(मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीरामचन्द्र जी के जन्मदिवस पर विशेष रूप से प्रकाशित)
प्रियांशु सेठ
रामचन्द्र जी ईश्वर के भक्त, वेदों के विद्वान्, सभी में प्रिय, सत्यवादी, कर्मशील, आदर्श, आज्ञाकारी, वचन के दृढ़ आदि सभी शस्त्र विद्याओं में निपुण व्यक्ति थें। उनके राज्य में कोई भी व्यक्ति दुःखी नहीं, कोई नारी विधवा नहीं, कहीं अकाल नहीं, कहीं चोरी, द्यूत आदि नहीं होता था। कुछ लोग रामचन्द्र जी के बारे में पूर्ण रूप से उनका व्यक्तित्त्व न जानकर और विशेष दूसरे सम्प्रदाय के लोग उनपर आक्षेप करते हैं जिसमें मुख्य यह प्रचलन में है कि रामचन्द्र जी मांस का सेवन करते थे चूंकि वाल्मीकि रामायण पढ़ने से किसी प्रकार का सन्देह नहीं रहता कि रामचन्द्र जी का व्यवहार कैसा था, वह किस जाति के थे, वह मांस का सेवन करते थे वा नहीं आदि? समस्त वेद शास्त्र के मानने वाले एक मत होकर कहते हैं कि वह सूर्यवंशी कुल में प्रसिद्ध राजर्षि थे। उनका समस्त जीवन हमें उपदेश दे रहा है कि वह आर्य जाति के शिरोमणि और वैदिक धर्म के मानने वाले वेदों के प्रकाण्ड विद्वान् और पुरुषार्थयुक्त व्यक्ति थें। उनका धर्म हमें रामायण के इस एक ही श्लोक से पूरा हो जाता है-
रक्षितास्वस्य धर्मस्य स्वजनस्य च रक्षिता।
वेद वेदांग तत्वज्ञो धनुर्वेद च निष्ठित:।। -वाल्मीकि रामायण सर्ग १/१४
अपने धर्म की रक्षा करने और प्रजा पालने में तत्पर, वेद वेदांग तत्व ज्ञाता, धनुर्वेद में निष्णात थे।
वह स्वभार्या के प्रिय, प्रजा के दुःख दूर करने वाले, भाइयों को हृदय से प्रिय, माता पिता के आज्ञाकारी पुत्र थें। वचन के दृढ़, सत्यवादी, शरीरों, राक्षसों, मांसा-हारियों के शत्रु और ऋषियों की सच्चे हृदय से सेवा में तत्पर थे। जैसा कि रामायण अयोध्याकाण्ड १८/३० में तथा कई अन्य स्थानों पर इस बात को अच्छे प्रकार प्रगट किया है। बालकाण्ड में भी लिखा है-
धर्मज्ञ: सत्यसंधश्च प्रजानां च हितेरत:।
यशस्वी ज्ञान संपन्न: शुचिर्वश्य: समाधिमान्।।१२।।
प्रजापति सम: श्रीमान्धाता रिपुनिषूदन:।
रक्षिता जीवलोकस्य धर्मस्य परिरक्षिता।।१३।।
सर्व शास्त्रार्थ तत्वज्ञ: स्मृतिमान् प्रतिभावान्।
सर्वलोक प्रियः साधुरदोनात्मा विचक्षण:।।१५।।
सर्वदाभिगत: सद्भि: समुद्रइव सिन्धुभि:।
आर्य: सर्वसमश्चैव सदैव प्रिय दर्शन:।।१६।। -बालकाण्ड १/१२,१३,१५,१६
धर्मज्ञ, सत्य प्रतिज्ञा, प्रजा हितरत, यशस्वी, ज्ञान सम्पन्न, शुचि तथा भक्ति तत्पर हैं। शरणागत रक्षक, प्रजापति समान प्रजा पालक, तेजस्वी, सर्वश्रेष्ठ गुणधारक, रिपु विनाशक, सर्व जीवों की रक्षा करने वाले, धर्म के रक्षक, सर्व शास्त्रार्थ के तत्ववेत्ता, स्मृतिमान्, प्रतिभावान् तेजस्वी, सब लोगों के प्रिय, परम साधु, प्रसन्न चित्त, महा पंडित, विद्वानों, विज्ञान वेत्ताओं तथा निर्धनों के रक्षक, विद्वानों की आदर करनेवाले जैसे समुद्र में सब नदियों की पहुंच होती है वैसे ही सज्जनों की वहां पहुंच होती है। परम श्रेष्ठ, हंस मुख, दुःख सुख के सहन कर्ता, प्रिय दर्शन, सर्व गुणयुक्त और सच्चे आर्य पुरूष थे।
आनुशंस्यतनु कोश: श्रुतंशीलं दम: शम:।
राघव शोभयन्त्येते षङ्गुणा: पुरूषर्षभम्।। -अयोध्याकाण्ड ३३/१२
अहिंसा, दया, वेदादि सकल शास्त्रों में अभ्यास, सत्य स्वभाव, इन्द्रिय दमन करना, शान्त चित्त रहना, यह छे गुण राघव (रामचन्द्र) को शोभा देते हैं।
रामचन्द्र जी ने कौशल्या माता को वचन भी दिया था कि “हे माता? मैं १४ वर्ष तक वन में मुनियों की भांति कंदमूल और फलों से अपना जीवन निर्वाह करूंगा न कि मांस से (क्योंकि वह राजसीय भोजन है)।” -अयोध्याकाण्ड सर्ग २०/२९
जब भरत जी रामचन्द्र जी से चित्रकूट में मिलने आए तब उस समय रामचन्द्र जी ने उनको अथर्व काण्ड ६ मन्त्र १ तथा मनु ७/५० आदि के अनुसार आखेट, द्यूत, मद्यपान, दुराचारादि बातों का निषेध का अनमोल उपदेश दिया हैं, यह बड़े ही मार्मिक एवं प्रशंसा के योग्य हैं।
जिसका इतना आदर्श भरा चरित्र हो भला वह महापुरुष मांस का सेवन कैसे कर सकता है? “अधजल गगरी छलकत जाए” यह कहावत इन आक्षेप करने वाले अज्ञानियों, मूर्खों पर सटीक बैठती है। वह केवल अर्थों का तोड़-मरोड़कर साधारण लोगों को मूर्ख बनाते हैं एवं अपने धर्म में उन्हें सम्मिलित करना चाहते हैं। यहां मर्यादा पुरुषोत्तम श्री रामचन्द्र पर लगे विभिन्न आक्षेपों का क्रमबद्ध खण्डन किया जा रहा है-
शंका १. रामचन्द्र जी मृग मारने के लिए गए और पीछे रावण सीता को ले गया। इससे प्रगट है कि वह हिरण मारकर अवश्य खाया करते थे।
समाधान- इस स्थान अथवा अन्य किसी स्थान पर मृग को खाने के लिए मारने का कोई वर्णन नहीं। किन्तु स्वर्णरूप हिरण देखकर सीता का मन ललचाया। वह उसके रूप पर मुग्ध हो गईं और रामचन्द्र को उसके पकड़ने के लिए प्रार्थना की। उसके हठ के कारण पहले राम पुनः लक्ष्मण दोनों गए और जब पकड़ा तो ज्ञात हुआ कि वह छल था, वास्तविक हिरण न था। मारीच नाम का एक दैत्य या असभ्य जंगली मनुष्य हिरण का स्वांग धारण कर व खाल ओढ़कर भरमाने आया था। जिससे पीछे रावण सीता को भगा ले जाने में सफल हो पाया।
शंका २. रामचन्द्र जी ने वनवास के समय सूत से कहा कि हम नहीं जानते कि अब पुनः कब सरयू के तट पर पुष्पित वन में शिकार खेलेंगे और अपने माता-पिता से मिलेंगे। -अयोध्याकाण्ड ४९/१५
समाधान- शिकार खेलना सर्वथा बुरा नहीं है और विशेष करके उस समय जब दुष्ट पशुओं, सिंह, भेड़िया आदि का मारना प्रयोजन हो।
शंका ३. सीता ने यमुना से पार उतरते समय मांस और मद्य के घड़े उसमें डालने के वचन से नदी से प्रार्थना की कि यदि मेरा पति सुखपूर्वक घर लौटे तो मैं ऐसा करूंगी।
समाधान- यह बात कई कारणों से मिथ्या ही कहलाएगी-
प्रथम कारण:- यमुना अथवा गंगा दोनों नदियां जड़ हैं। उनकी पूजा इन पदार्थों से कदापि नहीं हो सकती। इसको वह ही माने जिसको चेतन अथवा इस जड़ पूजा और नदी पूजा मानता हो अर्थात् मूर्ख।
द्वितीय कारण:- जब सीता वापिस आयीं तो यह वचन कदापि पूर्ण नहीं किया गया। इसलिए भी मिथ्या है कि किसी मद्यमांस के आसक्त वाममार्गी ने यह लोक डाल दिये हैं। वास्तव में यह कोई घटना है ही नहीं केवल कल्पित कहानियां मिला दी गयी हैं।
तृतीय कारण:- इस लोक में मांस शब्द नहीं है और न किसी पशु के मारने का उल्लेख है किन्तु लोक में तो गो सहस्रेण सुरा घट शतेन लिखा है। -अयोध्याकाण्ड ५५/१९/२०
अतः मांस का इससे कोई सम्बन्ध ही नहीं। अब शेष रह गयी सुरा की बात तो इसका खण्डन राम-लक्ष्मण के बहनों से स्वयं सिद्ध है जैसा कि एक बार सुग्रोव ने मद्य पान किया तो राम लक्ष्मण ने उसे वहां बहुत ही बुरा कहा। भरत जी ने भी स्वयं शपथों में इसका खंडन किया है। अतः यह घटना कदापि घटित नहीं हुई।
शंका ४. जब रामचन्द्र जी चित्रकूट में पहुँचे तो झोपड़ी बना कर लक्ष्मण को आज्ञा दी कि हिरण को मारकर लावे जिससे यज्ञ किया जाए। लक्ष्मण जी इस आज्ञानुसार हिरण मार कर लाये जिससे यज्ञ किया और पकाया गया। -मांस प्रचार पृष्ठ ५६
समाधान- वहां तो ऐसा नहीं इसके विरुद्ध लिखा है। हे लक्ष्मण? एक मृग पकड़ लाओ। उसको पर्णशाला (कुटिया) के द्वार पर बांधेंगे। तब वास्तव की पूजा करेंगे। क्योंकि जो लोग बहुत दिन जीना चाहते हैं उन को चाहिए कि बिना वास्तव की पूजा के उस में न रहें। -अयोध्याकाण्ड ५६/२२
हे लक्ष्मण? इससे अति शीघ्र मृग लाओ। सन्ध्या न होने पावे।
पश्चात् हे लक्ष्मण? इस मृग के खाने हेतु फल लाओ, अति शीघ्रता कीजिये क्योंकि ध्रुव मुहूर्त्त है। -अयोध्याकाण्ड ५६/२५
इस सर्ग में स्पष्ट वर्णन है कि उस स्थान पर फलमूल कंद बहुत अधिक हैं। -अयोध्याकाण्ड ५६/६-१४
नोट:- (१) उनका ऐसा करना ऋषि-मुनियों एवं सूत्रकारों के विरुद्ध है। (२) हवन की अग्नि में मांस कदापि न डालना चाहिए। आश्वलायन ऋषि कहते हैं हवन की सामग्री में मांस नहीं है।
शंका ५. रामचन्द्र जी ने बिना अपराध हिरणों और राक्षसों को क्यों मारा?
समाधान- ऐसा कदापि नहीं। किसी को अपराध के बिना नहीं मारा। स्वयं रामायण में इसका कारण भी लिखा है कि “ऋषियों ने रामचन्द्र जी को कहा कि कुछ बात बनावट की नहीं कहते। आप यहां पधारें और देखें कि महात्मा मुनियों के अस्थि-पंजर पड़े हैं जिनको राक्षसों और जंगली लोगों ने मार मार कर भक्षण कर लिया है। प्रायः जो मुनि लोग पम्पा नदी से लेकर मन्दाकिनी के तट तक के वनों में निवास कर रहे हैं और जो चित्रकूट पर्वत पर निवास करते हैं उन्हीं लोगों का नाश यह राक्षस लोग करते हैं।” अरण्यकाण्ड सर्ग ६/१६-१७
इसी लिए रामचन्द्र जी ने इन दुष्टों का मारने का संकल्प लिया।
नोट:- यह बात किसी संस्कृत ज्ञाता से छिपी नहीं है कि मृग के अर्थ समस्त वनस्थ पशु हैं केवल हिरण नहीं किन्तु सिंह, भेड़िया आदि सब इसमें शामिल हैं। रामायण में जहां राक्षसों का वर्णन लिखा है वहां यह भी स्पष्ट लिखा है कि यह मांसाहारी लोग थें।
लगभग दो तीन सौ स्थानों पर रामायण में मांसाहारी को राक्षस लिखा गया है। स्वयं रावण के सम्बन्ध में भी ऐसा लिखा है। -(देखिए युद्धकाण्ड)
उपरोक्त प्रमाणों के आधार पर यह स्पष्ट है कि रामचन्द्र जी मांस खाना नहीं अपितु मांस निषेध करते थे। यह विधर्मी केवल हमारे महापुरुषों पर तरह-तरह के कल्पित आक्षेप कर अपने धर्म का प्रचार करते हैं।
आइये आज रामनवमी के दिवस पर हम मर्यादा पुरुषोत्तम श्री रामचन्द्र जी को अपना आदर्श मानते हुए यह संकल्प लें कि हम भी उनके जैसा श्रेष्ठ बनने का प्रयत्न करेंगे, कभी भी अपने जीवन में चोरी, छल, ईर्ष्या, मांस-मंदिर का सेवन, द्यूत (जुआ) आदि कुकर्मों का साथ छोड़ सन्मार्ग की ओर बढ़ेंगे एवं अन्यों को भी इसी पथ पर चलने की ओर प्रेरित करेंगे।
आज्ञाकारी, स्थितप्रज्ञ, सत्यवादी, आर्यश्रेष्ठ, “मर्यादा पुरुषोत्तम श्री रामचंद्र जी” के जन्मदिवस पर हार्दिक शुभकामनाएं!