनना चाहिए। हमें अपनी मां श्रीमति सत्यवती आर्या की सतोगुणी प्रज्ञा से प्रकाश मिला जिसके हम ऋणी हैं। उसके विवेक से हमें सत्पथ मिला-जिसके प्रति हम श्रद्घानत है। उसके संस्कारों से हमें आपस का प्रेम मिला-जिसके लिए हम उसके प्रति भाव विभोर हैं। यह प्रज्ञा, यह विवेक का सत्पथ और यह प्रेम हमारी थाती बन जाए हमारे जीवन का लक्ष्य बन जाए, भूषण बन जाए तभी जीवन सफल होगा….
और तभी मिलेगी मां को सच्ची श्रद्घांजलि। जीवन का एक बहुत बड़ा भाग चला गया है मां के संरक्षण में-यह संतोष का विषय है। किंतु शेष कितना है? यह पता? राह कठिन है, लक्ष्य महान है। अब एक आशा ही शेष है कि मां का आशीर्वाद अब भी अदृश्य रूप में हमारा मार्गदर्शन करता रहेगा। हम बढ़ेंगे निरंतर उन्नति की ओर विकास की ओर, प्रगति की ओर….इतना है विश्वास।
लेखक उगता भारत समाचार पत्र के चेयरमैन हैं।