अभी हमारे परिवार में एक दुखद घटना घटित हुई । मेरे ज्येष्ठ भ्राताश्री की पुत्रवधू को 7 माह के गर्भ काल में एक बच्चा ऑपरेशन से पैदा हुआ । वह बच्चा केवल 30 घंटे के बाद ही इस संसार को छोड़कर चला गया। उसका संपर्क , संबंध और संस्कार हमसे मात्र 30 घंटे का रहा तो इस संपर्क, संबंध और संस्कार पर मेरे भीतर विचारों का प्रवाह आरंभ हो गया। इस पर मैं सोचता हूं कि जीव के लिए जाति अर्थात योनि ,आयु और भोग यह निश्चित होकर आते हैं । जो उसके कर्मफल के अनुसार होते हैं।
जो बच्चा हमारे परिवार में आया उसने हमारे परिवार में एक कण या एक ग्रास भी नहीं खाया तो इसका मतलब हुआ कि विद्वानों का यह मत उचित ही है कि आयु ग्रास में नहीं बल्कि सांस में मिलती है। यह बात अब मैं सत्य होती हुई देख रहा था।
हमारे शरीर में 24 अवयव या तत्व होते हैं। पहला बुद्धि दूसरा अहंकार तीसरा मन चौथे पर पांच तन्मात्राएं शब्द, स्पर्श ,रूप, रस और गंध पांचवें स्थान पर पांच स्थूल भूत, पृथ्वी ,जल ,आकाश, वायु ,अग्नि, पांच कर्मेंद्रियों पांच ज्ञानेंद्रियां और जीव – इस प्रकार 24 हो गए।
योनि का अभिप्राय जाति से है जैसे मनुष्य जाति है पशु जाति है पक्षी आदि ये सब की सब जातियां हैं ।
आयु का अभिप्राय योनि की आयु से है । उस की माप तोल वर्षों से नहीं बल्कि स्वासों की संख्या से होती है। मनुष्य अपनी आयु मिले हुए जन्म में अपने अच्छे व बुरे कर्मों से घटा में बढ़ा भी सकता है। सुकर्म से आयु बढ़ती है ।दुष्कर्म ,नशा, व्यभिचार आदि से आयु घटती है।
चित्त क्या है ?
जन्म जन्मांतर के संस्कार ,वासना ,स्मृति चित्त में होते हैं। मरने पर भी चित्त में कोई बिगाड़ नहीं होता ।चित्त सूक्ष्म शरीर का एक अंग है जो प्रत्येक व्यक्ति के साथ रहता है। चित्त में स्मृति ,वासना, संस्कारों का भंडार है।
फिर संसार में क्यों आना पड़ता है ?
सकाम भाव से काम करने वाला सदैव अपने लिए शुभ फल की इच्छा किया करता है यह फल इच्छा से वासना पैदा होती है । वासना से फिर वही फलेच्छा उत्पन्न होती है और यह चक्र बराबर इसी प्रकार से जन्म – जन्मांतर से चला आता है । यह सब मुक्ति पर्यंत इसी प्रकार चलता रहता है।
मुक्ति की अवधि कितनी भी लम्बी क्यों न हो वह हद वाली होती है । कहने का अभिप्राय है कि मुक्ति अनंत काल के लिये नहीं होती है , उसकी भी सीमा है। उस अवधि के बीतने पर फिर जीव संसार में आता है । तब वह संसार में रहने की इच्छा होने पर फिर उसी वासना के पुराने जाल में फंसना पड़ता है । इसलिए वासना प्रवाह अनादि कही जाती है।
जिसका जन्म हुआ है , उसकी मृत्यु सुनिश्चित है। मनुष्य जीवन और मृत्यु के चक्र को यदि सही तरह से समझ ले तो काफी हद तक उसकी परेशानियां दूर हो सकती हैं!
५ तत्वों से बना यह शरीर परमात्मा की दी हुई अमूल्य धरोहर है ।इसलिए जीते जी यह जानना आवश्यक है कि हम कौन हैं ?
कहां से आए हैं?
अंततः जाना कहां है ?
कौन जाता है?
कौन चल बसता है ?
कौन गुजर गया ?
कहां से गुजर गया ?
हम तो सब इस प्रकार रोज कहते हैं अपने जीवन में सुनते हैं अमुक चल बसा। इसके लिए आज तक जीवन- मृत्यु के सत्य को ठीक से इसलिए नहीं समझा गया कि विज्ञान में प्रत्यक्ष प्रमाण के आधार पर निष्कर्ष निकालने का प्रयास किया है। संसार में सब कुछ प्रत्यक्ष ही नहीं है अप्रत्यक्ष भी सृष्टि का अंग है बल्कि यह कहना चाहिए कि महत्वपूर्ण अंग है ।
ऊपर जो 24 अवयव वर्णित या उल्लेखित किए गए हैं उनमें से पांच स्थूल भूत को छोड़कर सभी अदृश्य हैं, अप्रत्यक्ष हैं। इन सभी का स्थूल से अधिक महत्व है।
सृष्टि प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोनों शक्तियों से निर्मित है। जो प्रत्यक्ष है उसे अणु कहते हैं । जो अप्रत्यक्ष है उसे विभु कहते हैं । सृष्टि के सुचारू रूप से संचालन के लिए ये दोनों महत्वपूर्ण हैं । जैसे शरीर अणुओं से निर्मित है तो प्राण विभु है ।
इसलिए प्राण तत्व को समझना विज्ञान की समझ से बाहर है । यही कारण है कि विज्ञान अभी तक जन्म और मृत्यु को नहीं समझ पाया है। विभु की व्यापकता आज के भौतिक विज्ञान की समझ से बाहर है। सचमुच यह आध्यात्मिक विज्ञान का ही विषय है जिस के रहस्य को यह भौतिक विज्ञान समझ नहीं पाएगा। इसलिए भौतिक विज्ञान की शरण में न जाकर आध्यात्मिक विज्ञान की शरण में चलो , वहीं आनंद मिलेगा।
जीवन और मृत्यु के रहस्यों को केवल आध्यात्म ही उद्घाटित कर सकता है। विज्ञान कहता है दो में से दो घटा देने पर शून्य बचता है। यह विज्ञान का सामान्य नियम है ।
ईशावास्योपनिषद के ऋषि का कहना है कि जो पूर्ण है उससे चाहे जितना निकाल लो तो वह पूर्ण ही बचेगा । जैसे शून्यसे जितना भी निकालो शून्य ही बचेगा ।इसलिए विज्ञान व अध्यात्म में भारी अंतर है। विज्ञान की भाषा में ब्रह्मांड को तत्व कहते हैं। अध्यात्म इसे प्राण ऊर्जा कहता है।
यह प्राण ऊर्जा ब्रह्मांड में व्याप्त है। मनुष्य के शरीर में जब पांच तत्व पृथ्वी, जल, आकाश ,अग्नि और वायु समतुल्य मात्रा में एकत्र होते हैं तो शरीर बन जाता है । जीवात्मा के मिलने पर कार्य करने में सक्षम हो जाता है। हमें उक्त समतुल्यता को भलीभांति से समझना होगा।
मानव शरीर में ही सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का वैभव छिपा है, जिसे पहचानना और जानना आवश्यक है। सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की चेतना और प्रारूप को पाकर भी मानव सांसारिक वाटिका में भटकता रहता है ।आकाश और घटाकाश का भेद जानते हुए भी मनुष्य ब्रह्म और काया का विमोचन नहीं कर पाता ।किनारे की खोज में लक्ष्य के भेदन में सामंजस्य स्थापित करना चाहिए।
वह बच्चा हमारे बीच आया और चला गया , लेकिन विचार मंथन का यह प्रवाह बहुत कुछ सोचने समझने के लिए कह गया । क्यों ना हम अपने जीवन को ईश्वर की कर्म फल व्यवस्था के अंतर्गत मिला एक स्वर्णिम अवसर समझें और संकल्प लें कि हम इस जीवन के प्रत्येक क्षण का पूर्ण सदुपयोग करेंगे और सार्थक जीवन जीने के लिए सदैव प्रयास करते रहेंगे।
— देवेंद्र सिंह आर्य
चेयरमैन : उगता भारत