हमारे देश ने अपनी स्वाधीनता की प्राप्ति के लिए और अपने वैदिक धर्म एवं संस्कृति की रक्षा के लिए अनेकों बलिदान दिए हैं । सचमुच यहां के बलिदान विश्व इतिहास में बेजोड़ हैं । ऐसी – ऐसी घटनाएं घटित हुई हैं कि पढ़कर वसुनकर रोमांच हो जाता है। साथ ही अपने बलिदानी वीर पूर्वजों के बलिदान देने के सर्वोत्कृष्ट भाव के समक्ष ह्रदय अनायास ही श्रद्धा से झुक भी जाता है । ऐसा ही एक रोमांचकारी बलिदान है – जैतसिंह चुंडावत का । इतिहास बताता है कि एक बार महाराणा अमरसिंह की सेना की दो रेजीमेंट्स चुंडावत और शक्तावत में अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए एक प्रतियोगिता का आयोजन किया गया।
प्रतियोगिता में महाराणा अमरसिंह ने यह घोषित कर दिया था कि जो जीतेगा वही सेना का नेतृत्व करने के लिए अग्रिम पंक्ति में स्थान प्राप्त करेगा। अभी तक यह स्थान चुंडावत खाप के वीरों को ही युद्ध भूमि भूमि में प्राप्त होता था। अब आगे के लिए यह स्थान बना रहेगा या आज छिन जाएगा , आज की प्रतियोगिता में बस यही तय होना था । चुंडावत खाप के सभी सैनिक और योद्धा अपने वीरतापूर्ण कौशल के लिए बहुत यश कमा चुके थे । आज इस यश को बनाए रखने की घड़ी थी , यदि यह यश आज कलंकित हो गया अर्थात प्रतियोगिता में हार गए तो माना जा रहा था कि उन्हें इतिहास कोसेगा , इसलिए हर स्थिति परिस्थिति में उनकी इच्छा थी कि यश कायम रहना चाहिए। चुंडावत खाप के योद्धा अग्रिम पंक्ति में लड़ते रहने को अपना अधिकार मान चुके थे इसलिए इस अधिकार को आज खोने के लिए भी तैयार नहीं थे।
उधर शक्तावत खांप के वीर राजपूत भी कम पराक्रमी नहीं थे। वह भी यही चाहते थे कि युद्ध क्षेत्र में प्रथम पंक्ति में खड़े होकर लड़ने का सौभाग्य अब उन्हें ही प्राप्त हो । जिससे बलिदान देने में भी वह आगे रहें और स्वर्ग प्राप्ति में भी उनकी पहले गिनती हो । वे चाहते थे कि युद्ध क्षेत्र में शत्रु पक्ष से नहीं बल्कि मृत्यु से पहले उनका मुकाबला हो , तभी जीवन धन्य होगा।
इसे कहते हैं शौर्य । जहां शत्रुओं से लड़ने के लिए नहीं बल्कि मृत्यु से लड़ने के लिए प्रतियोगिता का आयोजन किया जा रहा है , जो उसमें सफल होगा वही अपने आप को धन्य समझेगा । सचमुच भारत के वीर योद्धा और यहां के शौर्य की कोई सीमा नहीं । शक्तावतों ने मांग रखी कि हम चुंडावतों से त्याग, बलिदान व शौर्य में किसी भी प्रकार कम नहीं है। युद्ध भूमि में आगे रहने का अधिकार हमें मिलना चाहिए।
मृत्यु को इस प्रकार पहले गले लगाने की चाहत को देख महाराणा स्वयं भी धर्म-संकट में पड़ गए। किस पक्ष को अधिक पराक्रमी मानकर युद्ध भूमि में आगे रहने का अधिकार दिया जाए ?
अपने दोनों रेजीमेंट्स के योद्धाओं के साथ न्याय करने के लिए तब महाराणा अमर सिंह ने एक रास्ता निकाला । जिसके अनुसार यह निश्चित किया गया कि दोनों दल उन्टाला दुर्ग (किला जो कि बादशाह जहांगीर के अधीन था और फतेहपुर का नवाब समस खां वहां का किलेदार था) पर अलग-अलग दिशा से एक साथ आक्रमण करेंगे व जिस दल का व्यक्ति पहले दुर्ग में प्रवेश करेगा उसे ही युद्ध भूमि में रहने का अधिकार दिया जाएगा।
महाराणा के द्वारा निर्धारित की गई इस कसौटी पर खरा उतरने के लिए अब दोनों पक्ष प्राणपण से कटिबद्ध हो गए । दोनों में यह होड़ लग गई कि इस बार शत्रु के सामने युद्ध भूमि में अपनी सेना का अग्रिम मोर्चा केवल मेरी रेजीमेंट ही संभालेगी । प्रतिष्ठा की रक्षा के लिए दोनों दलों के रण-बांकुरों ने उन्टाला दुर्ग (किले) पर आक्रमण कर दिया। शक्तावत वीर दुर्ग के फाटक के पास पहुंच कर उसे तोड़ने का प्रयास करने लगे तो चुंडावत वीरों ने पास ही दुर्ग की दीवार पर रस्से डालकर चढ़ने का प्रयास शुरू कर दिया। इधर शक्तावतों ने जब दुर्ग के फाटक को तोड़ने के लिए फाटक पर हाथी को टक्कर देने के लिए आगे बढाया तो फाटक में लगे हुए लोहे के नुकीले शूलों से सहम कर हाथी पीछे हट गया।
हाथी को पीछे हटते देख शक्तावतों का सरदार बल्लू शक्तावत, अद्भुत बलिदान का उदहारण देते हुए फाटक के शूलों पर सीना अड़ाकर खड़ा हो गया व महावत को हाथी से अपने शरीर पर टक्कर दिलाने को कहा जिससे कि हाथी शूलों के भय से पीछे न हटे। एक बार तो महावत सहम गया, किन्तु फिर वीर बल्लू के मृत्यु से भी भयानक क्रोधपूर्ण आदेश की पालन करते हुए उसने हाथी से टक्कर मारी जिसके बाद फाटक में लगे हुए शूल वीर बल्लू शक्तावत के सीने में घुस गए और वह वीर-गति को प्राप्त हो गया। उसके साथ ही दुर्ग का फाटक भी टूट गया।
शक्तावत के दल ने दुर्ग का फाटक तोड़ दिया। दूसरी ओर चूण्डावतों के सरदार जैत सिंह चुण्डावत ने जब यह देखा कि फाटक टूटने ही वाला है तो उसने पहले दुर्ग में पहुंचने की शर्त जीतने के उद्देश्य से अपने साथी को कहा कि मेरा सिर काटकर दुर्ग की दीवार के ऊपर से दुर्ग के अन्दर फेंक दो। साथी जब ऐसा करने में सहम गया तो उसने स्वयं अपना मस्तक काटकर दुर्ग में फेंक दिया। फाटक तोड़कर जैसे ही शक्तावत वीरों के दल ने दुर्ग में प्रवेश किया, उससे पहले ही चुण्डावत सरदार का कटा मस्तक दुर्ग के अन्दर मौजूद था। इस प्रकार चूणडावतों ने अपना आगे रहने का अधिकार अद्भुत बलिदान देकर कायम रखा।
मित्रों ! बोलो —
मेरी मां शेरांवाली है ।
मेरी मां के शेरों की शान निराली है ।।
हम इस घटना से आज के परिप्रेक्ष्य में कुछ शिक्षा ले सकते हैं । आज 5 अप्रैल है । आज हमने फिर एक प्रतियोगिता का आयोजन किया है ।शाम 9:00 बजे 9 मिनट के लिए हमको दीप जलाने हैं। इस परीक्षा में हमको सब को सफल होना है और प्रथम स्थान प्राप्त करने के लिए प्रयास करना है । देश सेवा के लिए मातृभूमि फिर पुकार रही है। समझ लीजिए कि देश सेवा कोई मन से ( ब्राह्मण अपने बौद्धिक मार्गदर्शन से वैचारिक क्रांति के माध्यम से सत्यान्वेषण करने वाली बुद्धि के माध्यम से शोध कर अपने देशवासियों को जगाते रहने का काम करके) कोई तन से (क्षत्रिय अपने क्षत्रिय बल , अस्त्र-शस्त्र से , शरीर से ) कोई अपने धन से (वैश्य वर्ग अपना धन आदि दान करके ) करता है तो कोई अपनी सेवा से अर्थात सामान को यहां से वहां ले जाना , वितरित करवाना , सबके लिए समर्पित होकर काम करना अर्थात शूद्र भाव से करता है। मां भारती के लिए सब समान हैं , ना कोई छोटा है ना बड़ा है , जिस पर जैसा बने वैसा ही अपना धर्म निभाते हुए करे।
कहने का अभिप्राय है कि कोई किसी दूसरे के लिए ना सोचे कि मैं कुछ नहीं कर सकता ।।मां भारती ने पहले दिन से ही सब की भूमिका निर्धारित कर दी हैं। जो जहां है , जैसा है, वैसा ही अपने आपको सेवा के योग्य समझे और अपनी सामूहिक शक्ति का प्रदर्शन करते हुए 9:00 बजे के इस महान यज्ञ में अवश्य सम्मिलित हो।
सब की महान आहुतियों से एक महान यज्ञ संपन्न होने जा रहा है , कोई छूट न जाए कोई रह न जाए।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत