स्वामी दयानंद जी को कोलकाता पधारने का निमंत्रण देने वाले महर्षि देवेंद्रनाथ ठाकुर
(लेखक: प्रा. डॉ. कुशलदेव शास्त्री)
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सुप्रसिद्ध कवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर के पिता महर्षि देवेन्द्रनाथ ने राजा राममोहन राय की “ब्रह्मसमाज” की विरासत को आगे बढ़ाया, पर उनके कामों की विशेषता यह रही कि उन्होंने वेदों के अध्ययन को एक अविभाज्य अंग माना। उनके अनुसार प्राचीन हिन्दू धर्म ग्रंथों में हिब्रू धर्म ग्रंथों से भी अधिक जोश और उत्साह से एकेश्वरवाद का प्रतिपादन किया गया है। हिन्दू धर्म के ‘अहं ब्रह्मास्मि’ वचन से वे सहमत नहीं थे, जिसमें यह प्रतिपादित किया गया है कि मानव की आत्मा ईश्वर में विलीन हो जाती है। उन्हें यह कल्पना ही अगम्य-गूढ़ प्रतीत हुई कि पुजारी और पूज्य इन दोनों का अस्तित्व एक हो जाता है।
“आदि ब्रह्मसमाज” के नेता महर्षि देवेन्द्रनाथ ठाकुर (१८१७-१९०५) स्वामी दयानन्द सरस्वती जी से आठ वर्ष बड़े थे। आपने ही प्रयाग के कुंभ मेले में उन्हें कोलकाता पधारने का निमन्त्रण दिया था। उसी समय स्वामी जी ने देवेन्द्रनाथ जी के सामने कोलकाता में वेद-विद्यालय की स्थापना का अनुरोध किया था। यहाँ हमें यह स्मरण रखना चाहिये कि श्री देवेन्द्रनाथ ठाकुर ने कुछ विद्यार्थियों को वेद पढऩे के लिए काशी भेजा था। स्वामीजी को कोलकाता पहुँचने पर हावड़ा रेलवे स्टेशन से लाकर ‘प्रमोद कानन’ नामक उद्यान में ठहराया गया। वहाँ पर लगे देवेन्द्रनाथ जी के चित्र को देखकर स्वामी दयानन्द जी ने कहा था- ‘इनका झुकाव तो स्वाभाविक रूप से ऋषित्व की ओर दिखलाई देता है।’ वैसे वे नौ पुत्रों और पांच पुत्रियों समेत कुल चौदह संतानों के जनक थे।
स्वामी जी के कोलकाता पहुँचने के पांच दिन बाद रविवार २२ दिसम्बर १८७२ को देवेन्द्रनाथ ठाकुर के क्रमश: प्रथम और तृतीय पुत्र सर्वश्री द्विजेन्द्रनाथ और हेमेन्द्रनाथ के स्वामी जी महाराज के दर्शनार्थ उनके डेरे पर पहुँचने का लिखित रूप में प्रमाण मिलता है। संभव है इससे पूर्व भी वे एकाधिक बार उनसे मिले होंगे। पं. लेखराम के अनुसार धर्मचर्चा के अवसर पर द्विजेन्द्रनाथ ठाकुर हमेशा दयानन्द जी का पक्ष लिया करते थे। मंगलवार २१ जनवरी १८७३ को ब्रह्मसमाज के त्रिदिवीय मोघात्सव-वार्षिकोत्सव समापन समारोह पर महर्षि के ज्येष्ठ पुत्र श्री द्विजेन्द्रनाथ ही स्वामी जी को उनके डेरे से ‘जोडासांको राजवाड़ी’ मुहल्ले में स्थित अपने पिताश्री के ‘ठाकुर बाड़ी’ नामक घर पर अगवानी करते हुए लेकर पधारे थे। तत्कालीन दृश्य का वर्णन करते हुए मराठी साहित्यकार स्वर्गीय प्राचार्य शिवाजीराव भोसले जी ने लिखा है-
”देवेन्द्रनाथ जी का वह जोडासांको स्थित ‘ठाकुर बाड़ी’ आगंतुकों की भीड़ से भरी हुई थी। सारा वातावरण प्रसन्न था। महर्षि दयानन्द और महर्षि देवेन्द्रनाथ आपस में मिलने वाले थे। इन दोनों महापुरुषों के मिलाप का दृश्य आँखें भर-भर कर देखने के लिए बहुत से लोग पहिले ही आकर बैठे गए थे। दयानन्द आये। सभी ने उठकर सम्मान किया। स्वामीजी निर्दिष्ट स्थान पर विराजमान हुए। देवेन्द्र जी ने अपने पुत्रों को आज्ञा दी। उन्होंने सामने आकर वेद मंत्रों का मधुर-सुंदर स्वर में गायन किया। जिसे सुनकर स्वामीजी संतुष्ट हुए। उन्होंने आशीर्वाद के लिए हाथ उठाया। तब उनके पास खड़ा था कल का महाकवि देवेन्द्रजी का प्रिय रवि।” तत्कालीन बारह वर्षीय रवीन्द्रनाथ ठाकुर अपने संस्मरणों में लिखते हैं, ‘स्वामीजी के उज्जवल तेजस्वी चक्षु, उनके मुखमंडल पर सुशोभित होने वाली प्रसन्नता, उनका तेजस्वी विवेचन-वार्तालाप, उनका सादा रहन-सहन और उनकी उदात्त विचारधारा, उनका समग्र व्यक्तित्व हमारे मन में अनेक प्रकार की भावनात्मक तरंगों का निर्माण कर गया।”
दयानन्द जी की इस कोलकाता यात्रा में न जाने कितने बंग भूमि के सुपुत्रों ने उन्हें अभिवादन किया? दयानन्द जी के अधिकार और योग्यता को पहचानकर नगर के सभी क्रियावान् पुरुष उनसे मिले बिना न रहे। यह एक आश्चर्य की बात थी कि एक विरक्त के, संन्यस्त के, निष्कांचन यति के दर्शनार्थ महापुरुष भी पंक्तिबद्ध खड़े हो गए थे। उनके दर्शन के लिए सामान्य लोगों की उत्सुकता तो और भी चरम सीमा पर पहुँच गई थी। इस अवसर पर स्वामी जी ने ‘वेद और ब्रह्मसमाज’ विषय पर अपनी विचारधारा का प्रतिपादन किया। वे जीना चढ़कर ‘ठाकुर बाड़ी’ की तीसरी मंजिल पर भी गए। महर्षि देवेन्द्र ने स्वामी जी से घर के ऊपरी हिस्से में रहने का अनुरोध किया, पर घर-परिवार और भीड़-भाड़ से दूर एकांत में साधनारत रहने वाले स्वामीजी ने उसे अस्वीकार कर दिया।
श्री केशवचन्द्र सेन की तुलना में महर्षि देवेन्द्रनाथ ठाकुर स्वामी दयानन्द जी के विचारों के अधिक नजदीक थे। केशव का झुकाव बाइबिल की ओर था, तो देवेन्द्रनाथ का झुकाव वेद की ओर। ब्रह्मसमाज से मतभेद होने के कारण देवेन्द्रनाथ ने “आदि ब्रह्मसमाज” की स्थापना की, तो केशवचन्द्र सेन ने “नवविधान समाज” की। स्थूल रूप में दोनों भी ब्रह्मसमाज के नेता के रूप में ही लोकप्रसिद्ध हुए। बाबू केशवचन्द्र सेन भी महर्षि के वेदभाष्य मासिक के ग्राहक थे और महर्षि देवेन्द्रनाथ ठाकुर के ज्येष्ठ सुपुत्र बाबू द्विजेन्द्रनाथ ठाकुर के पते पर भी वेदभाष्य मासिक पहुँचता था। उनकी ग्राहक संख्या ५७ थी। महर्षि देवेन्द्रनाथ ने “शांति-निकेतन” की स्थापना से पूर्व ‘ब्रह्मचर्याश्रम’ की स्थापना की थी। पं. दीनबन्धु शास्त्री के अनुसार शांति-निकेतन में प्रति रविवार आर्य विद्वान् हवन करवाने भी जाते थे।
संदर्भ:
१. “वेदवाणी” मासिक: दयानन्द विशेषांक: नवम्बर १९८३
२. “दीपस्तम्भ: प्राचार्य शिवा जी राव भोसले”, अक्षर ब्रह्म प्रकाशन ३८३-अ, शनिवार पेठ, पुणे-४११०३०, संस्करण २००३
स्रोत: “परोपकारी” पत्रिका (फरवरी प्रथम, २०१