डॉ. राकेश राणा
वास्तव में स्वास्थ्य एक संतुलित जीवन पद्धति का नाम है। स्वास्थ्य की भारतीय अवधारणा के केन्द्र में संतुलन ही प्रमुख है। मानव शरीर में वात, कफ और पित्त का संतुलन ही स्वास्थ्य का आधार माना जाता है। शरीर में किसी प्रकार का असंतुलन होना ही रुग्ण होना है। एक स्वस्थ व्यक्ति के लिए शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक सभी पहलुओं का स्वास्थ्य की दृष्टि से संतुलित होना आवश्यक है। प्रकृति इसका संचालन स्वतः करती रहती है। जिन चीजों का उपचार मानवीय क्षमताओं की समझ से बाहर है, उन्हें प्राकृतिक ढंग से हमारा शरीर स्वतः साधता रहता है। जिसे हम शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता कहते हैं, वह यही है। जैसा कोरोना वाइरस के संक्रमण में फिलहाल देखने को मिल रहा है कि कोई उपचार नहीं है। बस वे ही व्यक्ति इस संक्रमण के खिलाफ जंग जीत पाने में सफल हो पा रहे हैं जिनकी रोग प्रतिरोधक क्षमता अच्छी है। बहुत से शारीरिक रोगों को हमारी यह आंतरिक शक्ति ही ठीक करती रहती है, जिसे इमयुनिटी सिस्टम कहते हैं। मनुष्य की रोग प्रतिरोधक क्षमता का निर्माण उसकी जीवन शैली पर निर्भर करता है। व्यक्ति के शारीरिक और मानसिक विकास में जीवन शैली ही वह केन्द्रीय अभ्यास है जिसपर सबकुछ निर्भर करता है।
व्यक्ति शारीरिक स्वास्थ्य के साथ-साथ मानसिक स्वास्थ्य के प्रति कितना जागरूक है, इसपर भी शरीर की आंतरिक क्षमता का विकास निर्भर करता है। इसीलिए भारतीय जीवन पद्धति के केन्द्र में योग शामिल रहा है। हमारे पुरखों द्वारा योग का जीवन के साथ जोड़ना उनकी इसी दूरदृष्टि को बताता है कि यह जीवन शैली का हिस्सा बना रहे और हमारा समाज स्वस्थ्य रहे। हमारी जीवन शैली ही हमारे स्वास्थ्य की धुरी है। हमारा तन-मन दोनों स्वस्थ रहे, यह इसी पर निर्भर करता है कि हम अपना दैनंदिन जीवन कैसे जीते हैं। मानसिक स्वास्थ्य मनुष्य के भावनात्मक पक्ष से विशेषतः जुड़ा है, जो समाज की मनोवैज्ञानिक आवश्यकताओं की पूर्ति करता है और समाज कल्याण को महत्व देता है। स्वस्थ मानसिकता ही हमारे दैनंदिन जीवन को खुशगवार बनाती है, सुखी बनाती है। अधिकांश सामाजिक समस्यायें दैनिक व्यवहार में लोगों का एक-दूसरे के साथ रूढ़ बर्ताव ही पैदा करता है। एक दूसरे का ध्यान रखना, मदद करना, सकारात्मक सोच को अपनी जीवन शैली में ढालना और प्रसन्नचित्त के साथ प्रगति की दिशा में सक्रिय रहना ही हमें शांति प्रदान करता है और अनतः सुख भी।
योग का एक अहम् योगदान यह है कि यह व्यक्ति को आध्यात्मिक बनाता है। प्राचीन समय से ही योग का हमारी जीवन शैली से जुड़े रहना, हमारे अंतःकरण को निर्मल और मजबूत बनाने में सहायक रहा है। जिस कारण हमारा आध्यात्मिक विकास तो हुआ ही, इससे हमारा भावनात्मक स्वास्थ्य बेहतर बना रहा। जिसका लाभ हमें शारीरिक रूप से स्वस्थ बने रहने में मिला। भले हमारे यहां आधुनिक विज्ञान और चिकित्सा शास्त्र का उतना विकास नहीं हुआ हो, पर आध्यात्मिक अनुसंधान के क्षेत्र में हम दुनिया में बहुत आगे चले गए थे। आधुनिक सभ्यता की समस्या यही है कि उसने अंतःकरण पर अनुसंधान बंद कर दिए और बर्हिजगत के विकास में ही सारी उर्जा व क्षमताएं लगा रखी हैं। परिणाम आध्यात्मिक विकास ठहर गया और व्यक्ति रुग्ण होता गया। क्योंकि आध्यात्मिक स्वास्थ्य ही मनुष्य के शारीरिक स्वास्थ्य को आधार प्रदान करता है। जो इंसान को भावनात्मक स्वास्थ्य और सुरक्षा प्रदान कर मनुष्य को मानसिक रूप से स्वस्थ बनाता है।
स्वयं को जानने-समझने के लिए सर्वप्रथम एक शांत चित्त की जरूरत होती है, जिसके माध्यम से इंसान आत्म अवलोकन की तरफ बढ़ता है। यह प्रयास मूलतः स्वयं को निर्विचार करने की अवस्था की तरफ ले जाता है। जब मनुष्य निर्विचार होता है तो वह अपने आसपास को समग्रता में समझने में सफल रहता है। अपने वातावरण के साथ समन्वय स्थापित करने में कामयाब रहता है। यही योग की अवस्था है, जिसका निरन्तर अभ्यास हमें ध्यान में जाने की अवस्था की ओर ले जाने में मददगार बनता है। यही सबकुछ मिलकर हमें एक आध्यात्मिक दृष्टिकोण विकसित करने में सहायक होता है। भारतीय जीवन पद्धति इन्हीं सांसारिक-आध्यात्मिक अभ्यासों का अंर्तगुम्फन है।
मनुष्य का समग्र स्वास्थ्य, शरीर की स्थिति को प्रत्यक्ष रूप से दर्शाता है। स्वस्थ अवस्था में हमारी शारीरिकी संतुलित ढंग से कार्य करती रहती है। मानव शरीर अपने आप में एक पूरी व्यवस्था है। जिसमें हमारी कोशिकाएं मिलकर ऊतकों का निर्माण करती है और ये ऊतक मिलकर हमारे शारीरिक अंगों को बनाते हैं तथा विभिन्न अंग मिलकर शरीर का रूप लेते हैं। जिसे चिकित्सा शास्त्र इम्युनिटी-पावर कहता है या शरीर की प्रतिरोधक क्षमता कहता है, वह मूलतः इस पूरी शारीरिक व्यवस्था का साझा रेस्पॉन्स है। इम्युनिटी कम होने का आशय मनुष्य के बॉडी सिस्टम की प्राथमिक इकाई कोशिका के कमजोर होने या न बनने का सूचक है। जिसका अंतिम परिणाम स्वास्थ्य के गिरते स्तर के रूप में दिखायी देता है। आयुर्वेद भारतीय जीवन दर्शन का अहम हिस्सा है। जिसमें इस बात पर विशेष जोर है कि हम अपने खानपान में सभी आवश्यक तत्वों को शामिल कर अपनी जीवन शैली का हिस्सा बनाएं। जो मानव शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता का उत्तरोत्तर विकास करती हो। शाकाहारी जीवन शैली जिसमें फल, दूध और दूध के उत्पाद तथा मशालों में जीरा, धनिया, हल्दी, अदरक, मिर्च, सौफ, सौंठ, मेंथी से लेकर इलायची, लौंग, काली-मिर्च, तेज पत्ता, जावित्रीफल तक सभी कुछ शामिल है जो विशेष गुण लिए हैं। चाय भी जो हमारी जीवन शैली में बहुत बाद में जुड़ी, तुलसी और अदरक उसे औषधीय पेय बना लेने के साथ ही स्वादिष्ट भी बना देते हैं।
ये सभी चीजें अपने औषधीय गुणों के लिए जानी जाती है। जो हमारी शारिरीक क्षमता को बनाए रखकर हमें रोगमुक्त बनाए रखने में मददगार बनती हैं। सबको हमने अपने भोजन-निर्माण की प्रक्रिया का हिस्सा बनाकर अपनी जीवन शैली में शामिल कर रखा है। यह हमारे हजारों-हजार वर्षों के अनुभव और अनुसंधानों के आधार पर विकसित जीवन शैली का ही नतीजा है कि हम भारतीयों की रोग-प्रतिरोधक क्षमता मांसाहारी जीवन शैली वाले समाजों से कहीं बेहतर है।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
मुख्य संपादक, उगता भारत