महर्षि दयानंद के जीवन का एक अनुकरणीय प्रसंग
बात सोरों की है। महर्षि दयानंद जी महाराज एक सभा में भाषण कर रहे थे। बहुत से लोग उनकी बात को दत्तचित्त होकर सुन रहे थे। बातें बड़ी सारगर्भित थीं, जो लोगों को अच्छी लगती जा रही थीं। तभी उस सभा में एक हट्टा-कट्टा पहलवान सा जाट आ धमका। वह जाट अपने कंधे पर एक मोटा डंडा लिए हुए था। सभा में उपस्थित लोग उस नवयुवक जाट के क्रोध की फुंफकार को देखते ही वैसे ही हट गये जैसे लोग सांप को देखते ही हट जाया करते हैं। जाट महोदय अब महर्षि के सामने खड़े कह रहे थे-‘क्यों रे साधु! सुना है कि तू ठाकुर जी की पूजा का खण्डन करता है, श्री गंगा मैया की निंदा करता है, हमारे अनेकों देवी देवताओं की पूजा को वेद विरूद्घ बताकर उनका उपहास करता है। शीघ्रता से बता तेरे किस अंग पर डंडा मारकर तेरा काम समाप्त करूं ?’
महर्षि ने उस युवक को देखा तो वह मारे क्रोध के तमतमा रहा था, उसकी आंखों से क्रोध की ज्वालाएं निकल रही थीं। उधर सिद्घांत प्रिय तपस्वी ऋषि दयानंद थे जिन पर उसके क्रोध का कोई प्रभाव ही नहीं हो रहा था। महर्षि उस अज्ञानी जाट की अज्ञानता पर मन ही मन मुस्करा रहे थे। जबकि सारी सभा के लोग उस जाट को विस्फारित नेत्रों से देख रहे थे, वे एक बार ऋषि दयानंद की ओर देखते तो एक बार उस जाट की ओर देखते। उन्हें लग रहा था कि पलक झपकते कभी भी कुछ भी हो सकता है।
स्वामी जी के भीतर क्रोध के स्थान पर करूणा उमड़ रही थी। इसलिए बड़े प्रेम से शांतभाव से मुस्कराते हुए वह बोले-”भद्र, यदि तू यह समझता है कि वेद धर्म का प्रचार करके मैं कोई अपराध कर रहा हूं तो इसका अपराधी तो मेरा यह मस्तिष्क है, जिसमें यह सारा ज्ञान विज्ञान उपजता है और जो मुझे ऐसे काम कराने की अनुमति देता है, इसलिए यदि तू मेरे किसी अंग पर प्रहार करने का मन बना ही चुका है तो मेरे इस सिर पर ही अपना डण्डा मार।” इतना कहकर ऋषिवर अपनी दृष्टि उस जाट पर डाली। जाट ने जैसे ही ऋषि की आंखों का तेज देखा, वैसे ही उसका हिंसाभाव समाप्त हो गया। वह महर्षि दयानंद जी महाराज के पैरों पर गिर पड़ा और रोते हुए अपने किये गये अपराध की क्षमा याचना करने लगा।
यह है दृष्टि का चमत्कार जिसे कहा जाता है कि ‘नजर पत्थर को भी फोड़ देती है।’ ऋषि की नजरों ने एक पत्थर व्यक्ति को फोड़ दिया अर्थात झुका दिया। नजर लगना, या नजर पत्थर को भी फोड़ देती है, जैसी बातों को सही संदर्भ में समझने की आवश्यकता है।
महात्मा बुद्घ और महर्षि दयानंद जैसे लोगों के लिए किसी संस्कृत कवि ने लिखा है :-
यस्य क्रोधं समुत्पन्नम् प्रज्ञया प्रतिबाधते।
तेजस्विनन्तं सिद्वांसो मन्यन्ते तत्वदर्शिन:।।
अर्थात जो मनुष्य उत्पन्न हुए क्रोध को प्रज्ञा द्वारा शांत कर देता है, उस तेजस्वी पुरूष को तत्वदर्शी लोग विद्वान कहते हैं।
महात्मा बुद्घ ने स्वयं ने कहा है :-
यो वै उत्पत्तितं क्रोधं रथं भ्रान्तमिवधारयेत्।
तमहं सारथिब्रवीमि रश्मिग्राह इतरो जन:।।
अर्थात जो व्यक्ति क्रोध की अत्यंत विकट परिस्थितियों में भी क्रोध के आवेग को उसी प्रकार थाम ले जैसे एक व्यक्ति रथ को थाम लेता है उसे मैं सारथि कहता हूं। दूसरे लोग तो केवल लगाम पकडऩे वाले होते हैं।
मन: प्रकोपं रक्षेत् वाचा ससंवृत: स्यात्।
वचो दुश्चरितं हित्वावाचा सुचरितं चरेत्।।
अर्थात वाणी को विक्षोभ से बचाने के लिए व्यक्ति को सचेष्ट रहना चाहिए, क्योंकि वाणी यदि किसी भी प्रकार से विक्षोभग्रस्त हो गयी तो अनिष्ट आने में कोई देरी नही लगती है। इसलिए वाणी को संयमित रखना उत्कृष्ट जीवन के लिए अति आवश्यक है। अत: व्यक्ति को चाहिए कि वह वाणी के दोषों को छोडक़र वाणी से सदवचन ही बोलें।
कबीरदास कहते हैं-
वाणी ऐसी बोलिये मन का आपा खोय।
औरन को शीतल करे आपहु शीतल होय।।
सचमुच वाणी के आवेग के वशीभूत होकर बहने वाले लोग अपने बने बनाये कामों को बिगाड़ लिया करते हैं, उनका असंयमित व्यवहार उनके लिए नई-नई समस्याएं और नई-नई कठिनाइयां लेकर आता रहता है और वे उन्हें सुलझाते-सुलझाते ही उलझाते ही चले जाते हैं। उन्हें यह पता ही नहीं चलता कि समस्या का वह तंतु कहां है जिसे पकडक़र इसे सुलझाया जा सकेगा। वह जितना ही उस तंतु को ढूंढ़ते हैं वह उतना ही उनके असंयत व्यवहार से उलझता जाता है।
अत: नम्र बनोगे तो असंयत व्यवहार पर लगाम लगाने में सफलता प्राप्त होगी। जिससे हमारा जीवन सुगंधित पुष्प की भांति खिल उठेगा।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत
मुख्य संपादक, उगता भारत