लोकतंत्र की प्राणशक्ति:गोपनीयता और मंत्रीपद
लोकतंत्र में शासन तंत्र की प्राणशक्ति गोपनीयता और मंत्रीपद को माना जा सकता है। राजा की योजनाएं और अति महत्वपूर्ण नीतिगत निर्णयों की जानकारी जनसाधारण हो या विशिष्ट व्यक्ति हों, किसी को भी समय पूर्व नही होनी चाहिए। महाराज युधिष्ठर को समझाते हुए महाभारत के शांति पर्व (69/14-15) में भीष्म पितामह ने गोपनीय विषयों पर अपनी सम्मति प्रदान करने वाले लोगों का उल्लेख किया है। उन्होंने कहा है कि ब्राह्मïणों के अतिरिक्त क्षत्रिय एवं वैश्य को भी मंत्री बनने एवं मंत्रणा देने का अधिकार है। भीष्म पितामह के मतानुसार मंत्री का कुलीन एवं धर्मज्ञ होना भी उसकी एक अनिवार्य योग्यता है। मंत्रणा के योग्य मंत्री के भीतर भीष्म ने जिन गुणों की चर्चा शांति पर्व में की है, उनमें एक मंत्री का परममित्र, स्वरूपवान, मृदुभाषी, क्षमाशील, शिष्टाचारी, बुद्घिमान, स्मृतिवान, कुशल, दयालु, यशस्वी, एवं सामथ्र्यवान पुरूष, किसी से द्वेष नही रखने वाला तथा किसी भी परिस्थिति में धर्म को न छोडऩे वाला, जैसे गुणों को वर्णित किया है। भीष्म कहते हैं कि जो मंत्री उक्त गुणों से सुशोभित होते हैं, वही अपने राजा से सम्मानित होते हैं। क्योंकि ऐसे महान विचारक और धर्मशील मंत्री ही राजा की गोपनीयता को बनाये रखने में कुशल हो सकते हैं।
मंत्री के कर्तव्य पर भी पितामह भीष्म ने प्रकाश डाला है। राजा को पहले तीन मंत्रियों से अलग अलग कर उस पर विचार करना चाहिए। तत्पश्चात कुलपुरोहित से सलाह लेनी चाहिए। उनकी स्वीकृति मिलने पर ही उस मंत्रणा को कार्यान्वित करना चाहिए।
मंत्रणा के समय वहां से विकलांग एवं विकृतांग स्त्री, हिजड़ों को अलग कर देना चाहिए। राजा एवं मंत्री की मंत्रणा एकांत समतल कुशा रहित मैदान या राजभवन के ऊपरी तल पर करनी चाहिए। मंत्रिमंडल में विद्वान, प्रबल्भ, स्नातक, चार ब्राह्मण, बलशाली शस्त्रधारी, आठ क्षत्रिय धन संपन्न 21 वैश्य एवं विनीत, पवित्र कर्म करने वाले शूद्रों को भी रखना चाहिए, किंतु इनकी गोपनीयता की रक्षा करनी चाहिए। आचार्य शुक्र ने मंत्री के लिए नीतिशास्त्र का ज्ञानी होना आवश्यक माना है। आचार्य शुक्र ने मंत्री पद पर आसीन व्यक्ति में आत्म स्वाभिमान की भावना को भी आवश्यक माना है। अनुचित आज्ञा को टाल देना चाहिए, एवं राजा के साथ अनीति पूर्ण आचरण नही करना चाहिए। महाविद्वान विदुर ने गोपनीयता को मंत्री का सबसे बड़ा गुण माना है।
राजा निरंकुश नही होता
राजा के लिए मंत्रिपरिषद का होना, उसके सलाह के लिए परामर्शदाता लोगों की उपस्थिति और ऐसे परामर्शदाता लोगों को कुलीन और धर्मज्ञ होना यह स्पष्ट करता है कि राजा निरंकुश नही हो सकता। राजा के स्वेच्छाचारी और निरंकुश स्वरूप की ऐसी परिस्थितियां मध्यकाल की देन है। उस समय रजा के स्वरूप में गिरावट आ चुकी थी। राजा की ओर से होने वाली विजय यात्राएं लोककल्याण के लिए नही अपितु स्वकल्याण के लिए होने लगीं। इससे राजा के भीतर अहंकार और दंभ में वृद्घि होने लगी। ऐसी स्थिति का कारण ये था कि राजा ने चाटुकार लोगों को अपना मंत्री बनाना आरंभ कर दिया। ऐसे चाटुकार लोगों ने मंत्री पद पाकर स्वयं को उपकृत माना और वो राजा के इस उपकार के कारण राजा के मंत्रिमंडल के नहीं, अपितु कीर्तिमंडल के सदस्य बन गये। जहां राजा की पूजा करना और मानो आरती उतारना भी उनका जीवनोद्देश्य बन गया।
मंत्रणा के संबंध में हमें स्मरण रखना चाहिए कि ये सदा ही विद्वानों के साथ हुआ करती है। सामान्य बुद्घि के व्यक्ति के साथ कभी भी मंत्रणा नही हुआ करती। इसलिए सर्वप्रथम आवश्यक है कि बनने वाले मंत्री की स्वयं की प्रतिभा बोलनी चाहिए। क्षेत्रीय, भाषाई और साम्प्रदायिक संतुलन को बनाकर रखने के लिए राजा अपने मंत्रियों का चयन करेगा (जैसा कि आज होता है) तो वह लोग राजा को उचित परामर्श नही दे पाएंगे। उनके परामर्श में भी संकीर्णता का विखंडनवाद होगा और राष्ट्र वितण्डावाद का शिकार हो जाएगा।
गोपनीयता को विद्वान ही बनाए रख सकता है
गोपनीयता के संबंध में हमें सदा स्मरण रखना चाहिए कि संकीर्ण मानसिकता का व्यक्ति कभी भी गोपनीयता को भंग कर सकता है। जबकि एक विद्वान अपने धैर्य को अधिक समय तक बनाये रख सकता है। अच्छे मंत्री को राजा से किसी समय मतभेद हो जाने पर भी अपने द्वारा गोपनीयता बनाये रखने के सिद्घांत को कभी विस्मृत भी नही करना चाहिए। ऐसी परिपक्व मानसिक अवस्था लोकतंत्र के लिए आवश्यक होती है। हमारे संविधान ने भी गोपनीयता को लोकतंत्र की प्राणशक्ति के रूप में मान्यता प्रदान की है।
यह दुख का विषय है कि हमने गोपनीयता के सिद्घांत को वेद सम्मत राजनीति से लिया परंतु संविधान में कहीं पर भी प्रधानमंत्री और मंत्रियों की योग्यता एवं बौद्घिक क्षमताओं का राष्ट्र की अपेक्षाओं के रूप में निरूपण नही किया।
यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण परिस्थिति है कि देश के प्रधानमंत्री को हमने विभिन्न दबाव गुटों, औद्योगिक घरानों, शक्ति संपन्न लोगों आदि के ऊपर छोड़ दिया है। नि:स्वार्थ भाव से राष्ट्र की सेवा करने वाले परम विद्वत्मंडल की कृपा दृष्टि से नही अपितु निहित स्वार्थों के लिए शक्ति संचय कर सत्ता प्रतिष्ठानों को हड़प कर अपनी मुट्ठी में रखने वाले कुछ स्वार्थी लोगों के द्वारा प्रधानमंत्री की नियुक्ति होने लगी है।
उपकार का यह खेल किसी प्रधानमंत्री को स्वतंत्र और स्वस्थ निर्णय लेने से रोकता है। वह स्वयं बंधनों में जकड़ा हुआ और संकीर्ण गलियों से निकल कर चलने वाला एक असहाय व्यक्ति बना दिया गया है।
हमारे अब तक के अधिकांश प्रधानमंत्रियों की स्थिति ऐसी ही रही है। ऐसी स्थिति परिस्थितियों में कुछ प्रधानमंत्री कभी भी अपने विवेक से विद्वान लोगों को अपने मंत्रिमंडल में स्थान नही दे पाए। इसका एक कारण ये भी होता है कि मंत्री यदि योग्य हो और प्रधानमंत्री अयोग्य हो तो मंत्री सत्ता पलट कभी भी कर सकता है। इसलिए अपनी कुर्सी को बचाए रखने के लिए दुर्बल मंत्रियों की नियुक्ति की जाती है।
गोपनीयता टूट जाती है
ऐसी परिस्थिति में गोपनीयता का भंग हो जाना स्वाभाविक है। यदि लक्ष्य दूर तक जाना नही है, तो कहीं निकट ही साध्य टोहना मानव की प्रकृति में सम्मिलित है। जिसे साध्य मिल गया (अर्थात ऐश्वर्य का साधन मंत्री पर मिल गया।) (वह बहुत दूर तक) राष्ट्र के कल्याण के लिए अथक परिश्रम कर राष्ट्रोत्थान के लिए नई नई नीतियां लाने और स्थापित करने के प्रति समर्पित नही हो सकता।
स्वार्थ पूर्ति के लिए या तो वे स्वयं साथ छोड़ जाते हैं या उन्हें छोड़ दिया जाता है। छूटने या छोडऩे की कोई सी भी अवस्था के उपस्थित होते ही, गोपनीयता की शपथ तार तार हो जाती है। तब सत्ता और सत्ता में बैठे लोग, राजनीति और राजनीति कर रहे लोग उपहास का पात्र बनते देखें जाते हैं। भारत में ऐसा स्वतंत्रता के पश्चात बार बार होता रहा है।
अन्धता की अनंत गलियां
फलस्वरूप हम अंधता की अनंत गलियों में घुस चुके हैं। संविधान मूल रूप में जिन व्यवस्थाओं पर मौन है, अथवा जिन बिंदुओं पर उसे स्पष्ट होना ही चाहिए, उसके मौन रहने या अस्पष्ट रहने का ही यह दुष्परिणाम है।
ऋग्वेद (7/18/4) में आया है कि जिसको मंत्री बृहस्पति ज्ञानी, सेनापति इंद्र जैसा शक्तिशाली एवं कोषाध्यक्ष कुबेर जैसे संपन्न व्यक्ति की सहायता मिलती है। वह नि:संदेह बढ़ता जाता है। यजुर्वेद (27/8) में वाक एवं मेधा के देवता बृहस्पति से प्रार्थना की गयी है, जो वैदिक मंत्रिमंडल में शिक्षामंत्री है, कि इस यजमान (राजा) को तीव्र बुद्घि करके चेतनायुक्त करो, और सम्यक रूप से उपदेश दो, इसको महान ऐश्वर्य के लिए बढ़ाओ तथा सभी दिव्य गुण वाले इसके अनुकूल होकर आनंदित हों।
वेद के इसी प्रकार के आदेशों को महर्षि दयानंद वर्तमान भारतीय राजनीति का मूल आधार बनाना चाहते थे। इसलिए उन्होंने वेदों की राजनीतिक व्याख्या ही नही की अपितु राजनीति की भी उन्होंने वेद संगत परिभाषा की और उन दोनों को अन्योन्याश्रित बनाकर राजधर्म का प्रतिपादन किया। आज स्वार्थी लोगों की स्वार्थपूर्ति के लिए तथा अपने विरोधियों को राजनीति में परास्त करने के लिए अथवा किन्हीं तात्कालिक लाभ देने वाली योजनाओं को लागू करके उनसे चुनावी लाभ उठा लेने के लिए लोगों में मंत्रणाएं होती हैं, गुप्त योजनाओं बनती हैं। जिनका परिणाम सुखद नही आ रहा है।
लोककल्याण से अभिभूत राजनीतिक चिंतन और लोक कल्याण के लिए समर्पित राजनीति को यदि हम एक राष्ट्रीय संस्कार बना दें, तो लोकतंत्र की प्राणशक्ति के इन दोनों स्तंभों (गोपनीयता और मंत्री पद) की गरिमा की रक्षा होना संभव है।
क्रमश:
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