माते! तेरे दिये संस्कारों का तुझे ही नमन

ग्राम चचूला (दनकौर) जिला बुलंदशहर के श्रीमान महाशय मुंशी सिंह जी आर्य के परिवार में संवत 1982 के कार्तिक माह में पूज्या नानीजी श्रीमति खजानी देवी आर्या के गर्भ से 8 अक्टूबर 1925 को माताश्री श्रीमती सत्यवती आर्या जी का जन्म हुआ। केवल प्राथमिक स्तर की आरंभिक शिक्षा ही आप प्राप्त कर पायी थीं। विपरीत परिस्थितियों और आगे का उच्च विद्यालय गांव में न होने के कारण और अधिक शिक्षा आप प्राप्त करने में असफल रहीं।maa
सन 1945 में ग्राम महावड़ के चौधरी तारीफ सिंह व उनकी धर्मपत्नी श्रीमती मेधावती के सुपुत्र श्री राजेन्द्र सिंह आर्य के साथ गुरूकुल एटा के अधिष्ठाता आचार्य ज्योतिरूवरूप के वेद मंत्रोच्चारण के द्वारा आपका विवाह संस्कार संपन्न हुआ। आचार्यवर का आशीर्वाद एवं प्रवचन आपको आजीवन स्मरण रहा। जिसके फलस्वरूप आपने हर प्रतिकूल परिस्थिति में पूज्यपिता श्री का साथ दिया और ईश्वर स्मरण में कभी प्रमाद नही किया। यही संस्कार आप हम सब बहन भाईयों में और हमारी संतानों में भरने के लिए प्रयासरत रहीं
आप बचपन से ही आर्य समाज के विचारों से ओतप्रोत रहीं। विवाह के पश्चात आपको पूज्य पिताश्री महाशय राजेन्द्र सिंह आर्य जी दिल्ली ले गये। जहां पिताश्री तीस हजारी कोर्ट में नौकरी करते थे। यहां रहकर पिताश्री ने आपको और पढऩे लिखने के लिए प्रेरित किया। स्वाध्याय और सत्संगति से आर्य साहित्य के प्रति आपका झुकाव बढ़ा। फलस्वरूप प्रार्थना मंत्र, संध्या मंत्र और गायत्री मंत्र आपने कंठस्थ कर लिये। जिन्हें आप आजीवन जपती और भजती रही। आप ही के पुण्य प्रताप का फल था कि आपकी प्रार्थना को ईश्वर ने ज्यों का त्यों सुना और आपने अंत समय में बड़े आराम से अपनी तन की चदरिया ईश्वर को सौंप दी। बिना किसी कष्ट’ और बिना किसी भय के। मानो आप कह रही थीं…..
‘तेरा तुझको सौंपते क्या लागे है मोय’ दिल्ली में पिताश्री ने आपको अनेक धर्मग्रंथ व ऐतिहासिक पुस्तकों का अध्ययन कराया। जिसमें आप पूर्ण पारंगत हो गयीं। इसलिए आजीवन हमारे लिए प्रेरणा का स्रोत बनी रहीं। आपने गृहस्थ धर्म को बड़े बुद्घि कौशल से निभाया। अतिथि सत्कार व भूखों को भोजन कराना आपका शौक था।
आज जब आप हमारे बीच नही रहीं हैं तो आपके बिना जीवन में सूनापन है। आपकी मृत्यु एक सत्य उद्घाटित कर रही है। मानस में बार-बार अपने जीवन के विषय में प्रश्न उठता है।
भर्तहरि के ये शब्द बार बार हृदय को बींधते हैं….
वह रमणीय नगरी, वह महान सम्राट और उनके अधीनस्थ रजवाड़ों का समूह, उनके दायं-बांए वह विद्वानों की सभा, वे चांदनी जैसी गोरी चंद्रमुखी रानियां, वह मुंह जोर राजकुमारों का ठठ, वे बंदीगण अर्थात भाट लोग, उनके द्वारा गाये जाते प्रशस्ति गान, जिसके वश में ये सभी यादें बनकर रह गये उस काल देवता को हमारा नमस्कार है।
मां! यह जीवन पानी में उठी तरंग की तरह बिखरकर विलीन हो जाएगा, यह जवानी की चमक दमक कुछ दिनों की मेहमान है धन संपदाएं खयाली पुलाव की तरह हाथ से सरक जाने वाली हैं, भोग संभोग के सुख समूह वर्षाकालीन बिजली की चमक की तरह अंधेरों में खो जाएंगे, ये सारे आनंद सारे सुख क्षणिक सिद्घ होंगे स्थायी नही। अत: हे जगत जननी मां! वो शक्ति दो, वो भक्ति दो कि इन सांसारिक भयों से पार उतरकर परब्रह्मï में तल्लीन हो जाऐं।
माते तेरे दिये संस्कारों का तुझे ही नमन।

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