महर्षि चरक का दृष्टांत और पर्यावरण प्रदूषण

महर्षि चरक एक दिन अपने शिष्यों के साथ रात्रि में चांदनी के प्रकाश में भ्रमण कर रहे थे । महर्षि अचानक रुक गए । शिष्यों ने गुरुजी के इस प्रकार अचानक रुक जाने का कारण पूछा तो कहने लगे कि मुझे वायु और जल का प्रदूषण बढ़ता दिखाई दे रहा है। मैं रुक इसलिए गया हूं कि जब वायु और जल का प्रदूषण बढ़ जाता है तो धरती पर विनाश के बादल मंडराने लगते हैं । मुझे लगता है कि अब महाविनाश का तांडव निकट है । मुझे आणविक अस्त्रों के प्रयोग से हंसती खेलती मानव सभ्यता नष्ट होती दिखाई दे रही है ।

महर्षि चरक यदि आज होते तो क्या कहते ? -आज तो स्थिति अत्यंत भयावह है । हमें समझना होगा कि हम कितनी भयंकर भूल कर बैठे हैं ? – वायु और जल में शुभ गंध तभी आएगी जब हर व्यक्ति जीवन और जगत के प्रति अपने कर्तव्यों को पूर्णरूपेण समझने का प्रयास करेगा ।

इसके लिए हमको सिमटती हरियाली को पुन: विस्तार देने के लिए भी कार्य करना चाहिए। ‘वृक्ष लगाओ’ अभियान के अंतर्गत ‘पर्यावरण नियंत्रक सांस्कृतिक प्रकोष्ठ’ की स्थापना राष्ट्रीय स्तर पर होनी चाहिए। इस सांस्कृतिक प्रकोष्ठ के माध्यम से हम यज्ञ पर वैज्ञानिक आविष्कार अनुसंधानादि करें। भारत की संस्कृति के वैज्ञानिक स्वरूप पर देश में स्थान-स्थान पर बड़ी-बड़ी विचार गोष्ठियों का आयोजन होना चाहिए। इन विचार गोष्ठियों के माध्यम से वेद के पर्यावरण शुद्घि संबंधी आदेशों को जनसामान्य तक पहुंचाने का और प्रचारित व प्रसारित करने का कार्य व्यापक स्तर पर होना चाहिए। हमारे विद्यालयों में छात्र-छात्राओं के मध्य भी पर्यावरण संबंधी वैदिक व्यवस्था को ले जाने की समुचित व्यवस्था सरकार की ओर से होनी चाहिए। छात्र-छात्राओं का ध्यान वैदिक संस्कृति के पर्यावरण संबंधी विचारों की ओर लाने के लिए विद्यालयों में वेद के वैज्ञानिक स्वरूप पर अलग से पाठ्यक्रम निश्चित किया जाना चाहिए।

निजी संस्कृति को अपनाने से यदि पर्यावरण संतुलन बनता है, और वायु-जल शुद्घ या पवित्र होते हैं तो उसे अपनाने में हमें देर नहीं करनी चाहिए। यह दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात भारत की सरकार का ध्यान निज संस्कृति के प्रचार-प्रसार की ओर न जाकर धर्मनिरपेक्षता के नाम पर उसे मिटाने की ओर गया है। परिणामस्वरूप जल-वायु की शुद्घि के लिए जिन राष्ट्रीय संस्कारों को लेकर हम चलते थे- वे सभी हमसे छूट गये। जिसके कारण हर व्यक्ति वायु-जल के प्रति सावधान न होकर उन्हें अशुद्घ करने पर लग गया। इस प्रवृत्ति ने हमारे राष्ट्रीय चरित्र को दूषित किया है और पर्यावरण को प्रदूषित किया है।

रोगों का हवन (धूनी) द्वारा उपचार करने की भारत की प्राचीन परम्परा रही है, जिस पर आज भारी अनुसंधान की आवश्यकता है। ऐसी कौन सी वनस्पतियां हैं जो जलाकर धूनी देने पर किसी रोगी के लिए औषधि बन जाती हैं? प्राचीनकाल में हमारे ऋषियों के पास ऐसा वैज्ञानिक दृष्टिकोण था-जिसके माध्यम से वे निरंतर औषधियों के अनुसंधान में लगे रहते थे। तब न इतने डॉक्टर होते थे और न ही इतने अस्पताल होते थे, जितने कि आज हैं। इस सबके उपरांत भी लोग स्वस्थ और निरोग रहते थे। इसका कारण यही था कि उनकी जीवनचर्या और दिनचर्या प्रकृति के अनुकूल होती थी और प्रकृति को सुरक्षित व संरक्षित रखना वे अपना राष्ट्रीय कत्र्तव्य और राष्ट्रीय संस्कार मानते थे। हमारे ऋषि वैज्ञानिकों के इस दृष्टिकोण पर आज भी व्यापक अनुसंधान किया जाना आवश्यक है।

जहां तक जल का प्रश्न है तो जल में हमारी पुरानी पीढ़ी के लोग थूकना तक अच्छा नहीं माना करते थे। उनकी जल के प्रति ऐसी निष्ठा को देखकर अंग्रेजों ने या अंग्रेजी पढ़े लिखे लोगों ने उन पर हंसना आरंभ कर दिया। ये विदेशी लोग हमारे ऋषियों के वैज्ञानिक दृष्टिकोण को समझ नहीं पाये और उन्हें केवल उपहास का पात्र बनाकर भारत की सुव्यवस्थित सामाजिक व्यवस्था को पलटने में लग गये। हमारे देश के जनसाधारण ने उन विदेशी सत्ताधीशों के षडय़ंत्र को समझा और उन्होंने सामूहिक रूप से विदेशी सत्ताधीशों की शिक्षा-नीति का बहिष्कार कर दिया। यही कारण रहा कि लार्ड मैकाले ने 1835 में जब भारत की प्रचलित गुरूकुलीय शिक्षा-नीति को बदलकर उसके स्थान पर पश्चिमी शिक्षा-नीति को लागू किया, तो लोगों ने उनके स्कूलों में जाने से मना कर दिया। भारत के लोग अपनी परम्परागत गुरूकुलीय शिक्षा-पद्घति का पालन करते रहे। महर्षि दयानंद जी महाराज ने 1865 में पुन: गुरूकुलीय शिक्षा-पद्घति को अपनाने के लिए शंखनाद कर दिया। अंग्रेज 1835 से लेकर 1935 तक 35 करोड़ की भारत की जनता में से केवल तीन लाख लोगो ं को ही अपनी शिक्षा के माध्यम से शिक्षित कर पाये। सौ वर्ष में मुटठी भर लोगों को अंग्रेज अपने ढंग से शिक्षित करने में सफल हुए तो यह उनकी जीत नहीं-हार थी। परंतु स्वतंत्र होकर हमने 70 वर्ष में करोड़ों लोगों को पश्चिमी शिक्षा के माध्यम से शिक्षित कर दिया है-तो यह भी हमारी जीत नहीं-हार है।

फलस्वरूप आज जब हमने अपने ऊपर हंसने वालों की शिक्षा प्रणाली से पढ़ाकर अपने बच्चों को देख लिया है तो वे अपने ऊपर हंस नहीं रहे हैं अपितु रो रहे हैं। क्योंकि उन्होंने जल को देवता न मानकर उसे मूल्यहीन समझ लिया। जिससे उसमें जो चाहा सो फेंक दिया- मल मूत्रादि ही नहीं फेंके, हत्याएं करके मनुष्यादि भी फेंक दिये। अब जब जल सडऩे लगा है और मानव की आंतों को या भीतरी आंतों को भी सड़ाने (कैंसर के रूप में) लगा है तो ये अंग्रेजी पढ़े लिखे लोग सिर पकडक़र रो रहे हैं-उन्हें पता चल गया है कि वैदिक संस्कृति में आस्था रखने वाले लोग कितने महान थे? अब ये अंग्रेजी पढ़े लिखे लोग लौटना चाहते हैं या मिलना चाहते हैं-अपने मूल से, परंतु मिल नहीं सकते-क्योंकि बीच में अहंकार की और मजहब (इस्लाम और ईसाइयत की) की दीवार आ गयी है। हमारा मानना है कि यह दीवार कृत्रिम है-इसे गिरा दो और एक होकर एक वसुधा के लिए एक रक्षोपाय ‘यज्ञ’ की शरण में आ जाओ- कल्याण होगा। वसुधा का कल्याण करना हमारा राष्ट्रीय और मानवीय कत्र्तव्य है। इसे अपनाने में चूक करने का अभिप्राय होगा-अपने अस्तित्व को मिटाने की तैयारी करना, और हम चाहेंगे कि मानव मानव होकर ऐसी गलती नहीं करेगा। तभी ‘शुभ गंध को धारण किये हुए वायु और जल सर्वत्र ‘ उपलब्ध होंगे।

अग्निहोत्र पर वैज्ञानिकों के शोध

वायु प्रदूषण को कम करने के उद्देश्य से अग्निहोत्र पर शोध करते हुए वैज्ञानिकों और शोधकर्ताओं ने पाया कि इससे वायु प्रदूषण को कम किया जा सकता है । पुणे के फर्ग्युसन कॉलेज में रिसर्च स्कॉलर के तौर पर काम कर रहे प्रणय अभंग ने अग्निहोत्र पर कुछ प्रयोग किए हैं । इसमें उन्होंने पाया कि अग्निहोत्र से वायु, जल और मृदा प्रदूषण में कमी आई है ।

प्रणय का कहना है कि अग्निहोत्र के वायुमंडल पर असर जानने के लिए हमने तीन दिन तक सूर्योदय और सूर्यास्त पर अग्निहोत्र हवन किया । इस हवन में हमने पिरामिड आकार का पात्र लिया । इसमें हमने गाय के गोबर के कंडे और वैदिक मंत्र के साथ सूर्योदय और सूर्यास्त के तय समय पर गाय के घी और चावल के साथ आहुति दी ।

हमने अग्निहोत्र के धुंए का असर जानने के लिए तीन चरणों में टेस्ट किए. इसमें पहला चरण अग्निहोत्र के पहले, दूसरा चरण अग्निहोत्र करते वक्त और तीसरा चरण अग्निहोत्र के बाद था. इसके लिए Nutrient Agar Plates प्रयोग की ।हमने देखा कि अग्निहोत्र करने के बाद घर के आसपास विद्यमान हवा में 80 से 90 प्रतिशत सूक्ष्म जीव कम हुए हैं ।

अग्निहोत्र हवन से एयर पॉल्यूटेंट्स में भी कमी आते हुए देखा गया । प्रणय बताते हैं कि हमने अग्निहोत्र से वायु प्रदूषण कम होने के दावों की सच्चाई जानने के लिए हैंडी एयर सैंपलर की सहायता ली । इसमें यह सामने आया कि अग्निहोत्र करने से प्राइमरी एयर पॉल्यूटेंट्स ऑक्साइड्स ऑफ़ नाइट्रोजन और ऑक्साइड्स ऑफ़ सल्फर में कमी आई है । प्रणय का मानना है कि यदि बड़े पैमाने पर अग्निहोत्र किया जाए तो वायु प्रदूषण कम किया जा सकता है ।

1984 में हुए भोपाल गैस कांड के वक्त अग्निहोत्र के कई चमत्कारी असर दिखाए दिए थे. गैस लीक की वजह से भोपाल में लोगों की मौतें हो रहीं थी । ठीक उसी समय एक कुशवाहा परिवार ने अग्निहोत्र हवन किया । इससे कुछ ही मिनटों के भीतर कुशवाहा के घर से मिथाइल आइसो साइनाइड गैस का प्रभाव कम हो गया ।भोपाल गैस कांड के वक्त अग्निहोत्र करने वाले कुशवाहा परिवार के सदस्य प्रसाद बताते हैं कि अग्निहोत्र करते ही अग्निहोत्र से निकलने वाले धुएं ने एक कवर बना दिया जिस कारण मिथाइल आइसो साइनाइड गैस का असर नहीं हुआ । आज भी हमारे घर के सदस्य स्वस्थ हैं ।

अग्निहोत्र हवन करने के बाद जो राख बचती है उससे कई दवाइयां भी तैयार की जाती हैं । इसके अतिरिक्त खेतों में भी जैविक खेती में इस राख का प्रयोग किया जाता है । जानकार बताते हैं कि अग्निहोत्र की राख से मंजन, आईड्रॉप समेत कई दवाइयां बनती हैं । वहीं, गाय के गोबर और गोमूत्र के द्वारा खाद भी अग्निहोत्र की राख से तैयार की जाती है ।

डॉ राकेश कुमार आर्य

संपादक : उगता भारत

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