(सत्यार्थ प्रकाश के सप्तम समुल्लास के आधार पर)
लेखक- पं० क्षितिश कुमार वेदालंकार
ईश्वर सर्वशक्तिमान् है-
वाह, जब ईश्वर को सर्वशक्तिमान् कहते हो, अर्थात् वह सब कुछ कर सकता है, तो फिर अवतार ग्रहण क्यों नहीं कर सकता?
यह भी एक बड़ा विचित्र भ्रम लोगों में फैला हुआ है। जिस प्रकार पौराणिक बन्धु परमात्मा को सर्वशक्तिमान् कहकर ‘कर्तुमकर्तुमन्यथा-कर्तुम्’ अर्थात् करे, न करे या विपरीत करे- की सामर्थ्य ईश्वर में मानते हैं, वैसे ही किरानी और कुरानी भी मानते हैं। निस्सन्देह पुराणियों से ही यह मनोवृत्ति किरानी और कुरानियों में गई है। जब ईसाई या मुसलमान कहते हैं कि हमारे पैगम्बर पर ईमान लाओ और उसकी सिफारिश से खुदा तुम्हारे सब गुनाह माफ कर देगा, तब वे भी परमात्मा की सर्वशक्तिमत्ता का यही अर्थ समझते हैं कि ईश्वर सब कुछ कर सकता है तो पापों को क्षमा क्यों नहीं कर सकता? प्रायः आर्यसमाज के साथ अन्य मतावलम्बियों का जब शास्त्रार्थ होता है तब बहुधा इस शब्द पर खूब विवाद होता है, परन्तु वे यह नहीं समझते कि ईश्वर की महत्ता सृष्टि के नियमों का उल्लंघन करने में नहीं, किन्तु सबसे उन नियमों का पालन करवाने में है। यदि नियामक ही नियमों का उल्लंघन करने लगे तो वह नियामक कहाँ रहा?
यों समझिये- राष्ट्र का संविधान एक बार बन गया अब उस संविधान की अवहेलना न राजा कर सकता है, न प्रजा। यदि कोई भी उसका उल्लंघन करेगा तो उच्चतम न्यायालय उसे तुरन्त अवैध ठहरा देगा और अवैध आचरण करनेवाले का स्थान जेल के अन्दर होगा। यदि कर्म करने की स्वतन्त्रता के अधिकार की दुहाई चोर और डाकू भी देने लगें तो किसी भी राज्य में न्याय और व्यवस्था कायम नहीं रह सकती। इसी प्रकार ‘विषमप्यमृतं क्वचिद् भवेदमृतं वा विषमीश्वरेच्छया’- ईश्वर की इच्छा से चाहे जब अमृत विष बन जाए या विष अमृत बन जाए- तब संसार के जितने भी डॉक्टर हैं वे किसी भी रोग का उपचार न कर सकें। सृष्टि-रचना का, सृष्टि में उत्पन्न हुए प्रत्येक पदार्थ का एक विशेष नियम अथवा प्रयोजन है- उसी को सृष्टि-रचना का संविधान कहिए। सृष्टि के आदि में स्वयं ईश्वर ने ही वह संविधान बना दिया। उस संविधान का उल्लंघन न ईश्वर स्वयं कर सकता है और न ही उसकी प्रजा। राष्ट्रों के संविधान में सरकारों की इच्छा के अनुकूल संशोधन भी होते रह सकते हैं, किन्तु ईश्वर के सृष्टि-रचना के संविधान में संशोधन भी नहीं हो सकता। जो है, सो है, क्योंकि संशोधन अपूर्णता का द्योतक है और ईश्वर के संविधान में अपूर्णता हो नहीं सकती, इसलिए उसमें संशोधन भी नहीं हो सकता। ईश्वरीय संविधान तो सदा एक जैसा ही रहेगा। ईश्वर की सार्थकता इसी में है कि जितने ग्रह-नक्षत्र हैं और चराचर जगत् है, वह सब उसी के बनाए नियमों में गति करते रहें। यदि कहीं नियम का उल्लंघन हो गया तो सृष्टि-चक्र में व्याघात पड़ जाएगा।
उदाहरण के लिए गणित का नियम है, दो और दो चार होते हैं। यह नियम सार्वत्रिक है, इसे न मैं तोड़ सकता हूँ, न ईश्वर तोड़ सकता है। मैं तोडूंगा तो मुझे व्यवहार में कठिनाई होगी, यदि परमात्मा तोड़ेगा तो उसके समस्त सृष्टि-चक्र में व्याघात उपस्थित होगा। ऐसे ही कार्य-कारण का सिद्धान्त है- अर्थात् कारण के बिना कार्य नहीं हो सकता। इसे जैसे मैं नहीं तोड़ सकता, वैसे ही परमात्मा भी नहीं तोड़ सकता। इस नियम के टूटने पर अणुओं के घात-संघात और पदार्थों की क्रिया-प्रतिक्रिया में अव्यवस्था हो जाएगी और Cosmos के स्थान पर बहुत बड़ा chaos उपस्थित हो जाएगा।
सर्वशक्तिमान् का अर्थ-
कभी-कभी बड़े मनोरंजक प्रश्न भी इसी सिलसिले में किये जाते हैं। जैसे, परमात्मा अपने जैसा दूसरा परमात्मा बना सकता है या नहीं? यदि कहें कि नहीं बना सकता तो वह सर्वशक्तिमान् नहीं रहा। यदि कहें कि बना सकता है, तो ईश्वर एक नहीं रहा, दो हो गए और जो दूसरा ईश्वर बनेगा भी, वह हूबहू पहले जैसा नहीं होगा, क्योंकि वह नकल ही होगी। यदि नकल को असल से बिलकुल मिला भी दिया, तब भी दूसरा बना हुआ ईश्वर पहले ईश्वर से हजारों साल आयु में छोटा होगा, क्योंकि पहला ईश्वर सृष्टि के आदिकाल से चला आ रहा है और दूसरा ईश्वर उसके हजारों सालों बाद प्रश्नोत्तर-काल के समय बनाया गया। इसी तरह का दूसरा प्रश्न है; जैसे बच्चे खेल में मिट्टी-गारे से इतनी बड़ी ईंट बना लेते हैं कि वह उनसे भी नहीं उठती, क्या ऐसे ही ईश्वर भी इतनी बड़ी ईंट बना सकता है जो उससे भी न उठे? यदि कहें कि नहीं बना सकता, तो वही न बना सकने की अशक्ति वाली बात आ गई यदि कहें कि बना सकता है तो न उठा सकने की बात आ गई। सर्वशक्तिमान् वह दोनों तरह नहीं रहा। न हां कहने से, न ना कहने से। एक तीसरा प्रश्न; मेरी इच्छा के विरुद्ध यदि मेरा नौकर काम करे तो मैं उसे अपने घर से बाहर निकाल दूंगा, किन्तु यदि मैं ईश्वर की इच्छा के विरुद्ध आचरण करूँ तो क्या परमात्मा मुझे अपने घर से बाहर निकाल सकता है? यदि ना कहें तो सर्वशक्तिमान् नहीं रहा, यदि हां कहें तो सर्वव्यापक नहीं रहा। आखिर परमात्मा मुझे अपने घर से बाहर निकालेगा कहां-क्या कहीं ऐसा स्थान है जहां परमात्मा न हो।
इसी को कहते हैं ‘उभयत:पाशा रज्जु:’- न हां कहने से छुटकारा मिले, न ना कहने से- दोनों ओर से गले में फन्दा। इसी प्रकार से अन्य अनेक मनोरंजक प्रश्न किये जा सकते हैं। इन सब फांसियों से बचने का केवल वही उपाय है जो ऋषि ने बताया है; अन्य कोई नहीं। अर्थात् सर्वशक्तिमान् का अर्थ यह नहीं है कि परमात्मा सब कुछ कर सकता है, बल्कि उसका अर्थ केवल इतना है कि परमात्मा के करने के जो काम हैं, अर्थात् सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय- वह स्वयं इतना समर्थ है कि इनके करने में उसे किसी अन्य की सहायता की अपेक्षा नहीं।
सर्वज्ञ और त्रिकालदर्शी-
सर्वशक्तिमान् के साथ ही दूसरा शब्द आता है- सर्वज्ञ। यदि परमात्मा सर्वज्ञ है अर्थात् वह सब कुछ जानता है तो वह अपना अन्त भी जानता होगा? यह प्रश्न भी शास्त्रार्थोपयोगी ही है। ज्ञान उसको कहते हैं जो यथार्थ हो- अर्थात् जो चीज जैसी हो उसे वैसा ही जानना ज्ञान है, इसके विपरीत अज्ञान है। ईश्वर क्योंकि अनन्त है, इसलिए उसे अनन्त समझना ही ज्ञान है, इसके विरुद्ध समझना अर्थात् परमात्मा को सान्त समझना या नाशवान् भौतिक पदार्थों को अनन्त समझना अज्ञान है। योगदर्शन के अनुसार ‘क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्ट: पुरुषविशेष ईश्वर:’ ईश्वर अविद्यादि क्लेशों से रहित और इष्ट-अनिष्ट या मिश्रित फलदायक कर्मों की वासना से रहित और सब जीवों से विशिष्ट है, इसलिए सामान्य जीवों की तरह मरण द्वारा परमात्मा का जन्मान्तर नहीं होता और इस प्रकार उसके सम्बन्ध में यह प्रश्न नहीं बनता कि वह अपना अन्त जानता है या नहीं।
सर्वज्ञ का एक अर्थ है त्रिकालदर्शी- अर्थात् भूत, वर्तमान और भविष्यत् तीनों कालों को एक साथ प्रत्यक्ष देखनेवाला। यहां यह प्रश्न होता है कि ईश्वर यदि त्रिकालदर्शी है तो वह यह भी जानता है कि जीव भविष्य में क्या करेगा इससे जीव का भावी कर्म ईश्वर के ज्ञान से बंध (conditioned) गया। फिर जीव स्वतन्त्र कहां रहा? जीव भविष्य में जो कर्म करेगा, यदि परमात्मा को उसका पहले से ही ज्ञान है, तो जीव ने एक तरह से वही काम किया जो ईश्वर ने अपने ज्ञान द्वारा उसके लिए पहले से निश्चित कर दिया, फिर किसी पाप कर्म के लिए बेचारे जीव को दण्ड क्यों? यदि दण्ड मिलना ही हो तो परमात्मा को ही मिले। न परमात्मा वैसा जानता, न जीव वैसा कर्म करता।
एकरस काल-
यहां भी थोड़ा-सा भ्रम है। काल के जो तीन विभाग हैं- भूत, वर्तमान और भविष्यत्- ये केवल आपेक्षिक परिभाषाएं (Relative Terms) हैं। मुझे अपने घर की छत पर चढ़कर जितनी दूर तक का प्रदेश दिखाई देता है, यदि मैं हवाई जहाज में बैठकर देखूं तो उसकी अपेक्षा बहुत अधिक विस्तृत प्रदेश का अवलोकन कर सकता हूँ। उपग्रह में बैठकर अन्तरिक्ष की यात्रा करने वाले गागारिन और तेरेशकोवा जैसे यात्रियों को सारी पृथ्वी भी एकसाथ दीख जाती है। जैसे समीप और दूर की परिभाषाएं सापेक्ष हैं। वैसे ही भूत और भविष्य की परिभाषाएं भी सापेक्ष हैं। देश (Space) की दृष्टि से जिसे समीप और दूर कहते हैं उसी को काल (Time) की दृष्टि से वर्तमान तथा भूत और भविष्यत् कहते हैं।
यदि दार्शनिक दृष्टि से विश्लेषण करने बैठ ही जाएं तो काल के उक्त तीनों खण्डों का अस्तित्व सिद्ध करना कठिन हो जाएगा। देखिए- भूत क्या है, जो वर्तमान बीत चुका है, वही भूत है। और जो वर्तमान आगे आनेवाला है, वही भविष्यत् है। इस तरह भूत और भविष्य दोनों वर्तमान पर आधारित हैं। एक तरह से यह कहा जा सकता है- भूत और भविष्यत् वर्तमानरूपी नदी के दो तट हैं। यदि नदी नहीं, तो दोनों तट भी नहीं रहेंगे। अब वर्तमान पर विचार कीजिए कि यह क्या है? वर्तमान का कुछ भूत अंश है और कुछ अंश भविष्य- जिस क्षण को आप वर्तमान कहना चाहते हैं उसका भी कुछ अंश बीत चुका है और कुछ अंश आगे आने वाला है- आपके कहते-कहते और आपके पकड़ते-पकड़ते वर्तमान का क्षण फिसलकर भूत और भविष्यत् की कोटि में पहुंच जाता है अर्थात् वर्तमान, वर्तमान नहीं रहता और जब आपका वर्तमान ही टिक नहीं पाता तब उस वर्तमान के आधार पर चलने वाले आपके भूत और भविष्यत् कहां रुकेंगे- जब वर्तमान की ही नदी सूखी पड़ी है तब उसके भूत और भविष्यत् नामक दोनों तटों पर हरियाली कहां से आएगी? इसलिए कहना चाहिए काल अखण्ड और एकरस है। भूत और भविष्यत् की परिभाषाएं केवल अल्पज्ञ जीव के लिए हैं। जीवों के कर्मों की अपेक्षा से ही परमात्मा को त्रिकालज्ञ या त्रिकालदर्शी कहा जा सकता है, स्वतः परमात्मा के लिए त्रिकाल नहीं है- केवल एक ही महाकाल है और वह सदा उसके लिए वर्तमान ही है।
जीव कर्म करने में स्वतन्त्र-
इससे न जीव के कर्म करने की स्वतन्त्रता में बाधा आती है, न ही परमात्मा की सर्वज्ञता में। जैसा कर्म जीव करता है, वैसा ही परमात्मा जानता है, और वैसा ही वह फल देता है। परमात्मा को जैसे जीव के कर्म का ज्ञान अनादि है, वैसे ही जीव द्वारा किये गए कर्म के फल का ज्ञान भी अनादि है। ये दोनों ज्ञान उसके सत्य हैं। सार रूप से यह कहा जा सकता है कि जीव अल्पज्ञ केवल वर्तमान को जाननेवाला और कर्म करने में स्वतन्त्र है, परन्तु फल भोगने में परतन्त्र है; और परमात्मा सर्वज्ञ- सब कालों को जानेवाला और जीव को कर्मानुसार फल देने में स्वतन्त्र है। परमात्मा की कर्मानुसार फल देने की स्वतन्त्रता भी उच्छृंखलता नहीं है, अर्थात् न तो वह पाप क्षमा करता है, न ही पुण्य के लिए दण्ड देता है और न ही पाप को पुरस्कृत करता है। जैसा जिसका कर्म, वैसा उसका फल। परन्तु जीव यदि चाहे कि मेरे पाप-कर्म का फल मुझे न मिले जैसा कि आमतौर से लोग चाहते हैं, तो यह असम्भव है। कर्म का फल तो भोगना ही होगा? किस कर्म का कौन सा फल मिलेगा- यह ईश्वराधीन है और ईश्वर अपने बनाए संविधान के अधीन है।
[स्त्रोत- परोपकारी : महर्षि दयानन्द सरस्वती की उत्तराधिकारिणी परोपकारिणी सभा का मुख पत्र का मार्च २०२० का अंक; प्रस्तुति- प्रियांशु सेठ]