वर्तमान सृष्टि संवत 1, 96, 08, 53, 113 का अंतिम पर्व होली देशवासियों के लिए मंगलमय हो। होली का ये पावन पर्व प्राचीन काल में नवान्नेष्टि पर्व के नाम से मनाया जाता था। नवान्नेष्टि की संधि विच्छेद करने से नव+अन्न+इष्टि ये तीन शब्द हमें प्राप्त होते हैं। इनका अभिप्राय है कि यह पर्व नये अन्न का यज्ञ है। जब इस पर्व को यज्ञ के साथ इस रूप में मनाते हैं तो इसकी पवित्रता और पावनता और भी अधिक बढ़ जाती है। हमारी सारी संस्कृति का मूल यज्ञ और यज्ञोमयी जीवन है। इसी यज्ञोमयी पवित्र जीवन व्यवहार को आर्यत्व या हिंदुत्व कहा जाता है।
नवान्नेष्टि पर्व प्राचीन काल से ही वर्ष का अंतिम पर्व होता आया है। इसलिए इस पर्व पर लोग विशाल-2 सामूहिक यज्ञों का आयोजन किया करते थे। सामूहिक यज्ञों का आयोजन इसलिए करते थे कि वर्ष भर के किसी मनोमालिन्य को भी उस यज्ञ पर समाप्त किया जाता था और साफ दिल से एक दूसरे को गले लगाकर नये वर्ष को नये हर्ष के साथ मनाने का संकल्प लिया जाता था। गले मिलने या गले लगाने का अर्थ यही है। ऐसी भावनाओं को और भी पवित्रता एवं ऊंचाई देने के लिए लोग गांव के किसी सार्वजनिक स्थल पर सायंकाल चंद्रोदय होने पर यज्ञ करते थे, जिसमें हर व्यक्ति अपने घर से कुछ न कुछ सामग्री लाकर डालता था। वह यज्ञ सबका होता था और सृष्टि कल्याण के लिए हर गृहस्थी अपने घर से कुछ न कुछ उस यज्ञ में लाकर डालने को अपना सौभाग्य मानता था। फिर अगले दिन सारे गांव या नगर के लोग एक दूसरे के घर जाकर प्रेम से प्राकृतिक रंगों को बिखेरते थे और गले मिलते थे। जिससे ईष्र्याभाव समाप्त होकर समाज में प्रेम की गंगा बह चलती थी। कहीं न शराब चलती थी, न भौण्डे गाने चलते थे और ना ही अश्लील हरकतें करके लोग अपना फूहड़पन प्रदर्शित करते थे। सारा कुछ गरिमामयी ढंग से संपन्न होता था। इस पर्व पर नया अन्न तैयार हो जाता है और नये कच्चे अन्न की बालों को भूनकर खाने से कफ-पित्त (जो इन दिनों में ज्यादा बढ़े होते हैं) जैसे रोग शांत होते हैं। चरकऋषि ने इस प्रकार के कच्चे अन्न को भूनकर खाने को ‘होलक’ कहा है। देहात में इसे आजकल ‘होला’ कहा जाता है। इस होलक से होलिका और होला से होली शब्द बन गया और इस पर्व का वास्तविक नाम नवान्नेष्टि पर्व कहीं हमसे पीछे छूट गया। फलस्वरूप इसकी वास्तविक भावना से हम दूर होते चले गये। इसलिए इस पर्व के साथ हिरण्यकश्यप और उसकी बहन होलिका की सी अवैज्ञानिक और तर्कहीन कथाओं को भी लाकर जोड़ा गया। जिसने हमें सद परंपरा से काटकर कुपंरपरा से जोड़ दिया।
महाभारत के पश्चात आर्यावत्र्त कालीन भारत शीघ्रता से सिमटना आरंभ हुआ। फलस्वरूप विदेशों में नये नये शासन, शासक देश और राष्ट्रो का उदय हुआ। नये नये मत पंथ और संप्रदाय चले। इसलिए पश्चिमी जगत के विचारक और इतिहासकर दुनिया के इतिहास को पिछले पांच हजार वर्ष में बलात घुसेडऩे का या समाहित करने का प्रयास करते हैं। कारण यही है कि उनका अपना इतिहास इससे पूर्व का है ही नहीं। सारे संसार के देशों के सामने अपनी पहचान का संकट उसी प्रकार है जिस प्रकार हाल के इतिहास में अपना अलग साम्प्रदायिक अस्तित्व बनाकर चले पाकिस्तान के आगे है। जैसे इस देश के पास ना तो अपना इतिहास है और ना भूगोल है वैसे ही संसार के अन्य बहुत से देशों की स्थिति है। जिन्होंने अपने कपड़े (सम्प्रदाय=मजहब) तो बदल लिये परंतु आत्मा (धर्म) को नही बदल पाए। हां, आत्मा को मलीन अवश्य कर लिया। अत: ऐसी परिस्थितियों में भारतीय धर्म और संस्कृति का संकुचन होने लगा और हमारी कई परंपराएं और मान्यताएं कहीं बाहर वैसे ही छूट गयीं जैसे एक नदी अपना प्रवाह बदलने पर गहरी गहरी खाईयों को छोड़ देती है और बाद में ये खाई पोखर या जोहड़ के रूप में लोगों की मान्यता प्राप्त कर लेती हैं। बिल्कुल यही हमारे साथ हुआ। हमारे आलस्य और प्रमाद से आर्यावत्र्त घटते-2 आज का भारत रह गया। पर कई चीजें बाहर पड़ीं रह गयीं। जो आज भी भारत के विश्व साम्राज्य के दिनों की याद दिलाती हैं। भारत के पड़ोसी देशों-नेपाल, पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका, वर्मा और लघु भारत के नाम से विख्यात मॉरीशस में ये पर्व भारतीय परंपरा के अनुसार ही मनाया जाता है। जबकि फ्रांस में यह पर्व प्रतिवर्ष 19 मार्च को डिबोडिबी के नाम से मिस्र में जंगल में आग जलाकर, थाईलैंड में सौंगक्रान नामक पर्व पर वृद्घजन इत्र मिला जल डालकर महिलाओं व बच्चों को आशीर्वाद देते हैं (ये प्राचीन भारतीय परंपरा के सर्वाधिक अनुकूल है।) जर्मनी में ईस्टर पर घास का पुतला जलाकर (वही सामूहिक यज्ञ करने की भावना की प्रतीक) तथा अफ्रीका में ओमनावेगा नामक पर्व को होली के रूप में मनाया जाता है। इसी प्रकार पोलैंड में आर्सिना पर्व पर लोग एक दूसरे पर रंग व गुलाल डालते हैं, अमेरिका में मेडफो नामक पर्व पर लोग गोबर व कीचड़ के गोले बनाकर एक दूसरे पर फेंकते हैं, हालैंड में कार्निवल होली के रंगों से सबको मस्त कर देता है। जबकि इटली में रेडिका त्यौहार इसी प्रकार बनाया जाता है, तो रोम में इसे सैंटरनेविका और यूनान में मेपाल कहा जाता है। जापान में रेमोजी ओकुरिबी नामक पर्व पर आग जलाकर इस पर्व को जीवंत बनाया जाता है।
इस प्रकार पूरा विश्व ही होली को किसी न किसी रूप में मनाता है। भारत अपने इस पर्व की ऐतिहासिकता, प्राचीनता, पावनता और वैज्ञानिकता को विश्व के समक्ष सही स्वरूप में स्थापित करने में असफल रहा है। यहां मान्यताएं आयातित करने की आत्मघाती सोच विकसित हुई है और निर्यात पर पूरी तरह प्रतिबंध लगाकर चलने की सोच बनी है। इसलिए हमारे प्रत्येक पर्व की प्रमाणिकता और पावनता को रूढिगत और अवैज्ञानिकता का पुट दे दिया गया है। जो लोग इस रूढिग़त अवैज्ञानिकता के पुट को समाप्त करना चाहते हैं उन्हें उग्र राष्ट्रवादी कहकर उपेक्षित किया जाता है। क्या ही अच्छा हो कि हम अब भी सचेत हों और कहें कि जो होनी थी सो ‘होली’, अब ना होने देंगे। इस पर्व का वास्तविक और वैज्ञानिक भाव भी यही है। आओ इसे इसी भाव से मनाते हैं।
लेखक उगता भारत समाचार पत्र के चेयरमैन हैं।