देह तो मरणासन्न है
एक दिन होवै शून्य।
पाप रूलायेंगे तुम्हें,
हर्षित करेंगे पुण्य॥1256॥
व्याख्या:- हे मनुष्यों ! यह शरीर तो मरण – धर्मा है , मृत्यु से ग्रसा हुआ है। यह मरण – धर्मा शरीर उस अमृत – रूप अशरीर आत्मा का अधिष्ठान है अर्थात् उसके रहने का स्थान है । जीवात्मा तथा ब्रह्म की तात्त्विक रचना का तो कुछ पता नहीं I वह रूप अदृष्ट है, अचिन्त्य है, अव्यवहार्य है,निर्गुण है। उस रूप की तो वेद और उपनिषदों ने नेति-नेति कह कर चर्चा की है । आत्मा तो स्वभाव से ही अशरीर है,परंतु जब तक इस शरीर के साथ वह अपने को एक समझकर रहता है तब तक उसे भी सुख-दु:ख लगा ही रहता है क्योंकि सुख-दु:ख तो शरीर का ही धर्म है अर्थात् स्वभाव है। जब तक शरीर के साथ आत्मा अपनी एकता बनाये रखेगा सुख-दु:ख से नहीं छूट सकेगा किंतु अपने अशरीर रूप में आने पर इसे सुख-दु:ख छू भी नहीं सकेंगे। इसलिए हे मनुष्य ! तू अपनी आत्मा के स्वरूप को पहचान। तेरी आत्मा उस परम – ज्योति ‘ब्रह्य’ की ज्योति है – जो अजर है, अमर है, नित्य है, अनादि है । याद रखो , रूप श्रृंगार और सर्जन अपनी कहानी एक दिन चिता के किनारे छोड़कर चले जाते हैं । संसार के सारे सम्बन्धों की रति यही तक है। सोने जैसा शरीर चिता में जलकर राख की एक ढेरी मात्र रह जाता है। देखते ही देखते पानी के बुदबुदे की तरह जीवन समाप्त हो जाता है । संभवतःयह जीवन की परिभाषा उध्दृत करना भी प्रसंगानुकूल होगा। महर्षि पतंजलि योगदर्शन में जीवन की परिभाषा देते हुए कहते हैं – “आदिकाल से अनन्तकाल तक प्रवाहित होने वाली समय की धारा के एक सीमित कालखण्ड को जीवन कहते हैं। ” काश ! जीवन के इस अमूल्य कालखण्ड में मनुष्य पापों से बचें और पुण्यों का अधिक से अधिक संचय करे तो जीवन सार्थक बन जाये। विधाता के इस विधान को कभी नहीं भूलना चाहिए कि मनुष्य को उसके पाप रुलाते हैं अर्थात् कष्टकर जीवन जीने को मजबूर करते हैं और उसके पुण्य उसे हर्षित करते हैं अर्थात् आनन्दित करते हैं, सुख समृद्धि प्रदान करते हैं। प्रायः लोग ऐसा कहते हैं – “इन्सान न कुछ लेकर आया था, न कुछ लेकर जायेगा।” यह बात मिथ्या है,भ्रम है । हमेशा याद रखो, मनुष्य सांसो की गठरी लेकर आया था और कर्मों की गठरी लेकर जाएगा। अतः समय रहते हुए परलोक का ध्यान करो , अपने कर्मों की गठरी में जितना अधिक से अधिक हो सत्कर्म (पुण्य) भरो, कुकर्म (पाप) नहीं । संसार में आए हो , तो दुआएं लो , बद्दुआऍ नहीं।
प्रोफेसर विजेंद्र सिंह आर्य
संरक्षक : उगता भारत