शिव कुमार गोयल
अमर शहीद सरदार भगत सिंह, सुखदेव तथा रामप्रसाद बिस्मिल ने स्वातंत्रयवीर सावरकर तथा भाई परमानंद जैसे राष्ट्रभक्तों के जीवन तथा उनके साहित्य से प्रेरणा ली थी। काकोरी काण्ड के अमर बलिदानी पं. रामप्रसाद बिस्मिल ने अपनी आत्मकथा में लिखा था-अंग्रेज सरकार द्वारा भाई परमानंद जी जैसे आर्य समाजी मनीषी, इतिहासकार तथा राष्ट्रभक्त को फांसी की सजा सुनाए जाने की घटना ने मेरे हृदय को झकझोर डाला था। इसी फांसी के दण्ड से क्षुब्ध हो मैंने अपना सर्वस्व विदेशी अंग्रेजी सत्ता से जीवन पर्यन्त संघर्ष में लगाने का संकल्प लिया था। सरदार भगत सिंह तथा सुखदेव लाहौर के नेशनल कालेज में पढ़ते समय भाई परमानंद जी के संपर्क में आए थे। लाला लाजपतराय जी ने भारतीय
भाईजी ने बंदा बैरागी की हिंदू धर्म के प्रति अनूठी निष्ठा व बलिदान पर कई लेख लिखे थे। भगत सिंह उनके लेखों से बहुत प्रभावित थे। भगत सिंह लाला लाजपतराय जी द्वारा स्थापित द्वारका दास पुस्तकालय से राष्ट्रभक्ति की प्रेरणा देने वाला साहित्य प्राप्त कर पढ़ा करते थे। काशी विद्यापीठ के युवा राष्ट्रवादी श्री राजाराम शास्त्री को लाला लाजपतराय जी ने पुस्तकालय का प्रबंधक मनोनीत किया था। भगत सिंह से उनके मैत्रीपूर्ण संबंध बन गये थे। शास्त्री जी राजर्षि पुरूषोत्तम टंडन के विशेष कृपा पात्र थे।
भगत सिंह को उन्हीं दिनों वीर सावरकर जी द्वारा लिखित पुस्तक ‘वार आफ इंडिपेंडेंस’ 1857 की गुप्तरूप से प्रकाशित प्रति हाथ लग गयी। भगत सिंह ने श्री राजाराम शास्त्री के सहयोग से गुप्तरूप से हिंदी में उसे पुन: प्रकाशित कराया था। शास्त्रीजी उसके प्रूफ देखा करते थे। शास्त्री जी ने पुस्तक प्रकाशित हो जाने पर उसकी पहली प्रति राजर्षि पुरूषोत्तम दास टंडन को भेंट की तो उन्होंने उसका मूल्य देते हुए कहा, भगत सिंह को इस प्रेरक पुस्तक के साहसपूर्ण प्रकाशन के लिए मेरी बधाई देना।
भगत सिंह श्री राजाराम शास्त्री से कहा करते थे मुझे सावरकर जी के जीवन प्रसंगों, जैसे-लंदन में रहते हुए मदनलाल ढींगरा को क्रांति की ओर प्रेरित करना, गिरफ्तारी के दौरान भारत लाए जाते समय जहाज से समुद्र में कूद पडऩा आदि ने बहुत प्रभावित किया है।
भगत सिंह के दादा आर्य समाजी थे
भगत सिंह के दादा सरदार अर्जुन सिंह सिख परिवार में जनम लेने के बावजूद आर्य समाजी थे। आर्य समाज के प्रवर्तक स्वामी दयानंद जी से प्रभावित होकर वे आर्य समाजी बने थे। सुविख्यात साहित्यकार श्री विष्णु प्रभाकर ने अमर शहीद भगत सिंह पुस्तक में लिखा है-
स्वामी दयानंद सरस्वती से दीक्षा लेकर अर्जुन सिंह ने मांस खाना छोड़ा, अंधविश्वास छोड़ा। अपना लिया बस हवन कुंड को, उसकी संस्कृति को।
उस समय अंग्रेज सरकार ‘फूट डालो और राज करो’ के सिद्घांत को अपनाए हुए थी। पटियाला के कार्य समाजियों पर एक मुकदमा चलाया गया कि वे सिखों के गुरूग्रंथ साहिब का अपमान करते थे। शासक सोचते थे कि इन दोनों में वैमनस्य पैदा हो जाएगा और राष्ट्रीयता की प्रज्वलिता होती ज्योति बुझ जाएगी।
आर्य समाज के बचाव में एक कमेटी बनी, उसमें सबसे आगे थे सरदार अर्जुन सिंह। उन्होंने विद्वानों के सहयोग से ऐसे उद्घरणों के ढेर गा दिये जो यह प्रमाणित करते थे कि वेद और गुरूग्रंथ साहिब दोनों एक ही बात कहते हैं। दोनों ही आदरणीय हैं। सरदार जी ने एक छोटी सी पुस्तक लिखी जिसका नाम था हमारे गुरू साहेबान वेदों के पैरोकार थे।
विष्णु प्रभाकर ने अपनी पुस्तक में संस्मरण दिया है-
अर्जुन सिंह हवन व वैदिक संस्कारों के प्रति कितने दृढ थे इसका संस्मरण क्रांतिकारी यशपाल ने भी वर्षों बाद लिखा था।
उन दिनों सरदार किशन सिंह ने बीमे की एजेंसी ले रखी थी। लाहौर में एक दफ्तर भी था। उसी में क्रांतिकारी युवक आकर बैठते थे। कभी कभी सोते भी वही थे। वहां एक दिन यशपाल मेज के सामने बैठे कुछ लिख रहे थे। नीचे टीन की कोई वस्तु थी। अनजाने में उसको पैर से बजाए जा रहे थे। उसमें से एक लय पैदा हो रही थी। तभी एक वृद्घ सज्जन वहां आए और एक कुर्सी पर बैठ गये। यशपाल ने उधर ध्यान नही दिया। वे उसी तरह लिखते रहे और उस वस्तु को जूते से बजाते रहे कि सहसा गालियों से भरी डांट सुनाई दी गधा, नास्तिक बदमाश, सिर तोड़ दूंगा….। चकित विस्मित यशपाल ने देखा कि वे तेजस्वी वृद्घ सज्जन (अर्जुन सिंह) उन्हें मारने को तत्पर हैं-उल्लू, यही तेरी तमीज है?
अब यशपाल ने नीचे झांक कर देखा जिस टीन को बेकार वस्तु समझकर वह बजा रहा था वह हवन कुंड था और उसी सरदार अर्जुन सिंह प्रतिदिन हवन किया करते थे।
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