राकेश कुमार आर्य
भाषा जितनी वैज्ञानिक होगी उसके बोलने वाले उतने ही वैज्ञानिक-ज्ञानवृद्घ-श्रेष्ठ-आर्य होंगे। हम भारतीयों के लिए आर्यावत्र्त कालीन समय में आर्य संबोधन था। तब आर्य हमारे नामों के पीछे लिखा नही होता था-अपितु आर्य हमारी आम सहमति का नाम था-जैसे आजकल हिंदू हमारी आम सहमति का नाम है। इसमें वैष्णवी, शैव, सनातनी, आर्यसमाजी, सिक्ख, जैन और बौद्घ ही नही अपितु (जैसा कि महाराष्ट्र के पूर्व चीफ जस्टिस मौ. करीम छागला जी का मत है) राष्ट्रीयता के संदर्भ में तो मुस्लिम और ईसाई भी समाहित हैं। हिंदू हिंदुस्तान के हर वासी का-नागरिक का सहज संबोधन है। इसलिए हिंदू को अपने नाम के पीछे लिखने की आवश्यकता नही है। जो चीज सहज रूप में सबके लिए उपलब्ध है-उसका महत्व प्रदर्शन करने की आवश्यकता नही होती है। जब व्यक्ति नई पहचान बनाने का प्रयास करता है-किसी संप्रदाय, जाति, गोत्र या क्षेत्र के नाम पर, तो उस समय उसे अपने किसी उपनाम के प्रत्यय को अपने पीछे जोडऩे या लगाने की आवश्यकता होती है। यह कितना सुखद है कि हमने ऐसी बहुत सी पहचानों से अपने हिंदूपन को ढांपने का प्रयास किया किंतु वह फिर भी हमारी राष्ट्रीय पहचान बनकर खड़ा है। पर जितना यह सुखद है उतना ही यह दुखद भी है कि इस हिंदूपन की पहचान के पीछे ढके दबे हमारे आर्यपन को ठेस पहुंची है। हमारे ही लोगों ने हमें बताया है कि आर्य विदेशी थे और हमने उस बात पर विश्वास किया। फलस्वरूप भरी संसद में मुस्लिम लीग के एक सांसद ने जब देश के आर्यों को निकालने की बात कही तो किसी भी सांसद ने उसका विरोध करते हुए प्रामाणिक उत्तर देने का साहस नही किया-सबको सांप संूघ गया। अस्तु।
प्राचीन काल में हमारी राष्ट्रीय नागरिकता ‘आर्य’ से संबोधित होकर महिमामंडित होती थी। आर्य का सीधा सा और सरल सा अर्थ श्रेष्ठ है। ऋ गतौ धातु से आर्य शब्द की उत्पत्ति हुई है। जिसमें ज्ञानप्राप्ति की उत्कृष्ट इच्छा और प्रगतिशील विचारों की प्राधान्यता है। हर व्यक्ति को ज्ञान की इसी ऊंचाई और प्रगतिशीलता के इसी सोपान पर पहुंचाना हमारी सामाजिक, शैक्षणिक राजनीतिक और धार्मिक व्यवस्था का उद्देश्य होता था। समाज में लोग एक दूसरे को आर्य के संबोधन से पुकारते थे तो शिक्षा का उद्देश्य सबको ‘द्विज’ (जिसका आचार्य के ज्ञानरूपी और गुरूकुल रूपी गर्भ से दूसरा जन्म होता है) बनाना होता था। यह द्विज बना व्यक्ति संस्कारित होता था, विश्व मानस का धनी होता था, सारी संकीर्णताओं से ऊपर हो जाता था इसलिए द्विज ही दीक्षित (डिग्रीधारी) बनता था, स्नातक (स्नान किया हुआ) बनता था। इसी प्रकार राजनीति का उद्देश्य हमें ‘यद भद्रम तन्नासुव’ अर्थात जो भद्र है उसे प्राप्त कराना था। भद्र का अर्थ चक्रवर्ती साम्राज्य की स्थापना कर मोक्ष प्राप्ति करने से था। चक्रवर्ती साम्राज्य की स्थापना का अर्थ विश्व में रक्तपात से भरे युद्घों का आयोजन करना नही था-अपितु ईश्वरीय न्याय व्यवस्था के अनुरूप विश्व में शांति व्यवस्था स्थापित करते हुए लोकहित की उच्चतम साधना करना था। इसीलिए राजा ईश्वर का प्रतिनिधि माना जाता था। ईश्वरीय नियमों को भौतिक जगत में स्थापित करने के लिए संघर्ष करने वाला व्यक्ति ही मोक्षाभिलाषी हो सकता है। इस प्रकार राजनीति का उद्देश्य हमारे लिए भद्रता की स्थापना करना था। यह भद्रता इहलोक और परलोक की उन्नति में सहायक होती थी। अत: इसी भद्रता का और भी परिष्कृत शुद्घ स्वरूप हमारे लिए धर्म था। धर्म के लिए महर्षि कणाद ने कहा है कि जो इहलोक की उन्नति (अभ्युदय की प्राप्ति) और परलोक की सिद्घि (नि:श्रेयस की सिद्घि) में सहायक हो वह धर्म है। इसलिए हमारा धर्म हमें ऐसा ही धार्मिक बनाता था।
अत: समीकरण यूं बना कि हमें सामाजिक व्यवस्था में आर्य शैक्षणिक व्यवस्था में द्विज-दीक्षित, राजनीतिक व्यवस्था में भद्रपुरूष और धार्मिक व्यवस्था में धार्मिक कहा जाता था। आर्य- द्विज दीक्षित- भद्रपुरूष-धार्मिक इन सबका एक ही अर्थ निकलकर आ रहा है-श्रेष्ठतत्व-आर्यत्व महानता, कुल मिलाकर आर्य। अत: कितना प्यारा संबोधन था हमारे लिए-आर्य। सारी की सारी व्यवस्था का एक सांझा घाट था यह, एक सांझा लक्ष्य था और एक आम सहमति का नाम था। आर्य का अर्थ था विश्व नागरिक होना, विश्व मानस का धनी होना। इसलिए आर्यवत्र्त का अर्थ था संपूर्ण वसुधा को एक परिवार मानना वसुधैव कुटुम्बकम् और सारी व्यवस्था का साध्य था-कृण्वन्तो विश्वमाय्र्यम्।
संस्कृत की संस्कृति की देन थी यह हमारे लिए। हिंदी ने इसी संस्कृति का प्रचार प्रसार करने का बीड़ा उठाया। इसलिए उसने हिंदुत्व की श्रेष्ठ जीवन प्रणाली को विश्व में प्रसृत कर भारत को पुन: विश्वगुरू बनाने का संकल्प धारण किया। उसी सोच और संकल्प के साथ यह आगे बढ़ रही है।
हिंदी ने समाज में अपनी जननी संस्कृत से व्यापक संस्कार लिए। इसने संस्कृत की भांति ही हमारा लक्ष्य सदा हमें महान-श्रेष्ठ ही समझाया और बताया। व्यक्तियों के नामो तक में भी यह बात दिखाई देती है।
बौद्घ, जैन और सिख
आर्य परंपरा को बढ़ाने में हमारे महापुरूषों ने विशेष योगदान दिया है, महात्मा बुद्घ, महावीर स्वामी और गुरूनानक इनमें अग्रणी हैं। इन तीनों महापुरूषों के नाम से जो पंथ आज प्रचलित हैं वो भी आर्यत्व के प्रचारक और प्रसारक हैं। बौद्घ शब्द बोध-ज्ञान का प्रतीक है, इसी प्रकार जैन शब्द भी ज्ञान (ज्यान) का प्रतीक है, जबकि सिख शब्द तो गुरू के शिष्य शब्द का पर्यायवाची है ही। इस प्रकार ये तीनों शब्द भी हमें श्रेष्ठत्व का बोध कराते हैं। इसका अभिप्राय है कि हमारी प्रत्येक शाखा, उपशाखा ज्ञान के मूल वृक्ष से जुड़ी हुई है और यह मूल वृक्ष आर्य संस्कृति ही है जिसे आज हिंदी अपनाकर आगे बढ़ रही है।
श्री और श्रीमती
धन जब किसी को आश्रय देने वाला बन जाता है तो उस समय वह श्री में परिवर्तित हो जाता है। विवाह से पूर्व कोई लड़का श्री नही होता और लड़की श्रीमती नही होती। विवाह के उपरांत ही लड़का और लड़की श्री और श्रीमती होते हैं। इसका कारण है, और कारण ये है कि भारतीय संस्कृति हर व्यक्ति को श्रीमान बनाना चाहती है। इसमें हिंदी ने अपना योगदान करते हुए कहा है कि जो भी व्यक्ति और महिला किसी को आश्रय प्रदाता बनाएंगे उन्हें मैं श्री और श्रीमती से विभूषित करूंगी। विवाह के समय वर एवं वधू एक दूसरे को अपने हृदय में स्थान देते हैं-आश्रय देते हैं इसलिए उस दिन से वह श्री और श्रीमती कहलाते हैं। हिंदी इस श्री और श्रीमती को यहीं तक सीमित नही रखना चाहती वह आश्रय के लिए मनुष्य के बंद हाथों को खोलकर फैला देती है और इतना फैलाती है कि सारी वसुधा को ही व्यक्ति अपना कहने लगे। कुल मिलाकर वही बात आती है-वसुधैव कुटुम्बकम् की। इस प्रकार श्री और श्रीमती हमें व्यापकता देते हैं।
देव और देवी
श्री और श्रीमती की भांति ही देव और देवी शब्द हैं। इन्हें पति पत्नी एक दूसरे के लिए प्रयोग करते हैं। हम किसी अपरिचित महिला के लिए भी देवी कह देते हैं। ये शब्द देने के अर्थवाचक हैं। जैसे श्री और श्रीमती आश्रय प्रदाता के वाचक थे उसी प्रकार के ध्वन्यार्थक ये दोनों शब्द हैं। जब हम देने के लिए अर्थों पर विचार करते हैं तो सारी सृष्टि में देना ही देना दृष्टिगोचर होता है। पिता संतान को वात्सल्य दे रहा है, मां ममता दे रही है, बहन भाई आपस में स्नेह का आदान प्रदान कर रहे हैं, नदियां शीतल जल दे रही हैं, गुरू ज्ञान दे रहा है, सूर्य प्रकाश दे रहा है, चंद्रमा वनस्पतियों को औषधीय गुण दे रहा है, चारों ओर देना ही देना चल रहा है-एक विशाल यज्ञ हो रहा है-मानो चारों ओर देव और देवी वास कर रहे हैं। ऐसे ही 33 करोड़ देवी देवताओं अर्थात उस समय की देश की कुल जनसंख्या से यह देश देवों का देश कहलाता था। कितना प्यारा और कितना हर्षवर्धक वातारण है? ऐसे यज्ञोमयी परिवेश को दिग दिगंत तक प्रस्तुत करने के लिए हिंदी ने हमें देव और देवी की उपाधि दी। कहा कि देते ही रहना, देवता बनना-लेने का स्वभाव बनाकर लेवता मत बनना। इसीलिए हमारे नामों के पीछे देव और देवी हिंदी ने लगाए। हमें आर्यत्व की ओर श्रेष्ठता की ओर बढऩे के लिए हिंदी ने प्रेरित किया। रामदेव, हरिदेव, कृष्णदेव, सत्यदेव, भीमदेव इत्यादि पुरूषों के नाम और सामान्यतया हर महिला के नाम के पीछे देवी लगना इसी यज्ञोमयी पवित्र परिवेश की स्थापना में हर देव और देवी के अप्रतिम योगदान का स्मरण दिलाता है। हिंदी की इस उत्कृष्ट और गौरवमयी परंपरा को देखकर हिंदी के लिए यह बड़े ही गौरव के साथ कहा जा सकता है कि हिंदी ज्ञान विज्ञान पर सबका समान अधिकार मानती है। क्योंकि ज्ञान विज्ञान में निष्णात-द्विज-दीक्षित व्यक्ति ही वास्तव में देव और देवी कहला सकते हैं।
महाजन-श्रेष्ठजन-सेठजी
वैश्य वर्ग के लिए सामान्यत: हिंदी में महाजन शब्द का प्रयोग होता है। महाजन महापुरूष का ही पर्यायवाची है। महाजन को ही श्रेष्ठजन (आर्यपुरूष का समानार्थक) कहा जाता है। महाजन और श्रेष्ठजन वही वैश्य कहलाता था जिसका धन अकाल, महामारी, भुखमरी, अनावृष्टि या अतिवृष्टि के समय जरूरत मंद लोगों के काम आता था। इसलिए ऐसी विषमताओं के समय महाजन लोग जरूरत मंदों के लिए अपनी खत्ती खोल देते थे। ऐसे श्री संपन्न श्रेष्ठ लोगों को समाज में श्रेष्ठजन कहा जाता था-उसी से सेठ जी शब्द रूढ़ हो गया है। अत: हिंदी ने इस क्षेत्र में भी उच्चता का कीर्तिमान स्थापित किया है।
आनंदांत शब्द
हमारे नामों में हिंदी शब्दों में आनंद अंत में जुड़ा होता है। जैसे दयानंद, महानंद, श्रद्घानंद, विवेकानंद इत्यादि। यह शब्द भी हमें आनंद के उपासक बनाते हैं और हमें बताते हैं कि सुख दुख से पार निकलकर हम उस आनंद में लीन हो जाते हैं जिसका कोई विपरीतार्थक शब्द नही है-जहां कोई द्वंद्व शेष नही रह जाता है।
क्षत्रिय वर्ग के नामान्त में सिंह
क्षत्रिय वर्ग के नामान्त में सिंह भी एक उच्च और आदर्श व्यवस्था की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट करता है। सिंह शेर को कहते हैं। शेर अपने शिकार के लिए जब चलता है तो वह आगे बढ़ते हुए भी पीछे की ओर देखता है-शत्रु से पीछे से भी सावधान रहता है। इसी को सिंहावलोकन कहते हैं। इस प्रकार व्यक्ति को भी विशेषत: क्षत्रिय वर्ग को भी राष्ट्ररक्षा, समाज रक्षा और जनरक्षा के अपने पुनीत कत्र्तव्य के दायित्व के निर्वाह के समय करना चाहिए। वह शत्रु से कभी भी असावधान न हो, अपितु आगे पीछे दांये, बांए सदा सावधान रहना चाहिए। इसलिए उसके नाम के अंत में ‘सिंह’ लगाया जाता है। कहा जाता है कि सावधानी हटी और दुर्घटना घटी। इसलिए सावधान रहकर दुर्घटना को टालना चाहिए। क्षत्रिय वर्ग पर चूंकि सुरक्षा का महती दायित्व होता है, इसलिए हिंदी ने उसे ही सर्वाधिक सचेत किया है।
प्राचीन काल में यह सिंह हमारे नामों में नही लगता था। गौरीशंकर, हीराचंद ओझा जी ने लिखा है कि प्राचीन काल में सिंह, शार्दूल, पुंगव आदि शब्द श्रेष्ठता प्रदर्शित करने के लिए शब्दों के अंत में जोड़े जाते थे, जैसे क्षत्रिय पुंगव (क्षत्रियों में श्रेष्ठ) राजशार्दूल (राजाओं में श्रेष्ठ) नरसिंह (पुरूषों में सिंह के सदृश) आदि।
श्री ओझा जी ने सिहांत नामों का प्रारंभ एक शासक रूद्रसिंह (संवत 103-118) से माना है। इससे पूर्व किसी शासक के नाम में सिंह नही था। विक्रमी संवत सृष्टि संवत के सामने कुछ नही है। अर्थात बहुत अधिक प्राचीन नही है। इसलिए हमने कहा है कि प्राचीन काल में (सृष्टि प्रारंभ से विक्रमी संवत 103-118) सिहांत नामें का प्रचलन हमारे यहां नही था। कालांतर में क्षत्रिय जातियों के लिए हिंदी ने सिहांत नामों का प्रचलन 12वीं शताब्दी से माना गया है। जबकि मारवाड़ के राठौड़ों में यह प्रचलन 17वीं शताब्दी में चला। कुल मिलाकर सिहांत नामों का प्रचलन भी हमारे नामों को गौरव श्रेष्ठता देने वाला ही रहा।
गुरू नानक जी ने तो हिंदू समाज की बिगड़ी दशा को सुधारने के लिए तथा पतनोन्मुख हुई हिंदू जाति में फिर से उच्चता का भाव उत्पन्न करने के लिए अपने सभी शिष्यों को अपने नाम के पीछे ‘सिंह’ लगाने के लिए आदेशित ही कर दिया था। परिणाम स्वरूप गुरू के शिष्यों ने वीरता की धूम मचा दी।
विद्वानों को पंडित कहकर सम्मानित किया
विद्वानों को ही पंडित कहा जाता है। हिंदी ने ऐसे महापुरूषों को पंडित जी कहकर सम्मानित किया। ये लोग समाज के दिशानायक होते हैं। मर्यादा का पाठ पढ़ाने वाले और धर्म के सत्यपथ पर समाज को चलाने वाले होते हैं। पंडित का सम्मान प्राप्त करना अपने उद्यम और पुरूषार्थ पर निर्भर करता है। यह परिवार की परंपरा से मिलने वाला उत्तराधिकार नही है कि पंडित जी का लड़का पंडित ही कहलाएगा। रूढिग़त अर्थों में पंडित का लड़का पंडित हो सकता है लेकिन तब वह सम्मानित नही कहा जा सकता। सम्मान तो कर्मों से ही मिलता है।
शूद्र भी सम्मान के पात्र हैं
शूद्रों की स्थिति के लिए हिंदी उपेक्षा भाव नही बरतती, अपितु संस्कृत के इसी ध्येय वाक्य को अपना आदर्श मानती है-जन्मना जायते शूद्र: संस्कारात द्विज उच्यते। अर्थात जन्म से तो सभी शूद्र उत्पन्न होते हैं परंतु संस्कारों से व्यक्ति शूद्र से पंडित बन सकता है। इसलिए हिंदी ने संस्कार आधारित शिक्षा को सबके लिए अनिवार्य माना। वर्तमान काल में हिंदी ने शूद्रों को हरिजन (प्रभु का पुत्र) कहकर उनके प्रति आत्मिक लगाव उत्पन्न करने का प्रयास किया। जिन लोगों ने अपने निहित स्वार्थों में उन्हें लोगों की भांति शूद्रों को भी मुख्यधारा में लाने का प्रयास किया। यदि परिणाम सही नही निकले हैं तो इसका कारण ये है कि देश की राजनीति हिंदी में नही सोचती। वह हरिजनों को हरिजन न मानकर अनुसूचित जाति मानती है। इस अनुसूचित जाति शब्द में जाति के रूप में एक अलगाव है, एक दूरी है जो चिंतन को विकृत करती है। जिस दिन देश की राजनीति हिंदी में लिखना, पढऩा और सोचना आरंभ कर देगी उसी दिन समाज में विभाजन वाद की सारी दीवारें गिरनी आरंभ हो जाएंगी।
एक पहचान को स्थापित करो
हमने अपने लिए एक संबोधन ‘आर्य’ को विस्मृत किया और कुल गोत्र, जाति की पहचानों के नीचे उसे इतना दबा दिया कि आज वह ढूंढऩे में ही नही आ रहा है। जाति, कुल गोत्र इत्यादि के सूचक विशेषणों ने हमारे चिंतन को प्रभावित किया है और हमने स्वयं को विश्व नागरिक बनने से नीचे गिरा लिया है। हम घरौंदों में कैद हैं। चिंतन की विशालता हमसे कहीं खो गयी है। इसके पीछे भी राजकाज और राजनीति का अंग्रेजी प्रेम ही एक कारण है। अपने देश की समस्याएं सुलझाने के लिए चिंतन विदेशी भाषा में किया जाना ‘मानसिक दासता’ का प्रतीक है। इसीलिए हमारी राजनीति को आर्यत्व और हिंदुत्व से चिढ़ है। जबकि देश की उन्नति के लिए एक पहचान स्थापित की जानी आवश्यक है। जैसे संस्कृत में सारी व्यवस्था का उद्देश्य हमें श्रेष्ठता प्रदान करना रहा है वैसे ही हिंदी का उद्देश्य भी हमें श्रेष्ठत्व प्रदान करना है।
आवश्यकता बिखरे हुए समीकरणों को तनिक एक सूत्र में पिरोकर देखने की है। अत: देखें ये श्री व श्रीमती देव और देवी, द्विज, महाजन, श्रेष्ठजन=सेठ जी, क्षत्रियों के लिए सिंह-राव-राजा इत्यादि विद्वानों के लिए पंडित जी शूद्र के लिए हरिजन इत्यादि सबका मेल या योग आर्यत्व के सार्वजनिक घाट पर ही होता है। इसी आर्यत्व की खोज कर उसे स्थापित करना हिंदी का उद्देश्य है।
हमारा मानना है कि राष्ट्रवाद को बलवती करने के लिए जातिसूचक और कुल-गोत्र सूचक नामों को या नामान्त के ऐसे विशेषणों को हटाना ही एकमात्र समाधान है। यद्यपि ग्राम्य स्तर तक मुखिया, प्रमुख, चौधरी, नम्बरदार इत्यादि ऐसे विशेषण हैं जो व्यक्ति को कुछ गौरव बोध कराते हैं। इसी प्रकार ‘राव’ ‘राजा’ जैसे शब्द भी कभी हुआ करते थे, लेकिन ये सभी व्यष्टि को गौरव बोध कराते हैं। समष्टि में गौरव बोध तो ‘आर्य’ बनने से ही पैदा होता है। जैसे आर्यभाषा संस्कृत की उत्तराधिकारी हिंदी है, वैसे ही आर्य का उत्तराधिकारी हिंदू है। हिंदू को हम पर हावी करने का प्रशंसनीय कार्य भी किया है हम हिंदू होने में गौरव भी अनुभव कर रहे हैं लेकिन इस सबका अभिप्राय यह नही है कि हम अपने हीरे को मिट्टी में मिला दें या मिलने दें। आर्य का उत्तराधिकारी हिंदू तो हमें वैसे ही स्वीकार है जैसे आर्यावत्र्त का उत्तराधिकारी हिंदुस्तान स्वीकार है। लेकिन आर्यों को विदेशी मानना और हिंदू व आर्यों को अलग अलग मानना यह स्वीकार नही है। हिंदी संस्कृत से प्रेरित होकर इन दोनों का एक समीकरण बना रही है और अंग्रेजी उसे ढहा रही है। यह स्थिति दुर्भाग्य पूर्ण है। यदि हम नही चेते तो हिंदी का हमसे श्रेष्ठत्व बोध कराने का प्रयास मर जाएगा और अंग्रेजी का भूत हमें बांट-बांट कर मिटा डालेगा। इसलिए हिंदी के प्रति समर्पित होकर अपने श्रेष्ठत्व=आर्यत्व हिंदुत्व को जाग्रत और बलवती करें। तभी हिंदी का हिंदुस्तान को विश्वगुरू बनाने का संकल्प पूर्ण हो सकता है।
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