भारत ने ब्रह्मबल और क्षत्रबल दोनों को संयुक्त कर एक अद्भुत व्यवस्था संसार को दी । ब्रह्मबल अपने बौद्धिक मार्गदर्शन से राजा को शासित और अनुशासित रखने का काम करता था । किसी भी प्रकार की विषम परिस्थिति में राजा के दिग्भ्रमित होने की स्थिति में ब्रह्मबल से संपन्न पुरोहित उसे न्याय के लिए प्रेरित करता था कि इन परिस्थितियों में न्याय पूर्ण आचरण क्या होगा ? राजा फिर उसी के अनुसार कार्य करता था । ब्राह्मण कभी अन्यायपरक परामर्श नहीं देता था और राजा कभी भी ब्राह्मण के न्यायपूर्ण परामर्श को टालता नहीं था । यह हमारी एक अटूट अलिखित संवैधानिक परम्परा थी। जब तक ब्राह्मण और क्षत्रिय दोनों अपनी-अपनी भूमिकाओं में रहकर न्याय पूर्ण कार्य करते रहे तब तक भारत की शासन व्यवस्था और सामाजिक व्यवस्था दोनों ही बहुत अच्छे ढंग से चलती रहीं ।
इसी व्यवस्था की ओर संकेत करते हुए वेद का यह मंत्र हमें बताता है कि किस प्रकार हमने इस व्यवस्था का समन्वय कर अपने आपको संसार के लिए अप्रतिम , अनुकरणीय और एक उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया था :–
यत्र ब्रह्म च क्षत्रं च सम्यञ्चौ चरतः सह ।
तं लोकं पुण्यं प्रज्ञेषं यत्र देवा: सहाग्निना ।। यजुर्वेद 20/25
भावार्थ :– इस वेद मंत्र का अभिप्राय है कि इस धरती को दो शक्तियाँ अर्थात ब्राह्मण और क्षत्रिय मिलकर यदि चलेंगी तो पुण्य सृजन होगा ही होगा। इन दोनों के संयोजन – मिलन से अध्यात्मवाद और भौतिकवाद की धारा प्रवाहित होती है जो प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में समान रूप से चलती रहे तो जीवन सुव्यवस्थित रहता है । यदि कोई सी एक कमती बढ़ती हो जाए तो जीवन का संतुलन बिगड़ जाता है।
कुछ लोगों को शंका हो सकती है कि यहाँ पर केवल ब्राह्मण और क्षत्रिय की बात की गई है तो शेष वर्णों का क्या होगा ? बात स्पष्ट है कि ब्राह्मण और क्षत्रिय शेष रहे दो वर्णों के साथ न्याय करने के लिए ही अपना समन्वय स्थापित करते थे । क्योंकि शेष रहे दोनों वर्णों को किसी प्रकार से भी शासन – व्यवस्था में हस्तक्षेप करने का अवसर ही उपलब्ध नहीं होता था । उन दोनों को न्याय मिले यही ब्राह्मण और क्षत्रिय वर्ण दोनों का उद्देश्य था।
यजुर्वेद 20/25 के अनुसार संसार में शान्ति-स्थिरता, सुख, सौभाग्य का सृजन केवल शास्त्र-शस्त्र से ही आ सकता है । केवल अहिंसा की बातों से नहीं । शस्त्र कहीं पर भी हिंसक न हो जाए , मर्यादाहीन न हो जाए , असंतुलित न हो जाए और संसार के लिए अभिशाप न बन जाए , इसलिए उसे शास्त्र अर्थात ब्राह्मण या ‘शास्त्र’ सही मार्गदर्शन करता था । इसी प्रकार शास्त्र अथवा ब्राह्मण की बात को लोग सुनना बंद कर दें या उसको अपमानित करने लगें या उसकी व्यवस्था का उपहास उड़ाने लगें , ऐसे समाजविरोधी लोगों को सही करने के लिए अर्थात धर्ममार्ग पर चलते रहने के लिए बाध्य करने हेतु ‘शस्त्र’ अपना काम करता था । इस प्रकार जैसे वन से शेर की और शेर से वन की रक्षा होती है , वैसे ही शास्त्र से शस्त्र की ओर शस्त्र से शास्त्र की रक्षा होती थी और दोनों मिलकर सारी व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाते थे।
. इस प्रकार उपरोक्त वेद मंत्र कहता है कि जिस राष्ट्र/समाज में ब्रह्म-शक्ति (ज्ञान/ब्राह्मण) और क्षत्र-शक्ति (बल/क्षत्रिय) दोनों समन्वित सुसंगठित हो, एक साथ चलती हों उसी राष्ट्र/समाज में पुण्यलोक = सुराष्ट्र व दर्शनीय जनसमाज निर्मित होता है और जहाँ विद्वान अधिकारी शासकगण अपने नायक के साथ एकमत हो व्यवहार करते हैं , वहीं स्वर्ग स्थापित होता है।
इसी बात को वेद अन्यत्र भी बहुत उत्तमता से इस प्रकार कहता है :-
इन्द्रं वर्धन्तो अप्तुरः कृण्वन्तो विश्वमार्यम् ।
अपघ्नन्तो अराव्णः ॥ ऋग्वेद 5/63/9
वेद का अभिप्राय है कि यदि समाज को आर्य बनाना है, श्रेष्ठ बनाना है तो सबसे पहले दुष्टों का नाश करो, अ-दानी लोगों का नाश हो , समाज विरोधी राष्ट्र विरोधी और सज्जन शक्ति को क्षति पहुंचाने वाले दुराचारी लोगों का नाश हो , तब ही आर्य प्रजा बच , बन व बस पायेगी और आर्यों का राज्य बन-बढ़ पायेगा ।
इस प्रकार दुष्टों का विनाश करना और सज्जनों का परित्राण करना भारत की प्राचीन परम्परा है। इसके लिए यह भी आवश्यक है कि दुष्टों का संहार करने वाली तलवार अर्थात शस्त्र पर शास्त्र की नकेल भी होनी चाहिए । किसी भी परिस्थिति में वह तानाशाही ,निरंकुश ,स्वेच्छाचारी और नरसंहार करने वाली न बन जाए , वह निहित स्वार्थ में खून खराबा करने वाली ना बन जाए – इसके लिए पीछे से ऐसी बौद्धिक शक्ति उसके साथ काम करती थी जो उसे यह बताती थी कि यह व्यक्ति दुष्ट , राक्षस या समाज विरोधी है और यह नहीं है।
इन वेद मंत्रों से यह सिद्ध होता है कि भारत की परम्पराएं बहुत पवित्र और महान हैं । इसके उपरान्त भी कुछ लोगों ने भारत में यह प्रचारित व प्रसारित कर भ्रम फैलाने का काम किया है कि यहाँ ब्राह्मण और क्षत्रियों में भी संघर्ष हुआ । उसका उदाहरण देते हुए परशुराम जी को बदनाम किया जाता है । इस घटना को महिमामंडित करने के लिए कुछ लोग प्रतिवर्ष परशुराम जी की जयंती मनाते हैं और क्षत्रिय समाज के विरुद्ध विषवमन करते हैं। लोगों को बताया जाता है कि परशुराम जी ने पृथ्वी को 21 बार क्षत्रियविहीन किया। जबकि यह घटना इस प्रकार नहीं थी । परशुराम जी ने जो कुछ भी किया था वह वैदिक परम्परा के अनुकूल किया था। उसमें दोष कुछ भी नहीं था । दोष समझाने वालों ने पैदा कर दिया है और उसे इतना विस्तार दिया जाता रहा है कि प्रत्येक वर्ष परशुराम जी की जयंती मनाकर उन्हें क्षत्रिय विरोधी सिद्ध करने का प्रयास किया जाता है । जिससे दोनों वर्णों के लोग अर्थात ब्राह्मण और क्षत्रिय एक दूसरे से दूर से होते जा रहे हैं।
धरती को क्षत्रियविहीन करने का सच क्या है ?
माना जाता है कि परशुराम ने 21 बार हैहयवंशी क्षत्रियों को समूल नष्ट किया था। क्षत्रियों का एक वर्ग है जिसे हैहयवंशी समाज कहा जाता है । इसी समाज में एक राजा हुआ था सहस्त्रार्जुन। जो कि धर्म विरोधी और अपने विरोधी आचरण के लिए उस समय प्रसिद्ध हो गया था । परशुराम ने इसी राजा और इसके पुत्र और पौत्रों का वध किया था और उन्हें इसके लिए किस राजा के परिवार या वंशजों से 21 बार युद्ध करना पड़ा था।
सहस्त्रार्जुन एक चन्द्रवंशी राजा था जिसके पूर्वज थे महिष्मन्त। महिष्मन्त ने ही नर्मदा के किनारे महिष्मती नामक नगर बसाया था। इन्हीं के कुल में आगे चलकर दुर्दुम के उपरान्त कनक के चार पुत्रों में सबसे बड़े कृतवीर्य ने महिष्मती के सिंहासन को सम्हाला। भार्गव वंशी ब्राह्मण इनके राज पुरोहित थे। भार्गव प्रमुख जमदग्नि ॠषि (परशुराम के पिता) से कृतवीर्य के मधुर सम्बन्ध थे। कृतवीर्य के पुत्र का नाम भी अर्जुन था। कृतवीर्य का पुत्र होने के कारण ही उन्हें कार्त्तवीर्यार्जुन भी कहा जाता है। कार्त्तवीर्यार्जुन ने अपनी आराधना से भगवान दत्तात्रेय को प्रसन्न किया था। भगवान दत्तात्रेय ने युद्ध के समय कार्त्तवीर्याजुन को हजार हाथों का बल प्राप्त करने का वरदान दिया था, जिसके कारण उन्हें सहस्त्रार्जुन या सहस्रबाहु कहा जाने लगा। सहस्त्रार्जुन के पराक्रम से रावण भी घबराता था। इस अतुलित बल को प्राप्त कर सहस्त्रबाहु को अहंकार हो गया।
ऋषि वशिष्ठ से शाप का भाजन बनने के कारण सहस्त्रार्जुन की मति मारी गई थी। सहस्त्रार्जुन ने परशुराम के पिता जमदग्नि के आश्रम में एक कपिला कामधेनु गाय को देखा और उसे पाने की लालसा से वह कामधेनु को बलपूर्वक आश्रम से ले गया। जब परशुराम को यह बात पता चली तो उन्होंने पिता के सम्मान के लिये कामधेनु वापस लाने की सोची और सहस्त्रार्जुन से उन्होंने युद्ध किया। युद्ध में सहस्त्रार्जुन की सभी भुजाएँ कट गईं अर्थात उसकी अनेकों शक्तियों का विनाश हो गया और वह मारा गया।
तब सहस्त्रार्जुन के पुत्रों ने प्रतिशोधवश परशुराम की अनुपस्थिति में उनके पिता जमदग्नि को मार डाला। परशुराम की माँ रेणुका पति की हत्या से विचलित होकर उनकी चिताग्नि में प्रविष्ट हो सती हो गयीं। इस घोर घटना ने परशुराम को क्रोधित कर दिया और उन्होंने संकल्प लिया-“मैं हैहय वंश के सभी क्षत्रियों का नाश करके ही दम लूँगा”। उसके बाद उन्होंने अहंकारी और दुष्ट प्रकृति के हैहयवंशी क्षत्रियों से 21 बार युद्ध किया। क्रोधाग्नि में जलते हुए परशुराम ने सर्वप्रथम हैहयवंशियों की महिष्मती नगरी पर अधिकार किया तदुपरान्त कार्त्तवीर्यार्जुन का वध। कार्त्तवीर्यार्जुन के दिवंगत होने के बाद उसके पाँच पुत्र जयध्वज, शूरसेन, शूर, वृष और कृष्ण अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ते रहे।
इस घटना से हमें पता चलता है कि परशुराम जी ने उन लोगों का विनाश करने का संकल्प लिया जो वेद विरुद्ध आचरण कर रहे थे , समाज विरोधी हो गए थे और न्यायशील , तपस्वी विद्वानों और ऋषियों को भी अपमानित करने का काम कर रहे थे । इस कार्य को करना वेद धर्म के अनुकूल है । कहा जाता है कि “वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति” अर्थात वेद की हिंसा हिंसा नहीं होती , क्योंकि वह हिंसा करने वाले को समाप्त करने के लिए की जाती है । जिस पर समाज के सभी लोगों की सहज स्वीकृति प्राप्त होती है। प्राचीन काल में भारत की ‘विधि’ यही थी। जिसे सब लोग जानते वह मानते थे। यही कारण था कि वेद विरुद्ध आचरण करने वाले और क्षत्रिय धर्म से पतित हुए हैहयवंशी शासकों का साथ उस समय के किसी भी वेदधर्मी क्षत्रिय शासक ने नहीं दिया।
इस घटना को यदि इस प्रकार बताया व समझाया जाए कि परशुराम जी के द्वारा राक्षस वृत्ति के लोगों का जब संहार किया जा रहा था तो शेष क्षत्रिय जातियों ने भी उनका इसलिए साथ दिया था कि वे भी वेद धर्म के अनुकूल व्यवस्था को बनाए रखने में विश्वास रखते थे , वह नहीं चाहते थे कि प्रजा उत्पीड़क जीवित रहे और धर्म प्रेमी , वेदप्रेमी , ब्राह्मण लोगों का या सज्जन प्रकृति के लोगों का संहार करने का काम करे – तो समाज को एक सही संदेश जाएगा कि भारतवर्ष में प्राचीन काल से ही ब्राह्मण और क्षत्रिय के संयुक्त बल से किस प्रकार पापाचारियों का संहार होता रहा है और किस प्रकार इन दोनों को मिलकर पापाचारियों का संहार करना भी होता है ?
गुर्जरों ने प्रारम्भ से ही अपनाया वैदिक संस्कृति को
गुर्जर जाति के शासकों ने प्रारम्भ से ही भारत के वेद धर्म की ऐसी परम्परा का पालन करने में अपनी शक्तियों को खपाया कि जैसे भी हो समाज से अनाचार , दुराचार और पापाचार को समाप्त किया जाए । उनके इतिहास और आचरण को समझकर व पढ़कर यह स्पष्ट हो जाता है कि उन्होंने वैदिक संस्कृति के अनुकूल ही अपना शासन किया और वैदिक सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को मजबूत करते हुए लोगों की भावनाओं का सम्मान करना अपना सर्वोपरि कर्तव्य समझा। उन्होंने भारतीय क्षत्रिय परम्परा का तो पालन किया ही साथ ही वेद धर्म की उस व्यवस्था को भी स्वीकार किया जिसके अनुसार क्षत्रियों को सज्जनों का सम्मान और समाज विरोधी लोगों का संहार करना होता है। मूल रूप से क्षत्रिय गुर्जर वंश के लोग और ब्राह्मण वर्ण के लोग क्योंकि एक ही मूल की शाखाएं हैं , इसलिए दोनों में एक दूसरे का सम्मान भाव आज भी बना हुआ है । भारत में गुर्जर लोग आज भी ब्राह्मणों को सर्वाधिक सम्मान देते हैं।
गुर्जर शासकों ने प्रारम्भ से ही उन विदेशी शासकों और आक्रामकों का विरोध किया जो भारतीय धन- सम्पदा को लूटते थे और यहाँ से हमारी धन-सम्पदा को लूटकर अपने देश ले जाते थे या अपने खजानों में भरकर उससे नई सेना तैयार कर हम पर ही हमला करते थे । गुर्जर वंश के प्रतिहार शासक क्योंकि इन विदेशी आक्रमणकारियों का सामना या विनाश करने के लिए ही अस्तित्व में आए थे या अपने इस काम को पूर्ण करने के लिए ही उन्होंने राज्य स्थापित किए थे , इसलिए उन्होंने शत्रु को शक्तिहीन करने के लिए उनकी कमजोरियों का बड़ी सूक्ष्मता से अध्ययन किया । उन्होंने पाया कि यदि इनको आर्थिक रूप से कमजोर किया जाए तो उसके आशातीत परिणाम मिल सकते हैं । गुर्जर शासकों ने अपने अध्ययन में यह भी पाया था कि यह विदेशी आक्रमणकारी अपनी सेना के लिए भारत पर नहीं बल्कि अरब या मुस्लिम बहुल क्षेत्रों पर ही निर्भर रहते थे । वहाँ से भी उन्हें वह सेना लुटेरे लोगों के रूप में प्राप्त होती थी अर्थात वह सेना वेतन न लेकर यहाँ के लूट के माल को अपना मान कर उसमें हिस्सा चाहती थी। इसका अभिप्राय था कि मुस्लिम सेना के सैनिकों में देश भक्ति या स्वामी भक्ति ना होकर अपने स्वार्थ भक्ति थी । ऐसे में यदि इन लुटेरे आक्रमणकारियों की इस लुटेरी सेना की आर्थिक सहायता काट दी जाए तो उन्हें सरलता से हराया जा सकता था या कहिए कि भारत से भगाया जा सकता था । युद्ध क्षेत्र में वही योद्धा विजयी होता है जो अपने शत्रु – पक्ष की दुर्बलता को समझकर दुर्बलता के बिंदु पर ही सबसे पहली और करारी चोट करता है ।
गुर्जर समाज ने लूट क्यों अपनायी ?
गुर्जर शासकों ने प्रारम्भ से ही विदेशी आक्रामकों की इस प्रकार की लूट को समाप्त करने और उनकी आर्थिक रीढ़ को तोड़ने के उद्देश्य से उनके खजानों को लूटना आरम्भ किया । इसके पीछे उनका उद्देश्य यही होता था कि यह खजाना हमारा अपना है और इस पर हमारा अर्थात हमारे देश का अधिकार है ।
गुर्जर योद्धाओं और उनके रणनीतिकारों की योजना थी कि जब शत्रु के पास खजाना ही नहीं होगा तो उसे सेना नहीं मिलेगी और सेना नहीं मिलेगी तो वह हम पर आक्रमण करने की सोच भी नहीं पाएगा । गुर्जरों ने 300 वर्ष तक यदि मुस्लिम शासकों को भारत पर आक्रमण करने से रोका तो उसके पीछे उनकी यही योजना कार्य करती थी कि शत्रु को साधनविहीन किया जाए। गुर्जरों के द्वारा शत्रु शासकों के खजाने को लूटने की यह रणनीति अंग्रेजों के समय तक बनी रही। यही कारण रहा कि अंग्रेजों ने इस जाति को चोर या लुटेरी जाति कह दिया । जो गुर्जर जाति देशहित में उन लुटेरों को लूटने का काम करती थी जो देश को क्षति पहुंचाते थे , उसी जाति को अपने लिए चोर या डकैत जाति होने का अपमानजनक दंश झेलना पड़ा । इतिहास बोध न होने के कारण और इतिहास में उचित स्थान न मिलने के कारण इस दंश को इस जाति के लोग आज तक चल रहे हैं।
आजकल भारतवर्ष में हम लोग एक दूसरे को अपमानित करने के लिए परस्पर करते रहते हैं। राजपूत गुर्जरों को अपमानित करने के लिए चोर कहते हैं तो ऐसा ही कोई व्यंग्य गुर्जरों की ओर से राजपूतों पर किया जाता है । ये दोनों मिलकर कभी जाट को तो कभी अहीर को , और कभी अहीर किसी कभी ठाकुर को , तो ठाकुर कभी किसी बनिए को या कभी किसी अन्य जाति के अपने भाई को कुछ न कुछ ऐसा ही कह कर या उनके प्रति अपमानजनक व्यंग्य की भाषा बोल कर उन्हें अपमानित करते हैं । इसी प्रकार शेष अन्य जातियों के लोग भी एक दूसरे में कमियां निकालने में लगे रहते हैं । इसका कारण केवल यही है कि अंग्रेजों ने हमको जातियों में बांटकर देखा और एक दूसरे के यहाँ पर कुछ ऐसे किस्से कहानियां बनाए कि जिससे हम एक दूसरे में कमी निकालते रहें । हम कभी यह नहीं सोचते कि गुर्जरों ने अपने समय में किस – किस प्रकार देश और समाज को बचाने का काम किया तो ‘राजपूतों’ ने अपने समय पर किस प्रकार बलिदान दिए ? या किस प्रकार बनिया समाज के लोगों ने देश को अनेकों अकालों से बचाने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया या अपने देश की उस सेना के लिए कब-कब अपने धन को दान कर दिया जो विदेशी आक्रमणकारियों से लड़ने के लिए निकली थी । इसी प्रकार हमारे शूद्र भाइयों ने भी किस – किस प्रकार किस- किस काल में अपने उत्कृष्ट कार्यों से देश व समाज की रक्षा की ? – यदि हम इन अच्छी बातों को संकलित करें और इन अच्छी बातों को चर्चा में लाएं तो हम जातिविहीन हिंदू समाज की ओर बढ़ सकते हैं । ध्यान रहे कि अपनी – अपनी जातियों का देश के निर्माण में या देश के इतिहास में योगदान समझना और समझाना अलग चीज है , लेकिन जातिवादी होकर एक दूसरे में कमियां निकालना सर्वथा दूसरी बात है , जो कि नहीं होनी चाहिए।
राजपूत शब्द कब से आया ?
भारतीय इतिहास में राजपूत शब्द 12 वीं शताब्दी के दौरान सुना जाना आरम्भ हुआ । यह ‘राजपूत’ शब्द किसी एक जाति विशेष के लिए न होकर सम्पूर्ण क्षत्रिय जातियों ने अपने एक संघ के रूप में अपने लिए स्वीकृत किया था। इस संबंध में ‘भारतीय संस्कृति के रक्षक’ नामक अपनी पुस्तक के पृष्ठ संख्या 33 पर रतन लाल वर्मा जी लिखते हैं :- ” तुर्कों के साथ भविष्य में होने वाले आक्रमणों का मुकाबला करने के लिए विभिन्न जातियों के लोगों ने ‘राजपूत’ नामक जातीय संघ बनाया था । क्योंकि ‘राजपूत’ शब्द से उनके राजवंशी होने का बोध होता था । मेरी पहली पुस्तक ‘गुर्जर वीरगाथा’ की भूमिका में प्रसिद्ध राजपूत विद्वान ठाकुर पी एन सिंह ने राजपूत जाति का बनना (केवल गुर्जरों से ही ) इस प्रकार लिखा है कि शासक वर्ग अर्थात गुर्जर जाति के सैनिकों व अन्य लोगों को अन्य जातियों के लोगों द्वारा आदर के लिए ‘राजपुत्र’ नाम से पुकारा जाता था तथा बाद में यह आदर सूचक शब्द जातिवाचक बन गया । जो कुछ भी हो , परंतु यह सत्य है कि गुर्जरों तथा अनेक अन्य आर्य , अनार्य, दासी पुत्र आदि से मिश्रित ‘राजपूत’ जाति 12 वीं शताब्दी के अन्त में मुसलमानों द्वारा भारत विजय के बाद बनी थी । जिसमें गुर्जर जाति के अधिकांश कुल गोत्रों के अनेक जत्थे मालवा के परमारों की भांति विद्रोही होकर और अन्य कारणों से अपनी जाति छोड़ राजपूत जाति संघ में सम्मिलित हो गए थे। वर्तमान राजपूत जाति में करीब 70% लोग गुर्जर जाति के हैं । परंतु सभी कुल गोत्रों के कुछ लोगों ने विभिन्न जातियों की मिश्रित जाति राजपूत में सम्मिलित होना पसंद नहीं किया । वह अपने गौरवशाली नाम गुर्जर को चिपटे रहे । विशेषकर विघटित गुर्जर सोलंकी साम्राज्य के अंतर्गत गुर्जरों के सभी कुल गोत्रों के जनसाधारण , सैनिक, सामंत सोलंकी सम्राट गुर्जर ही रहे और उनका प्रदेश भी गुजरात ( तत्काल गुर्जर भूमि ) रह गया । जबकि पुराने गुर्जर देश का उत्तर पूर्वी भाग जयपुर, जोधपुर, बीकानेर आदि राजपूत रियासतों के कारण तभी से राजस्थान कहलाया।”
श्री वर्मा जी के द्वारा लिखी गई यह बात बहुत पते की है । इससे भारतीय इतिहास की सही परम्पराओं का तो हमें बोध होता ही है साथ ही यह भी पता पड़ता है कि हमारे क्षत्रिय वंशी शासकों में देश धर्म के लिए एक साथ आने की उस समय कितनी ललक थी ? श्री वर्मा जी द्वारा राजपूत विद्वान लेखक के द्वारा कही गई बात से हम इसलिए सहमत हैं कि भारत में विदेशी आक्रमणकारियों का सामना करने के लिए एक बार नहीं कई बार हमारे वीर हिंदू योद्धाओं ने राष्ट्रीय सेनाओं और गठबंधनों का गठन किया था।
मेरे द्वारा छह खंडों में लिखी गयी “भारत के 1235 वर्षीय स्वाधीनता संग्राम का इतिहास ” नामक ग्रंथ माला से हमें पता चलता है कि भारतवर्ष के क्षत्रिय योद्धाओं ने अपने देश , धर्म व संस्कृति की रक्षार्थ कई बार सैनिक मोर्चा या राष्ट्रीय सेना बनाईं । ऐसे में यदि सभी क्षत्रिय जातियों ने मिलकर ‘राजपूत’ नाम से अपने आपको संबोधित करते हुए एक राष्ट्रीय मोर्चा विदेशी आक्रमणकारियों के विरुद्ध उस समय खोल लिया हो तो इसमें किसी भी प्रकार की असम्भावना का प्रश्न नहीं उठता । वैसे भी आबू पर्वत पर यज्ञ कर जब शंकराचार्य जी ने क्षत्रिय शासकों को या कुलों को अपने साथ लिया था तो उसकी अनिवार्य शर्त भी यही थी कि आप सभी मेरे साथ आकर मुझे इस बात के प्रति आश्वस्त करें कि हम देश को विदेशी आक्रमणकारियों से रक्षित करेंगे और गुलाम नहीं होने देंगे। अब जबकि 12 वीं शताब्दी के आते-आते विदेशी आक्रमणकारी भारत में कुछ क्षेत्रों पर अपने पैर जमाने में सफल हो गए थे तो स्वभाविक था कि शंकराचार्य जी के समय लिए गए संकल्प में आ रही गिरावट को दृष्टिगत रखते हुए हमारे शासकों में भीतर ही भीतर इस बात का चिंतन चल रहा हो कि एक साथ बैठा जाए और फिर इस बात पर विचार विमर्श किया जाए कि ऐसा क्या किया जा सकता है जिससे विदेशी आक्रमणकारियों को भारत में पैर जमाने से रोका जाए ? तब भारतीय क्षत्रियों के चरित्र के अनुकूल यह बहुत संभव है कि उन्होंने ऐसा किया हो।
इतिहास इतिहास की इस उपलब्धि को मिले उचित स्थान
इस विचार पर और भी अधिक शोध होना चाहिए । यदि यह सत्य है तो इसे अपने राष्ट्रीय इतिहास में हमारे इतिहासनायकों का महान चरित्र स्वीकार करते हुए उचित स्थान मिलना चाहिए । जिससे यह बात पुष्ट होगी कि हमारे महान पूर्वजों ने 12 वीं शताब्दी के आरम्भ में विदेशियों के द्वारा जब मां भारती को पददलित करने का पैशाचिक कार्य किया जा रहा था तो उसका उन्होंने एकजुटता से सामना किया था। उसके विरुद्ध वे लोग हाथ पर हाथ धरकर नहीं बैठे थे बल्कि उसका सामना करने के लिए संयुक्त मोर्चा बना रहे थे और अपने आपको जातीय भेदभाव से ऊपर उठाकर ‘राजपूत’ नाम से संबोधित कराने में गर्व और गौरव की अनुभूति कर रहे थे । इस प्रकार उस समय हमारे महान पूर्वज अपनी राष्ट्रीय एकता का परिचय दे रहे थे । उन्होंने देश की एकता और अखंडता को बनाए रखने के लिए अपने जातीय भेदभाव को मिटाने का सत्संकल्प लिया और उसके लिए अपनी एक पहचान , एक सोच , एक चाल और एक दिशा निर्धारित की । सचमुच देशहित में ऐसा कोई महान जाति ही कर सकती है । जिसे निश्चित रूप से उन्होंने हिंदुत्व के ध्वज नीचे रहकर करना उचित समझा । अपने आपको राजपूत कहना उनके इस चिंतन को प्रकट करता है कि वह क्षत्रिय परम्परा के प्रतिनिधि बनकर हिंदुत्व के लिए प्राणपण से कार्य करेंगे और किसी भी विदेशी आक्रमणकारी को भारत में पैर नहीं जमाने देंगे । एक प्रकार से सभी शासक लोगों ने ‘राजपूत ‘ शब्द अपने लिए पंथनिरपेक्षता का मार्ग चुना था , जिसे उस समय का क्रांतिकारी निर्णय कहा जाना चाहिए।
याद रहे कि कोई विदेशी इतिहासकार हमारे इतिहास की इस महत्वपूर्ण घटना को कभी नहीं लिखेगा । क्योंकि उसे तो हम लोगों को यही बताना है कि हम तो सदा लड़ते रहे और परस्पर फूट के कारण विदेशियों के सामने हारते रहे । इस घटना को तो हमको स्वयं ही समझना और महिमामंडित करना होगा कि हमने विदेशियों के विरुद्ध उस समय अपना राष्ट्रीय चरित्र प्रस्तुत करते हुए राष्ट्रीय एकता का प्रमाण दिया था , जब स्वयं को सबने क्षत्रिय का समानार्थक ‘राजपूत’ कहलवाना आरम्भ किया था । इस प्रकार की मान्यता से हमारे जातीय विद्वेष के भाव समाप्त होंगे और हम अपने आपको यह अनुभव करा सकेंगे कि हम सब एक ही मूल की शाखाएं हैं और उसी के लिए समर्पित रहकर काम करते रहने के अभ्यासी रहे हैं।
इस प्रकार की मान्यता को पुष्ट करने से यह भी लाभ होगा कि जो गुर्जर शासक होकर भी अपने आपको राजपूत कहलाने लगे थे वह भारतीय राष्ट्रवाद की भावना से प्रेरित होकर ऐसा लिखने लगे थे , यद्यपि वह मूल रूप में गुर्जर ही थे।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत
मुख्य संपादक, उगता भारत