गुजरात:सूर्य उदय होना चाहता है
गांधीजी ने एक बार कहा था-‘गांधीवाद नाम की कोई वस्तु नही है और मैं अपने बाद कोई संप्रदाय छोडऩा नही चाहता। मैं किसी नये वाद, सिद्घांत या मत को चलाने का दावा नही करता। मैंने तो केवल अपने ढंग से आधारभूत सच्चाईयों को अपने नित्य प्रति के जीवन एवं समस्याओं पर लागू करने का प्रयत्न किया है….आप इसे गांधीवाद न कहें। इसमें कोई वाद नही है।’
गांधीवाद के प्रति गांधीजी के ये विचार थे। स्पष्ट है कि वे अपने पीछे कोई गांधीवाद छोडऩा नही चाहते थे, वह अपनी मान्यताओं के अनुरूप अपने जीवन के लिए तथा प्राणीमात्र के जीवन के लिए जिन आधारभूत सच्चाईयों को भारतीय संस्कृति में जीवन में जीवन खोज रहे थे, और उस पर अपना कोई दावा नही जता रहे थे। लेकिन गांधीजी ने अपने ऊपर गांधीवाद की जबरन लादी गयी चादर को जितना ही फेंकने का प्रयास किया हमने उन्हें उस चादर में उतना ही लपेटा। पीएस रमैया का कहना है-गांधीवाद नीतियों, सिद्घांतों, नियमों आदेशों और निषेधों का ही नही, अपितु जीवन का एक रास्ता है। इसके द्वारा जीवन की समस्याओं के प्रति एक नवीन दृष्टिकोण प्रतिपादन या पुरातन दृष्टिकोण की पुनव्र्याख्या करते हुए आधुनिक समस्याओं के लिए पुरातन हल प्रस्तुत किये हैं।
रमैया का यह कथन उन लाखों लोगों की मानसिकता का प्रतीक है जो गांधीवाद को गांधी पर जबरन लादे रखना चाहते हैं और समस्याओं का और सामाजिक विसंगतियों का हल केवल गांधीवाद में तलाशते हैं। पीछे जाकर वैदिक वांग्मय में उतरना ही नही चाहते। इस प्रकार पूरा देश आनंद के स्रोत से काटकर रख दिया गया है। गांधीवाद की जय में ही सब कुछ समेटकर लाने का प्रयास किया गया है। यहां तक कि गीता जिसे कि गांधीजी अपनी माता कहा करते थे और ऐसी कामधेनु माना करते थे जो कि संपूर्ण इच्छाओं की पूर्ति करती है एवं मन में आत्मविश्वास भरती है, से भी हमने प्रेरणा लेनी बंद कर दी। क्योंकि उससे हम साम्प्रदायिक कहे जा सकते हैं।
अब ढोंगी कौन हुआ? स्वयं गांधीजी का गांधीवाद। इनमें से एक ढोंगी अवश्य है, या तो गांधीजी थे जो संपूर्ण इच्छाओं और समस्याओं के समाधान के लिए गीता को अपनी माता मानते थे या वो गांधीवादी हैं जो सैक्युलरिज्म के नाम गीता को हाथ लगाना ‘पाप’ समझते हैं। वैसे हमारा मानना है कि पापियों के हाथों से गीता दूर ही रहे तो अच्छा है। सर्वधर्म समभाव का पाखण्ड रचते रचते लोग यदि अपनी चाल ही भूल जाएं तो इसे ढोंग के अतिरिक्त कुछ नही कहा जा सकता। अब दूसरा उदाहरण गांधीजी के परम शिष्य और देश के पहले प्रधानमंत्री पं.जवाहर लाल नेहरू का है। उनके नाम पर देश में विदेश नीति गढ़ी गयी। इस पर स्वयं नेहरू जी ने एक बार कहा था-हमारी विदेश नीति को नेहरू नीति कहना बिल्कुल गलत है…इसे मैंने जन्म नही दिया है। यह नीति भारत की परिस्थिति में भारत के अतीत की सोच में, भारत के संपूर्ण दृष्टिïकोण में निहित है, यह निहित है भारतीय मानस के उस अनुकूलन में जो स्वाधीनता संग्राम के दौरान हुआ था और यह आज की दुनिया के हालात में भी निहित है। इस प्रकार नेहरू जी ने भी अपने नाम से किसी विदेश नीति के चलाने की बात का विरोध किया और इसे केवल देश, काल और परिस्थिति के अनुसार और अनुकूल रखने पर बल दिया। उनका स्पष्ट मत था कि विदेश नीति के संदर्भ में अपने दिमाग को खुला रखो। लेकिन हमारी उदारता तो देखिए नेहरू जी जिस चीज से पीछा छुटा रहे थे हमने वह चीज मरे हुए सांप की तरह उन्हीं के गले में डाल दी और आज तक 14 नवंबर को हर वर्ष अपने बच्चों को भी बताते हैं कि बच्चो! नेहरू जी के गले में लटके सांप पर फूल चढ़ाओ और नेहरू जी को बताओ कि चाचा ये सांप नही है बल्कि फूलों का हार है, तुम डरो मत बल्कि हमारे साथ खुशियां मनाओ हम तुम्हारी विदेश नीति को बड़े होकर ऐसे ही जारी रखेंगे।
4 दिसंबर 1947 को नेहरूजी ने संविधान सभा में कहा था-हम चाहे किसी भी नीति का निर्धारण करें, किसी देश के विदेशी मामलों के संचालन की कला यह पता लगाने में निहित होती है कि देश के लिए सबसे लाभ कारी क्या है? हम अंतर्राष्ट्रीय सदभाव की बात कर सकते हैं और उसका वही अर्थ भी हो सकता है लेकिन अंतिम विश्लेषण में सरकार देश के भले के लिए काम करती है और कोई सरकार ऐसा कुछ करने का साहस नही कर सकती जो लंबे या छोटे समय में देश के लिए साफ तौर पर हानिकारक हो।
आज नेहरू जी के परिवार का परोक्ष शासन देश पर मनमोहन सिंह के माध्यम से है। अमेरिका के हित में अपने देश के हितों की बलि चढ़ाकर हमने नेहरूवादी विदेश नीति के माध्यम से कई बार देश का अहित किया है। यहां भी ढोंगी कौन है-नेहरू जी या कथित नेहरूवादी विदेश नीति के पैरोकार। जैसे कोई गांधीवाद नही था और ना है वैसे ही कोई नेहरूवादी विदेशनीति ना तो थी और ना है। विदेश नीति के क्षेत्र में प्रतिक्षण भूकंप के झटके आते रहते हैं, ‘रियेक्टर स्केल’ पर उन्हें समझदार लोग हर क्षण अनुभव करते हैं, इसलिए ऐसे संवेदनात्मक क्षेत्र के लिए आप किसी व्यक्ति या उसके विचार से हमेशा के लिए बांधकर नही चल सकते और यदि आप ऐसे व्यक्ति या उसके विचारों से स्वयं को बांधते हो तो इसका परिणाम मौत के अतिरिक्त और कुछ नही हो सकता। नेहरू गांधी हमें स्वतंत्र छोड़ गये लेकिन हमने अपने आप को उनसे बांध लिया। कितनी अजब बात है कि खूंटी हमें बंधन मुक्त कर रही है और हम खूंटी से चिपट लिपट रहे हैं। सचमुच हम उस देश के वासी है-जिसमें पत्थर भी पूजे जाते हैं। नेहरू जी ने राष्ट्रवाद के संदर्भ में कहा था-तार्किक दृष्टि से राष्ट्रवाद अतीत की उपलब्धियों परंपराओं और अनुभवों की सामूहिक स्मृति है। जब कभी कोई संकट आया है, राष्ट्रवादी भावना का उत्थान हुआ है और जनता ने अपनी प्राचीन परंपराओं में शक्ति व सांत्वना प्राप्त करने का प्रयास किया है। नेहरूवाद के व्याख्याकारों ने राष्ट्रवाद को देश के लिए अभिशाप सिद्घ किया है। पत्थर पूजते पूजते इनकी बुद्घि पर ही पत्थर पड़ गये। यही स्थिति इन व्याख्याकारों ने नेहरू के पंथनिरपेक्ष राज्य के संदर्भ में व्यक्त विचारों के विपरीत आचरण करके उत्पन्न की है। नेहरू जी का कहना था-हम देश में किसी साम्प्रदायिकता को सहन नही करेंगे। हम एक स्वतंत्र धर्मनिरपेक्ष राज्य का निर्माण कर रहे हैं। जिसमें प्रत्येक धर्म तथा मत को पूरी स्वतंत्रता तथा समान आदर भाव प्राप्त होगा और प्रत्येक नागरिक को समान स्वतंत्रता तथा समान अवसर की सुविधा उपलब्ध होगी। नेहरू जी का कथन इस्लामिक तुष्टिकरण और हिंदू विरोध की नकारात्मक कांग्रेसी राजनीति की भेंट चढ़ गया है। अब आइए इंदिरा जी पर। इंदिरा गांधी ने अपने प्रधानमंत्रित्व काल में बांग्लादेश को अलग राष्ट्र की मान्यता दी और उसे अपने द्वारा की गयी सैनिक कार्यवाही से पाकिस्तान की गुलामी से मुक्त कराया। तब कहा जाता है कि प्रधानमंत्री को विपक्ष के प्रमुख नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने ‘चण्डी देवी’ कहकर महिमामंडित किया था। यद्यपि अटल जी ने अपने ऐसे महिमा मण्डन को कई बार नकारा है। लेकिन हम तो उदार ठहरे ना। इसलिए इस महिमा मंडन की चादर को अटल जी पर बार बार फेंक देते हैं। वह जितना ही मना करते हैं हम इसे उतना ही प्रेम और सत्कार से उनकी ओर फेंक देते हैं।
लगता है इसमें आत्म बोध और राष्ट्रबोध का अभाव है। हम अपने आप को नही समझ पा रहे हैं। हम अपने आप पर थोपी गयी मान्यताओं का बोझा ढोने के आदी हैं, इसलिए आरोपित मान्यताओं, सिद्घांतों और वादों की समीक्षा के लिए भी सहज रूप से तैयार नही होते हैं। हम कदमताल करते रहते हैं और जब हमारा पी.टी.आई. बदलता है तो वह भी हमसे हमारी पोजीशन को ‘स्टाप’ या ‘चेंज’ नही कराता बल्कि पहले वाली कदमताल को ही और तेज करने को कह देता है। देश इसीलिए यथास्थितिवाद में उछल कूद करता रहता है और पी.टी.आई लिखते हैं कि मैंने देश को इतना आगे बढ़ा दिया। मूर्ख लोग पसीना निकाल रहे हैं और निकलवा रहे हैं लेकिन सारा पसीना और सारा पुरूषार्थ व्यर्थ जा रहा है। सारी गंगा नेहरू गांधी की जटाओं में उलझी पड़ी है, सब उधर को ही देखते हैं, कोई भी ऐसा नही है जो गंगा को जमीन पर लाने का प्रयास करें। आज कदमताल कर रहे पसीना से तर बतर देश को रोक कर नई एक्सर साइज देने की आवश्यकता है। मरे सांपों को गले से फेंक कर रूद्राक्ष की माला पहने हुए राष्ट्र चिंतन की साधना करने का समय आ गया है। गांधी नेहरू जिन चीजों के लिए स्वयं कहकर गये कि ये उनकी नही है उन्हें उनके गले से निकाल कर जबरन इन दोनों महापुरूषों को बोझ मारने से बाज आयें और इन्हें इतिहास की गोद में आराम से सोने दें। साथ ही देश काल परिस्थिति के अनुसार स्वयं व्यवस्था परिवर्तन के लिए उठ खड़े हों। बीते हुए लोगों को इतिहास काल को सौंप चुका है, वे बहुत पीछे छूट चुके हैं। अब इतिहास करवट ले रहा है-गुजरात की ओर देखो…शायद सूर्य अब वहीं से उदय होना चाहता है।
सांस्कृतिक राष्ट्रवाद भारत की पूंजी है और यही भविष्य की कुंजी भी है। यह हमारी गलत सोच है कि सांस्कृतिक राष्ट्रवाद साम्प्रदायिक लोगों को आगे बढ़ाता है। वास्तव में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद पर ऐसा आरोप लगाने वाले लोग वही हैं जो भारत में झूठी मान्यताओं को लादकर चलने में ही देश का भला देखते हैं। इन लोगों के कारण ही देश में नई नई विसंगतियों ने जन्म लिया है। अब समय आ गया है कि इन विसंगतियों को चुन चुनकर दूर किया जाए। नरेन्द्र मोदी एक नई आशा के रूप में देखे जा रहे हैं, बशर्ते कि सत्ता में आने के बाद वह भाजपा के पुराने इतिहास को न दोहराएं।
मुख्य संपादक, उगता भारत