मानव जीवन में यज्ञोपवीत ( जनेऊ ) का अत्यधिक महत्त्व है। उपनयन संस्कार को सभी संस्कारों में महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है । यज्ञोपवीत के तीन तार मनुष्यों उसके तीन ऋणों का निरन्तर स्मरण कराते रहते हैं। देव ऋण, आचार्य ऋण और मातृ-पितृ ऋण। उपनयन-संस्कार में यज्ञोपवीत धारण कराते हुए पुरोहित द्वारा वेद मंत्र का उच्चारण करते हुए ही “उपनयन संस्कार “ सम्पन्न किया जाता है। नया यज्ञोपवीत धारण करते समय भी इस मंत्र का पाठ किया जाता है ।महर्षि दयानन्द सरस्वती ने बालकों एवं बालिकाओं – दोनों के लिये यज्ञोपवीत का विधान किया है।
पाठकों के लाभार्थ उस मंत्र की अर्थ सहित व्याख्या यहाँ प्रस्तुत की जा रही है :–ओं यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं प्रजापतेर्यत्सहजं पुरस्तात् । आयुष्यमग्र्यं प्रतिमुंच शुभ्रं यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेज़: ।। (पारस्कर गृह्यसूत्र २/२/११)ये ऋग्वेद का गृह्यसूत्र है ।संधि-विग्रह – प्रजापते: + यत् + सहजं । आयुष्यं + अग्र्यं । बलम्+अस्तु ।यज्ञोपवीत ( के सूत्र ) अत्यन्त पवित्र हैं , ( यत् ) जो ( पुरस्तात् ) आदिकाल से ( प्रजापते: सहजं ) प्रजापति / सृष्टा के साथ जन्मा है । वह (आयुष्यं ) दीर्घायु को देने वाला (अग्र्यं )आगे ले जाने वाला (प्रतिमुंच ) बंधनों से छुड़ाए । ऐसा ( यज्ञोपवीतं) यज्ञोपवीत ( शुभ्रं ) शुभ्रता अर्थात् चरित्र की उज्ज्वलता या पवित्रता ( बलं ) शक्ति और ( तेज़ ) तेजस्विता वाला हो अर्थात् इन गुणों को प्रदान करने वाला होवे ।हमारे ऋषि पूर्वजों के द्वारा डाली गई प्रत्येक वैदिक परंपरा का कोई ना कोई वैज्ञानिक अर्थ है । ऐसी ही परंपराओं में से एक यज्ञोपवीत की परंपरा भी हमारे यहां पर रही है । आज हम यज्ञोपवीत के बारे में ही चिंतन करते हैं । यज्ञ शब्द का पर्यायवाची है यजन।इसमें यकार को छोड़कर ‘जन’ ग्रहण किया और उपवीत के पहले अक्षर को संधि करने से ‘जनेऊ’ शब्द की उत्पत्ति होती है , जो कि ‘यज्ञोपवीत’ का ही संक्षिप्त संस्करण है। लोक व्यवहार व अपभ्रंश के रूप में ग्रामीण अंचल में लोग यज्ञोपवीत को जनेऊ या जनोई भी कहते रहते हैं । जिसे इसी प्रकार यज्ञोपवीत का ही पर्याय मानना चाहिए।यज्ञोपवीत को ब्रह्मसूत्र भी कहते हैं । क्योंकि इस सूत्र के पहनने से व्यक्ति ब्रह्म के प्रति समर्पित हो जाता है। यह बल , आयु तथा तेज को प्रदान करने वाला होता है। विवाहित व्यक्ति को 6 धागे वाला जनेऊ पहनने का निर्देश दिया गया है । ऐसा निर्देश दिए जाने का कारण है कि ब्रह्मचारी के विवाह के उपरांत उसके कर्तव्यों में त्रिगुणात्मक वृद्धि हो जाती है । इससे प्रथम तंतु पत्नी का होता है, विवाह के पश्चात पत्नी की संपूर्ण मान मर्यादा, आजीविका का दायित्व, रक्षा का भार पति पर आ जाता है।द्वितीय तंतु सास के प्रति कर्तव्य पालन से है और तृतीय तंतु ससुर के प्रति निष्ठा एवं कर्तव्य पालन का बोध कराता है।यज्ञोपवीत संबंधी नियमयज्ञोपवीत को व्रतबंध भी कहा जाता है । आपका स्वाभाविक प्रश्न हो सकता है कि इसको व्रतबंध क्यों कहा गया ?उत्तर : यज्ञोपवीत के पहनते ही व्यक्ति सबसे पहले कई नियमों अर्थात व्रतों में बंध जाता है , अर्थात दृढ़ प्रतिज्ञ हो जाता है । इस परम तेजस्वी सूत्र का धारण करने हेतु शास्त्रकारों ने कुछ नियम बनाएं हैं । ये निम्न प्रकार हैं :–1 — यह स्वदेशी सूत से अर्थात सूत्र से शास्त्रीय विधि द्वारा हाथ से बनाया जाए।2 — या ब्राह्मण की कन्या अथवा सौभाग्यवती ब्राह्मण स्त्री के द्वारा बनाए गए सूत से बनाया जाए।3 – लघु शंका की स्थिति में दाएं कान पर जनेऊ डालें।4 — दीर्घ शंका की स्थिति में दोनों कानों पर जनेऊ डालें।5 – ब्रह्मचारी 3 धागों वाला जनेऊ धारण करें ।6 — विवाहित पुरुष 6, धागों वाला जनेऊ धारण करें।7 — हस्तनिर्मित जनेऊ 96 चव्वे वाला होना चाहिएएवं अति मंत्रित करके ही पहनना चाहिए।8 — हमेशा दाएं कंधे पर धारण करना चाहिए।9 – समय-समय पर बदलना चाहिए।यज्ञोपवीत के तीन धागों का रहस्यप्रश्न : यज्ञोपवीत में तीन धागे ही क्यों होते हैं ?उत्तर : त्रिगुणात्मक शक्ति से युक्त यज्ञोपवीत वेद त्रयी ऋग्वेद , यजुर्वेद और सामवेद की रक्षा करने वाला होता है।यह तीन लोकों भू: , भुव: , स्व: से संबंधित है । जिसमें भू: का अर्थ पृथ्वी , भुव: का अर्थ अंतरिक्ष और स्व: का अर्थ द्यौ में यश प्राप्ति का प्रतीक है।हम सत्य सनातन वैदिक धर्म के मानने वाले आर्य समाज के लोग इस सृष्टि का उत्पादक ब्रह्मा को , पालक विष्णु को तथा संहारक महेश को कहते हैं , लेकिन पौराणिक लोग तीन देवता ब्रह्मा विष्णु और महेश की उपासना करते हैं।हम आर्य समाज के लोग इस को बेहतर तरीके से जानते हैं कि ब्रह्मा , विष्णु और महेश अर्थात इस सृष्टि का उत्पादक , पालक और संहारक एक ही परमपिता परमात्मा है , जिसका निज नाम ओ३म है।यज्ञोपवीत धारी उपासक की उपासना से ईश्वर शीघ्रता से प्रसन्न होते हैं ।यज्ञोपवीत ब्राह्मण , क्षत्रिय , वैश्य में तीनों गुण अर्थात सत्व , रज , तम की वृद्धि करते हैं। इसको तीन तंतु त्रिगुणात्मक शक्ति बल ,वीर्य व ओज को बढ़ाने वाले हैं।इनके अलावा व्यक्ति को 3 कर्मों में बांधते हैं।1– स्वयं के प्रति पूर्ण रूप से ब्रह्मचारी रहना ,रोज गायत्री का जाप करना, गुरु की सेवा करना,संयमित जीवन जीना ,खुद अपने परिश्रम से अर्जित धन से भोजन करना, परिवार का पालन करना, गुरु ग्रह का पालन करना।2 — दूसरा तंतु माता के प्रति समर्पण एवं कर्तव्य का स्मरण कराता है3 — तीसरा तंतु पिता के प्रति समर्पण एवं कर्तव्यनिष्ठा का बोध कराता है।यज्ञोपवीत क्यों ?
उत्तर : विवाह के पश्चात ब्रह्मचारी अनेक प्रकार के धार्मिक कृत्यों का अधिकारी हो जाता है । गृह्यसूत्रों के अनुसार यह कर्म सपत्नीक किए जाते हैं । इन धर्म अनुष्ठानों में दो हमारे पास यज्ञोपवीत होना ही चाहिए । कर्मों की सर्वांग सफलता हेतु दो यज्ञोपवीत धारण किए जा सकते हैं। यदि उत्तरीय वस्त्र न हो तो तीसरा भी धारण किया जा सकता है।अब प्रश्न आता है कि यज्ञोपवीत के 96 चव्वे ही क्यों ? 95 या 97 क्यों नहीं? एकाध कम या ज्यादा हो गया तो क्या हानि थी ? इस शंका का समाधान इस प्रकार है कि यज्ञोपवीत पहनकर गायत्री मंत्र का जाप किया जाता है और गायत्री मंत्र में 24 अक्षर चारों वेदों के गायत्री मंत्र में कुल 24 गुना चार अर्थात 96 अक्षर होते हैं। इसलिए जनेऊ में 96 चववे होते है।हमारा भौतिक शरीर त्रिगुणात्मक गुणों से आकर्षित होकर 25 तत्वों से बना एक काल से वेष्टित हैं। जिसकी कुल संख्या 96 होती है । यथातत्व 25 ,गुण 3, तिथि 15 , 7 वार, नक्षत्र 27 ,वेद चार ,काल 3, मास 12 , कुल 96 हो गए ।सामुद्रिक शास्त्र के अनुसार मानव शरीर का आयाम 84 अंगुल से लेकर 108 अंगुल तक होता है । इसके लिए समांतर माध्य निकालते हुए यज्ञोपवीत के 96 चव्वे होते हैं।सबसे अंतिम तर्क यह है कि आप्त वचनों के अनुसार वैदिक ऋचाओं की कुल संख्या 1 लाख बताई गई है। इन 1लाख मंत्रों में 80,000 मंत्र कर्मकांड संबंधी है। 1600 मंत्र उपासना एवं 400 मंत्र ज्ञान कांड संबंधी हैं । यज्ञोपवीत पहनने से व्यक्ति को 96 हजार वेद की ऋचाओं के ऊपर अधिकार प्राप्त होता है। इसलिए भी यज्ञोपवीत 96 चव्वे का होना चाहिए।
यज्ञोपवीत की क्या लंबाई चौड़ाई हो ?
यज्ञोपवीत कंधे के ऊपर से आता है और नाभि का स्पर्श करता हुआ कटी तक पहुंचे । न इससे नीचे न ऊपर। इसकी मोटाई सरसों की फली की तरह होनी चाहिए ।यदि उससे मोटा होता है तो वह यश नाशक होता है और पतला होता है तो धन नाशक होगा।
जनेऊ के लाभ:प्रत्यक्ष लाभ, जो आज के लोग समझते हैं –
जनेऊ में नियम है कि जनेऊ बाएं कंधे से दाये कमर पर पहनना चाहिए। मल-मूत्र विसर्जन के दौरान जनेऊ को दाहिने कान पर चढ़ा लेना चाहिए और हाथ स्वच्छ करके ही उतारना चाहिए। इसका मूल भाव यह है कि जनेऊ कमर से ऊंचा हो जाए और अपवित्र न हो। यह अति आवश्यक होता है।कहने का तात्पर्य है कि कि जनेऊ पहनने वाला व्यक्ति ये ध्यान रखता है कि मलमूत्र करने के बाद स्वयं को साफ करना है इससे उसको इंफेक्शन का खतरा कम से कम हो जाता है।
अप्रत्यक्ष लाभ,जिसे कम लोग जानते हैं –
आजकल शरीर विज्ञानियों का यह मानना है कि शरीर में कुल 365 एनर्जी पॉइंट होते हैं। अलग-अलग बीमारी में अलग-अलग पॉइंट असर करते हैं। कुछ पॉइंट कॉमन भी होते हैं। एक्युप्रेशर में हर पॉइंट को दो-तीन मिनट दबाना होता है। और जनेऊ से हम यही काम करते है उस पॉइंट को हम एक्युप्रेश करते हैं।कैसे? आइये समझते हैं -कान के नीचे वाले हिस्से (इयर लोब) की रोजाना पांच मिनट मसाज करने से याददाश्त बेहतर होती है। यह टिप पढ़नेवाले बच्चों के लिए बहुत उपयोगी है। अगर भूख कम करनी है तो खाने से आधा घंटा पहले कान के बाहर छोटेवाले हिस्से (ट्राइगस) को दो मिनट उंगली से दबाएं। भूख कम लगेगी। यहीं पर प्यास का भी पॉइंट होता है। इसे दबाएं तो प्यास कम लगेगी।एक्युप्रेशर की शब्दावली में इसे पॉइंट जीवी 20 या डीयू 20 कहते हैं।
इसका लाभ आप देखें -जीवी 20 -स्थान : कान के पीछे के झुकाव में।उपयोग: डिप्रेशन, सिरदर्द, चक्कर और सेंस ऑर्गन यानी नाक, कान और आंख से जुड़ी बीमारियों में राहत। दिमागी असंतुलन, लकवा और यूटरस की बीमारियों में असरदार।
इसके अतिरिक्त विद्वानों और यज्ञोपवीत पर अनुसंधान करने वाले शोधकर्ताओं के अनुसार इसके कुछ अन्य लाभ भी हैं । जिन्हें आज का चिकित्सा विज्ञान भी सहर्ष स्वीकार करने लगा है : -1. बार-बार बुरे स्वप्न आने की स्थिति में जनेऊ धारण करने से ऐसे स्वप्न नहीं आते।2. जनेऊ के हृदय के पास से गुजरने से यह हृदय रोग की संभावना को कम करता है, क्योंकि इससे रक्त संचार सुचारू रूप से संचालित होने लगता है।3. जनेऊ पहनने वाला व्यक्ति सफाई नियमों में बंधा होता है। यह सफाई उसे दांत, मुंह, पेट, कृमि, जीवाणुओं के रोगों से बचाती है।4. जनेऊ को दायें कान पर धारण करने से कान की वह नस दबती है, जिससे मस्तिष्क की कोई सोई हुई तंद्रा कार्य करती है।5. दाएं कान की नस अंडकोष और गुप्तेन्द्रियों से जुड़ी होती है। मूत्र विसर्जन के समय दाएं कान पर जनेऊ लपेटने से शुक्राणुओं की रक्षा होती है।6. कान में जनेऊ लपेटने से मनुष्य में सूर्य नाड़ी का जागरण होता है।7. कान पर जनेऊ लपेटने से पेट संबंधी रोग एवं रक्तचाप की समस्या से भी बचाव होता है।
देवेंद्र सिंह आर्य
चेयरमैन : उगता भारत
मुख्य संपादक, उगता भारत