आज आर्यकुलभूषण, क्षत्रिय कुलदीवाकर, वेदवित, वेदोक्त कर्मप्रचारक, देशरक्षक, शुर सिरताज, रघुकुलभानु, दशरथात्मज, महाराजाधिराज रामचन्द्रजी का जन्म दिवस है। सदियों से श्री राम जी का पावन चरित्र हमें प्रेरणा देता आ रहा हैं। यह कहने में हमें गर्व होता हैं की यदि मनुष्य रामचरित के अनुसार अपना जीवन व्यतीत करें तो अवश्य मुक्ति पद को प्राप्त हो जाएँ।
श्री रामचन्द्र जी का जीवनकाल देखिये। जिस प्रकार माता कौशलया राजमहल में रहकर वेद का स्वाध्याय एवं अग्निहोत्र करती थी उन्हीं वेदों के स्वाध्याय के लिए श्री राम अपने अन्य भाइयों के साथ वसिष्ठ मुनि जी के आश्रम में गए। इससे यही शिक्षा मिलती हैं की बिना वेदों के स्वाध्याय, चिंतन, मनन एवं वेद की शिक्षाओं के अनुसार जीवन यापन करने से कोई भी व्यक्ति महान नहीं बन सकता। शिक्षा काल के पश्चात ब्रह्मचर्य, विद्या एवं धर्म का प्रताप देखिये की अभी रामचन्द्र जी युवा ही थे की उनके पिता महाराज दशरथ ने उन्हें वन में राक्षसों का अंत करने के लिए ऋषि विश्वामित्र के संग भेज दिया। यह ऋषि मुनियों के प्रताप एवं तपस्या का भी प्रभाव था जो राजा लोग उनकी सेवा में सत्संग एवं जीवन निर्माण हेतु अपनी संतानों को भेजते थे।
सीता स्वयंवर में शिव धनुष के तोड़ने से न केवल श्री राम जी की शूरवीरता सिद्ध होती हैं अपितु यह भी सिद्ध होता हैं की उस काल में वधु वर का चयन पूर्ण विद्या प्राप्ति के पश्चात, माता-पिता की आज्ञा से वर के गुण, कर्म और स्वभाव देखकर करती थी। इससे न केवल वर-वधु में प्रीति रहती थी अपितु उनकी संतान भी स्वस्थ एवं शुद्ध बुद्धि वाली उत्पन्न होती थी। आज के समाज में वासना में बहकर बेमेल विवाह करने के कारण ही कमजोर संतान उत्पन्न होती हैं और गृहस्थ जीवन भी क्लेशों के रूप में व्यतीत होता हैं।
कैकयी द्वारा राजा दशरथ के साथ युद्ध में भाग लेना यह सिद्ध करता हैं कि उस काल में स्त्रियां अबला नहीं अपितु क्षत्राणी होती थी जो अपनी वीरता के प्रताप से बड़े बड़े युद्धों में भाग लेती थी। वही कैकयी जो राजा दशरथ की प्रिय स्त्री थी पर बुरे संग का प्रभाव देखिये की दासी मंथरा की बातों में बहक कर तथा पुत्र मोह में आकर उसने श्री राम जी को वनवास दिलवाया।इससे यही सिद्ध होता है कि जैसे बुरी संगत से बुद्धि नष्ट होती है वैसे ही वेद के मंत्र का सन्देश कि एक से अधिक पत्नी रखने वाला ठीक उस प्रकार से पिसता है जिस प्रकार से पत्थर के चक्की के दो पाटों में गेहूँ पिसता हैं सिद्ध होता हैं। दशरथ ने न केवल पुत्र वियोग का दुःख सहा अपितु संसार में अपयश का भागी भी इसी कारण से बना।
श्री राम जी की पितृभक्ति भी हमारे लिए आदर्श हैं। केवल राज का ही त्याग नहीं किया अपितु वनवास भी स्वीकार किया। भाई लक्ष्मण का भ्रातृ प्रेम देखिये की राज्य का सुख, माता पिता की शीतल छाया,पत्नी का संग त्याग कर केवल अपने भाई की सेवा सुश्रुता के लिए वन का आश्रय लिया और भाई भरत का भ्राति प्रेम देखिये की जिस सिंहासन के लिए भरत की माता कैकयी ने राम को वनवास दिया उसी सिंहासन का त्याग कर राम जी की चरण पादुका को प्रतीक रूप में रखकर राजमहल का त्याग कर कुटिया में रहकर 14 वर्ष त्यागी एवं तपस्वी समान जीवन व्यतीत किया। आज के समाज में दशरथ पुत्रों के समान अगर परिवार में भाइयों में प्रेम हो तो आदर्श समाज क्यों स्थापित नहीं हो सकता?
वन में प्रवास करते समय श्री राम एवं लक्ष्मण द्वारा शूर्पनखा के विवाह के प्रस्ताव को अस्वीकार करना उनके महान चरित्र के आदर्श को स्थापित करता है। एक ओर उदहारण लक्ष्मण जी के चरित्र को सुशोभित करता हैं। जब सुग्रीव ने राम जी को सीता द्वारा सर पर पहने जाने वाले आभूषण चूड़ामणि को दिखाया तब श्री राम जी लक्ष्मण से उसे पहचानने के लिए पूछा तो लक्ष्मण जी के मुख से निकले शब्द कितने प्रेरणादायक हैं। लक्ष्मण जी कहते है भ्राता जी मैं केवल माता सीता द्वारा चरणों में पहनी जाने वाली पायल को पहचानता हूँ क्यूंकि मैंने आज तक उनका मुख नहीं देखा है और मैंने केवल उनके चरण स्पर्श करते हुए उनके चरणों को देखा हैं। समाज में व्यभिचार को जड़ से समाप्त करने के लिए ऐसे महान आदर्श की अत्यंत आवश्यकता हैं।
जटायु द्वारा मित्र दशरथ की पुत्र वधु रक्षणार्थ अपने प्राण दे देना मित्रता रूपी धर्म के पालन का श्रेष्ठ उदहारण हैं। राम द्वारा अत्याचारी बाली का वध कर सुग्रीव को किष्किन्धा का राजा बनाना भी मित्र धर्म का पालन है और सुग्रीव द्वारा रावण से युद्ध में श्री राम की सहायता करना भी उसी मित्र धर्म का पालन हैं। आज समाज के सभी सदस्य एक दूसरे की सहायता मित्र भाव से करे तो सभी का कल्याण होगा। रावण वध के पश्चात विभीषण को लंका का राजा बनाना भी श्री राम के नैतिक गुणों को दर्शाता हैं की दूसरे देश पर राज्य करना उनका उद्देश्य नहीं था अपितु उसे अपना मित्र बनाना उनका उद्देश्य था।
रावण एवं विभीषण का सम्बन्ध यही दर्शाता है की जब एक घर में दो विभिन्न मत हो जाये तो उस का नाश निश्चित हैं। आपस की फुट दो भाइयों में दूरियां ही पैदा कर देती है जिसका परिणाम केवल नाश हैं। इसीलिए वेद की आज्ञा हम एक जैसा सोचे, एक साथ मिलकर चले और हमारे मन एक दूसरे के अनुकूल हो अनुकरणीय हैं।संसार में सभी प्रकार के वैमनस्य का नाश अपने मनों को के अनुकूल बनाने से हो सकता हैं।
रावण द्वारा अपनी पत्नी द्वारा रोके जाने पर भी वासना से अभिभूत होकर परस्त्री का छलपूर्वक हरण करना एवं बंधक बनाना तथा श्री राम द्वारा क्षत्रिय धर्म का पालन करते हुए उसे मार डालना यही सन्देश देता हैं की पापी, अभिमानी, छलि, व्यभिचारी, बलात्कारी का अंत सदा नाश ही होता हैं। रावण शिव का भक्त था एवं वेदों का विद्वान था मगर वेदों की आज्ञा का उल्लंघन कर उसने सीता हरण जैसा महापाप किया। रावण की बुद्धि नष्ट होने का कारण भी मांसाहार, शराब एवं परस्त्री गमन आदि दोष थे। आज के सभ्य समाज में भी यही नियम मान्य हैं जो उस काल में था। जो भी व्यक्ति इन बुरी आदतों को अपनी दिनचर्या का भाग बना लेगा उसकी बुद्धि नष्ट होने से उसका नाश निश्चित हैं।
आईये आज रामनवमी के दिवस पर हम यही प्रण लें कि श्रीराम जी द्वारा स्थापित आदर्शों का जीवन में पालन कर अपने जीवन में आध्यात्मिक उन्नति कर उसे यथार्थ सिद्ध करेंगे।