गुर्जर प्रतिहार शासकों और आर्य संस्कृति के बारे में विद्वानों के मत ,भाग — 1

मुस्लिम आक्रमणकारियों ने भारत के धर्म व संस्कृति को नष्ट करने और यहाँ पर अपनी इस्लामिक संस्कृति को थोपकर जबरन हिन्दुओं को मुस्लिम बनाने की प्रक्रिया को लागू करने के उद्देश्य से भारत पर आक्रमण करने आरम्भ किए थे । भारत पर सबसे पहला आक्रमण इस्लाम की ओर से 638 ईसवी में किया गया । सन 712 में किए गए मोहम्मद बिन कासिम के आक्रमण से पहले इस्लाम के 9 ख़लीफ़ाओं या आक्रमणकारियों ने भारत पर 15 आक्रमण किए थे , जो कि सारे के सारे असफल रहे थे। जब भारत में गुर्जर प्रतिहार शासक शासन कर रहे थे तो उन्होंने बहुत ही मजबूत इच्छाशक्ति के साथ अपने पूर्ण पराक्रम , शौर्य और वीरता का प्रदर्शन करते हुए इन विदेशी इस्लामिक आक्रमणकारियों को भारत की सीमाओं पर ही रोकने का सराहनीय कार्य किया था । इस अध्याय में हम यह बताने का प्रयास करेंगे कि इतिहासकारों की दृष्टि में गुर्जर शासकों का यह कार्य कितना प्रशंसनीय और राष्ट्रभक्ति से ओतप्रोत था ? साथ ही यह भी स्पष्ट करने का प्रयास करेंगे कि निष्पक्ष मुस्लिम विद्वान लेखकों की दृष्टि में भी भारतीय संस्कृति अर्थात आर्य संस्कृति और गुर्जर प्रतिहार शासकों का कितना सम्मान है ?

आर.डी. बनर्जी क्या कहते हैं ?

प्रतिहार , परमार , चालुक्य ,चौहान , तंवर , गहलौत आदि वंशों को पूर्ण गुर्जर तथा गहरवार , चंदेल आदि वंशों को ( गुर्जर पिता व अन्य जातियों की माताओं से उत्पन्न ) अर्द्ध गुर्जर मानने वाले प्रसिद्ध इतिहासकार श्री आर.डी. बनर्जी ने अपनी पुस्तक ‘प्रीहिस्ट्रीक, एनशिएंट एंड हिंदू इंडिया’ के ‘दी ओरिजिन ऑफ दी राजपूतस एंड द राइज ऑफ़ जी गुर्जर एंपायर’ – नामक अध्याय में गुर्जर प्रतिहार सम्राटों द्वारा देश व धर्म की रक्षा में अरब आक्रमण के विरुद्ध किए गए संघर्षों का उल्लेख करते हुए लिखा है कि ‘गुर्जर प्रतिहारों ने जो नवीन हिंदुओं अर्थात राजपूतों के नेता थे , उत्तर भारत को मुसलमानों द्वारा विजय करके बर्बाद किए जाने से बचाया तथा इसी प्रकार सारी जनसंख्या को मुसलमान बनने से बचा लिया।’

इस टिप्पणी में डॉ आर.डी. बनर्जी द्वारा जो कुछ कहा गया है उसमें दो बातों पर विशेष रूप से ध्यान देने की आवश्यकता है – एक तो वह कहते हैं कि राजपूत नवीन हिंदू थे और उनके नेता गुर्जर थे । दूसरे वह हमें यह भी बताते हैं कि गुर्जरों के शौर्य और पराक्रम के कारण इस्लाम के आक्रांता उत्तर भारत में अपनी योजना में सफल नहीं हो पाए । जिसका परिणाम यह निकला कि उत्तर भारत की जनसंख्या मुसलमान होने से बच गई । जहाँ तक उनके द्वारा राजपूतों को ‘नवीन हिन्दू’ कहे जाने की बात है तो इससे राजपूतों के प्राचीन होने का भ्रम समाप्त हो जाता है और यह बात फिर पुष्ट हो जाती है कि मध्यकाल में राजपूत हमारे सभी क्षत्रिय वर्ण के लोगों का एक प्रतिनिधि शब्द बन गया था। जबकि उत्तर भारत का इस्लामीकरण न होने देने में गुर्जर शासकों के महत्वपूर्ण योगदान को श्री बनर्जी द्वारा स्पष्ट किए जाने से गुर्जर शासकों की वीरता , शौर्य और पराक्रम का हमें पता चलता है । साथ ही साथ गुर्जरों के इस महान कार्य से उनकी देशभक्ति और संस्कृति के प्रति समर्पण का भाव भी स्पष्ट होता है । जिसके चलते इस्लामिक आक्रमणकारी भारतवर्ष में भारतीय लोगों के इस्लामीकरण करने की अपनी योजना को क्रियान्वित नहीं कर सके। सचमुच गुर्जर शासकों का यह कार्य बहुत बड़ा है । जिसके लिए भारत की आने वाली पीढ़ियां भी उनकी ऋणी रहेंगी ।

डॉक्टर एल. मुखर्जी की मान्यता

डॉ. एल. मुखर्जी ने ‘भारत के इतिहास’ में लिखा है कि ”गुर्जर प्रतिहार वंश भारत का अंतिम साम्राज्यवादी हिंदू राज्य वंश था , जिसने अरब आक्रान्ताओं का डटकर मुकाबला किया और अपने जीते जी उन्हें भारत में घुसने नहीं दिया।”

डॉ. मुखर्जी की इस टिप्पणी में गुर्जरों को साम्राज्यवादी कहा गया है। यद्यपि हम गुर्जरों को साम्राज्यवादी नहीं मानते । क्योंकि गुर्जर यदि अपने साम्राज्य का विस्तार कर रहे थे तो वह अपने आर्य पूर्वजों के द्वारा शासित की गई उस भूमि को ही लेने का प्रयास कर रहे थे जो विदेशी आक्रमणकारियों ने किसी समय विशेष पर भारत से जबरन हथिया ली थी या किसी भी कारण से वह भूमि अब भारत के आर्य शासकों के अधीन न रहकर पराधीन हो गई थी। साम्राज्यवादी शासक वह होता है जो दूसरे देश पर इस उद्देश्य से आक्रमण करता है कि वह उसे लूटेगा और वहां के निवासियों के साथ अत्याचार करते हुए उनके धन को हड़पेगा , साथ ही उनकी महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार करेगा , बच्चों तथा वृद्धों का वध करेगा और उस देश पर फिर बलात अपना अधिकार कर शासन भी करेगा। भारत के किसी भी हिंदू शासक के भीतर यह दुर्गुण नहीं रहा कि वह साम्राज्यवाद की इस परिभाषा के अनुसार संसार के किसी भी क्षेत्र पर अपना अधिकार करने का प्रयास करता । इसी परम्परा को भारत ने उस समय भी निभाने का प्रयास किया जिस समय उसका विश्व साम्राज्य सिमटना आरम्भ हो गया था।

हमारी दृष्टि में साम्राज्यवादी शासक वह भी होता है जिसका आक्रमित राज्य के लोग स्वाभाविक रूप से विरोध करते हैं अर्थात जिसे आक्रमित राज्य के निवासी अपना शासक नहीं मानते । जबकि गुर्जर शासक यदि कहीं भी अपना साम्राज्य विस्तार कर रहे थे तो स्थानीय लोग उनका स्वागत इसलिए कर रहे थे कि वह मुस्लिम आक्रमणकारियों के अत्याचारों से दु:खी थे । वह नहीं चाहते थे कि उनकी पवित्र भूमि पर एक ऐसा विदेशी शासक आकर शासन करे जो उनसे साम्प्रदायिक विद्वेष रखता हो और साम्प्रदायिक आधार पर उन्हें अपनी तलवार की प्यास बुझाने का माध्यम मानवता हो । भारत के लोगों ने इस्लामिक आक्रमणकारियों से पूर्व कभी साम्प्रदायिकता को किसी शासक के द्वारा उसकी नंगी तलवार से होते जनसंहार के रूप में देखा नहीं था । इसलिए वह ऐसे ही शासक की कामना करते थे जो उनसे पुत्रवत स्नेह करता हो । स्पष्ट है कि जन अपेक्षाओं का सम्मान करते हुए यदि हमारे गुर्जर शासक या उनके पूर्ववर्ती कोई भी शासक ईरान तक शासन करते हुए गए तो वहाँ की हिंदू जनता ने उनका यह सोच कर अभिनंदन किया कि वह उनके दु:खों के हरण करने वाले के रूप में आ रहे हैं ।

आज यदि उस क्षेत्र पर रहने वाले लोगों का पूर्ण इस्लामीकरण हो गया है और उस समय के लोगों की ‘आह’ इतिहास के कूड़ेदान में दबकर रह गई है तो भी हमें वस्तुस्थिति को समझकर उस पर चिंतन , मनन ,लेखन करने की आवश्यकता है ।तभी हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि हमारे गुर्जर शासक साम्राज्यवादी थे या लोगों के लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए लड़ने वाले न्यायप्रिय शासक थे ?

इसके उपरान्त भी डॉक्टर मुखर्जी की इस बात को बहुत ही अधिक प्रमुखता मिलनी चाहिए कि गुर्जर शासकों के कारण अरब आक्रान्ताओं को भारत में प्रवेश करने का अवसर उपलब्ध नहीं हो पाया । गुर्जर शासकों के रहते हुए अरब आक्रान्ता निराश हुए ।

डॉक्टर आर. के. सिन्हा व डॉक्टर राय का मत

डॉक्टर आर.के. सिन्हा व डॉ. राय ने अपनी पुस्तक ‘हिस्ट्री ऑफ इंडिया’ में स्वीकार किया है कि अब गुर्जरों की ऐतिहासिक महानता स्वयं उनके अपने शिलालेखों के आधार पर स्थापित हो गई है । गुर्जर प्रतिहारों द्वारा अरब आक्रांताओं के विरुद्ध देश – धर्म की रक्षा में निरन्तर 250 वर्ष तक लड़े गए सफल युद्धों का उल्लेख करके उसी पुस्तक में डॉक्टर सिन्हा व डॉक्टर राय ने आगे लिखा है कि गुर्जर प्रतिहार सम्राट शक्तिशाली अरब आक्रमणकारियों को 250 वर्ष तक के निरन्तर युद्ध में पराजित करने में सफल न होते तो प्राचीन भारतीय संस्कृति मिट जाती अर्थात मिश्र तथा बेबीलोन आदि की प्राचीन संस्कृतियों की भांति भारत की संस्कृति भी मृतप्राय हो जाती।’

निश्चय ही डॉक्टर सिन्हा व डॉक्टर राय की उपरोक्त सम्मति भी गुर्जर प्रतिहार शासकों की महानता और उनकी देशभक्ति को ही इंगित करती है। सचमुच किसी देश के इतिहास में 250 वर्ष का कालखंड बहुत बड़ा होता है। विशेष रुप से तब जब विदेशी आक्रमणकारी निरन्तर किसी देश को और उस देश की संस्कृति को मिटाने के लिए पल-पल संघर्ष करते रहे हों या प्रयास करते रहे हों । ऐसे में अपने आपको पल-पल देशहित के लिए समर्पित किये रखना भी किसी जाति या शासक वर्ग के लिए बहुत बड़ी बात होती है । इस दृष्टिकोण से गुर्जर प्रतिहार शासकों का भारतीय संस्कृति , सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और धर्म को बचाए रखने में योगदान निश्चय ही अतुलनीय है।

डॉ. ए.सी. बनर्जी का मत

डॉ. ए.सी. बनर्जी ने अपनी ‘हिस्ट्री ऑफ इंडिया’ नामक पुस्तक में अरब आक्रमणकारियों के भारत विजय करने में असफल रहने का कारण बताते हुए लिखा है कि- ‘निरन्तर आक्रमणों के बावजूद अरब लोग भारत में विजय करने में इसलिए असफल रहे कि गुर्जर प्रतिहार राजपूत उनसे अत्यधिक शक्तिशाली थे।’

वास्तव में यह सत्य है कि सत्य तभी जीतता है जब उसके पीछे शक्ति होती है । यही कारण है कि वीर सावरकर जी जहां ‘सत्यमेव जयते’ को सही मानते थे वहीं ‘शस्त्रमेव जयते’ की बात भी करते थे । गांधीजी की कांग्रेस को ‘सत्यमेव जयते’ का नारा देने वाले पंडित मदनमोहन मालवीय थे जो हिंदू महासभा के नेता थे , परंतु हिंदू महासभा के नेता वीर सावरकर ने ही गांधीजी और उनके साथियों को इस बात के लिए भी प्रेरित किया कि ‘सत्यमेव जयते’ तभी सफल होगा जब ‘शस्त्रमेव जयते’ की परम्परा में विश्वास रखोगे । यह सौभाग्य की बात है कि हम जिस गुर्जर प्रतिहार वंश के शासन काल के बारे में इस समय चर्चा कर रहे हैं उस समय हमारे राष्ट्रीय नेता अर्थात प्रतिहार वंश के शासक ‘सत्यमेव जयते’ के लिए ‘शस्त्रमेव जयते’ को आवश्यक मान रहे थे और उसी के अनुसार अपने राष्ट्र धर्म का निर्वाह कर रहे थे। यही कारण रहा कि उन्होंने जहां देश की एकता और अखंडता को बचाए रखने में सफलता प्राप्त की , वहीं विदेशी आक्रमणकारियों को देश की सीमाओं से बाहर ही रोक दिया । उन्हें भारत की सीमाओं में प्रवेश करने का साहस नहीं हुआ।

डॉक्टर के.एम. पणिक्कर की मान्यता

डॉक्टर के.एम. पणिक्कर ने अपने ‘भारत का इतिहास’ में अरब आक्रमणकारियों के विरुद्ध गुर्जर प्रतिहारों के संघर्ष का उल्लेख करते हुए लिखा है कि गुर्जर प्रतिहारों ने अरब आक्रमणकारियों के समय देश का नेतृत्व संभालकर अरब आक्रमणकारियों से उसके धर्म व संस्कृति की रक्षा का जो कार्य किया उसके लिए भी राष्ट्र की ओर से वे धन्यवाद के पात्र हैं।’

यदि गुर्जर प्रतिहार वंश के शासक उस समय अपने इस राष्ट्रधर्म का निर्वहन नहीं करते तो यह निश्चित रूप से जाना जा सकता है कि आज का भारत हमें कहीं मानचित्र में दिखाई नहीं देता । इसके कितने टुकड़े होते और इसका क्या नाम होता ? – इसकी अब कल्पना भी नहीं की जा सकती । क्योंकि इस्लाम अपनी जिस सोच के आधार पर बढ़ता रहा है उसका अन्तिम परिणाम देशों का विभाजन कर वहाँ पर अपनी शरीयत को लागू करना ही रहा है । आज विश्व भर में जितने भी इस्लामिक देश हैं उन सबके मूल में वहाँ की हँसती खेलती सभ्यता को उजाड़ने का खूनी खेल दिखाई देता है । इस खूनी खेल को भारत में हम केवल गुर्जर प्रतिहार वंश की गौरवपूर्ण उपस्थिति के कारण ही रोकने में सफल हुए थे।

डॉक्टर सत्यकेतु विद्यालंकार का मत

डॉक्टर सत्यकेतु विद्यालंकार ने अपनी पुस्तक ‘भारतवर्ष का इतिहास’ में अरब आक्रमणकारियों का उल्लेख करते हुए लिखा है कि ‘अरबों के प्रसार को रोकने के लिए गुर्जर सेनाओं की अजेय दीवार खड़ी

थी।’

इस पर हम आगे स्थाई स्थान प्रकाश डालेंगे कि किस प्रकार गुर्जर प्रतिहार वंश के महान प्रतापी शासक गुर्जर सम्राट मिहिर भोज के पास 36 लाख की सेना थी । जिसका इस्लामिक जगत में बहुत भारी आतंक था । सम्राट मिहिर भोज और उसकी सेना से घबराकर अरब के बड़े-बड़े लुटेरे और डाकू स्वभाव के नेता भारत की ओर कदम रखने से भी घबराते थे।

डॉ रतीभान सिंह नागर का मत

डॉ रतीभान सिंह नागर ने गुर्जर जाति को राजपूतों की उच्च शाखा तथा प्रतिहार व चालूक्य आदि वंशों को उसके उप शाखाएं माना है । उन्होंने ‘हिंदू रतन’ नामक अपनी पुस्तक में लिखा है कि ‘गुर्जरों ने और अरब आक्रमणकारियों के प्रसार को रोककर वस्तुतः देश के प्रतिहारी अर्थात द्वार रक्षक का कार्य किया था।’

‘यूनियनपीडिया’ की मान्यता

‘यूनियनपीडिया’ के अनुसार प्रतिहार वंश मध्यकाल के दौरान मध्य-उत्तर भारत के एक बड़े हिस्से में राज्य करने वाला राजवंश था, जिसकी स्थापना नागभट्ट नामक एक सामन्त ने 725 ई॰ में की थी। इस राजवंश के लोग स्वयं को राम के अनुज लक्ष्मण के वंशज मानते थे, जिसने अपने भाई राम को एक विशेष अवसर पर प्रतिहार की भाँति सेवा की। इस राजवंश की उत्पत्ति, प्राचीन कालीन ग्वालियर प्रशस्ति अभिलेख से ज्ञात होती है। अपने स्वर्णकाल में साम्राज्य पश्चिम में सतलुज नदी से उत्तर में हिमालय की तराई और पूर्व में बंगाल असम से दक्षिण में सौराष्ट्र और नर्मदा नदी तक फैला हुआ था। सम्राट मिहिर भोज, इस राजवंश के सबसे प्रतापी और महान राजा थे। अरब लेखकों ने मिहिरभोज के काल को सम्पन्न काल बताया है। इतिहासकारों का मानना है कि गुर्जर प्रतिहार राजवंश ने भारत को अरब हमलों से लगभग 300 वर्षों तक बचाये रखा था, इसलिए गुर्जर प्रतिहार (रक्षक) नाम पड़ा। गुर्जर प्रतिहारों ने उत्तर भारत में जो साम्राज्य बनाया, वह विस्तार में हर्षवर्धन के साम्राज्य से भी बड़ा और अधिक संगठित था। देश का राजनैतिक एकीकरण करके, शांति, समृद्धि और संस्कृति, साहित्य और कला आदि में वृद्धि तथा प्रगति का वातावरण तैयार करने का श्रेय प्रतिहारों को ही जाता है। गुर्जर प्रतिहारकालीन मन्दिरों की विशेषता और मूर्तियों की कारीगरी से उस समय की प्रतिहार शैली की संपन्नता का हमें बोध होता है। ‘

डॉ राकेश कुमार आर्य , संपादक : उगता भारत

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