ओ३म्
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ऋषि दयानन्द (1825-1883) के समय में सृष्टि के आदिकाल से आविर्भूत ज्ञान व विज्ञान पर आधारित सत्य सनातन वैदिक धर्म विलुप्त हो चुका था। इसके स्थान पर देश में वैदिक धर्म का स्थान अविद्या, अन्धविश्वास, पाखण्ड, सामाजिक असमानता, पक्षपात व अन्यायपूर्ण व्यवहार तथा परम्पराओं से युक्त मत-मतान्तरों ने ले लिया था। मूर्तिपूजा, फलित ज्योतिष, मृतक श्राद्ध, अवतारवाद, जन्मना जातिवाद, बाल विवाह, बेमेल विवाह, छुआछूत, अशिक्षा आदि देश देशान्तर में प्रचलित थे। इन अविद्यायुक्त मत-मतान्तरों के आचार्य वेद विद्या से विहीन, विमुख तथा सत्यासत्य के विवेचन सहित सद्ज्ञान से दूर थे। हमारे सभी शास्त्र व वैदिक ज्ञान विशेष संस्कृत भाषा में हैं। स्थिति यह थी कि ऋषि दयानन्द के समय वैदिक संस्कृत भाषा की आर्ष प्रणाली अष्टाध्यायी-महाभाष्य व निरुक्त का प्रचार व अध्ययन-अध्यापन अवरुद्ध प्रायः था। वेदों के मन्त्रों के सत्य अर्थ जानने की किसी पण्डित व विद्वान में सामर्थ्य नहीं थी। वेदों का अध्ययन बन्द कर उसके स्थान पर 18 पुराणों का प्रचार था जिसमें अविश्वसनीय, काल्पनिक तथा अनेक अनावश्यक एवं मिथ्या बातें विद्यमान थी जिनसे धर्म का उत्थान होने के स्थान पर पतन हो रहा था।
देश-देशान्तर में अनेक मत-मतान्तर व उनके अविद्यायुक्त ग्रन्थ प्रचलित थे। देश की आधी जनसंख्या स्त्रियों सहित शूद्रों को वेदाध्ययन, वेदश्रवण व वेद विषयक जिज्ञासा करने का अधिकार नहीं था। देश में अंग्रेजों का राज्य था। कुछ राजा स्वतन्त्र थे। मुसलमानों ने अंग्रेजों से पहले देश के अनेक भागों पर राज किया। अनेक वीर व पराक्रमी आर्य-हिन्दू राजाओं ने मुस्लिम शासकों को युद्ध में पराजित किया था। वीर शिवाजी, महाराणा प्रताप तथा गुरु गोविन्द सिंह जी का इतिहास अति उज्जवल एवं गौरवपूर्ण है। विदेशी मतों वाले विधर्मी लोग अपनी अपनी जनसंख्या को छल, बल, भय व प्रलोभन आदि निन्द्य साधनों से धर्मान्तरण कर बढ़ा रहे थे। परतन्त्रता के काल में विधर्मी शासकों व लुटरों ने हमारे देश नालन्दा, तक्षशिला तथा चित्रकूट आदि के पुस्तकालयों को अग्नि के हवाले कर दिया था। इसके पीछे यही भावना दृष्टिगोचर होती है कि ये लोग आर्य-हिन्दू धर्म को अपमानित करना चाहते थे और ऐसा करके हमारा स्वाभिमान व गौरव को नष्ट करना चाहते थे। इनका प्रतिकार हमारे हिन्दू धर्म व संस्कृति के अनुयायी अपने अन्धविश्वासों एवं अविद्या के कारण नहीं कर पा रहे थे जिससे सनातन वैदिक सद्धर्म दिन प्रतिदिन पतन की ओर जा रहा था।
ऐसे कठिन समय में ऋषि दयानन्द का जन्म व आविर्भाव हुआ। ऋषि दयानन्द ने सच्चे शिव तथा मृत्यु पर विजय पाने के लिये अपनी आयु के बाईसवें वर्ष में गुजरात राज्य के मोरवी नगर के निकट टंकारा ग्राम का अपना पितृगृह त्याग दिया था। वह देश भर में घूमे थे। उन्होंने निरन्त 14 वर्षों तक देश के धार्मिक व तीर्थ स्थलों पर जाकर वहां उपलब्ध विद्वानों, योगियों तथा संन्यासियों की संगति कर उनके उपदेश सुनने सहित उनसे शंका समाधान एवं यत्र-तत्र उपलब्ध पुस्तकों का अध्ययन किया था। ऋषि दयानन्द ने योग्य योग गुरुओं से योग व आध्यात्म की शिक्षा व दीक्षा भी ली थी तथा ध्यान-समाधि की अवस्था में ईश्वर का साक्षात्कार कराने वाली योग विद्या का सफल अभ्यास किया था। ऋषि दयानन्द एक सिद्ध योगी थे। सिद्ध योगी समाधि अवस्था में ईश्वर का साक्षात्कार किये हुए योगी व संन्यासी को कहते हैं। ऋषि दयानन्द को निरन्तर 18 घंटे की समाधि लगाने का अभ्यास था। इस अवधि में वह ईश्वर के आनन्दस्वरूप में स्थित होकर आनन्द का लाभ करते थे। इस पर भी उनकी विद्या प्राप्ति की अभिलाषा व आकांक्षा पूरी नहीं हुई थी।
इस विद्या प्राप्ति की कामना से वह सन् 1860 में मथुरा में प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्द सरस्वती की पाठशाला में पहुंचे थे और उनसे लगभग तीन वर्ष तक अध्ययन कर वेद-वेदांग के व्याकरण का ज्ञान ग्रहण किया। अपने भावी जीवन में उन्होंने सभी शास्त्रीय ग्रन्थों पर पूर्ण अधिकार प्राप्त किया था। गुरु विरजानन्द सरस्वती की आज्ञा से ही उन्होंने अनार्ष ज्ञान व अविद्या को दूर कर वेद विद्या का देश देशान्तर में प्रचार करने का व्रत लिया था। सन् 1863 से आरम्भ करके उन्होंने अपनी मृत्यु 30 अक्टूबर सन् 1883 तक के 20 वर्षों में निरन्तर वेद प्रचार किया जिसमें ईश्वर, जीव तथा सृष्टि के सत्यस्वरूप के ज्ञान सहित सामाजिक एवं पारिवारिक नियम, परम्पराओं व अनुष्ठानों का देश देशान्तर में प्रचार सम्मिलित था। इसके साथ ऋषि दयानन्द अज्ञान, अन्धविश्वासों, पाखण्डों सहित मिथ्या सामाजिक परम्पराओं का खण्डन भी करते थे। इस कार्य को करने के लिये उन्होंने देश के अनेक भागों में जाकर उपदेश दिये, लोगों से वार्तालाप व उनका शंका समाधान किया, प्रायः सभी मत-मतान्तरों के आचार्यों से शास्त्रार्थ किये, आर्यसमाज रूपी वेद प्रचार आन्दोलन वा संगठन की स्थापना की तथा वैदिक ज्ञान को प्रचारित करने के लिये वेदभाष्य सहित सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कार विधि, आर्याभिविनय आदि अनेक ग्रन्थों का लेखन व प्रकाशन किया। ऋषि दयानन्द के इन कार्यों से वैदिक धर्म एवं इतिहास विषयक अनेक सत्य रहस्यों व तथ्यों का प्रकाश हुआ।
ऋषि दयानन्द ने मत-मतान्तरों की अविद्यायुक्त बातों की समीक्षा भी की है जिससे मत-मतान्तरों के लोग अविद्या व विद्या के सत्यस्वरूप से परिचित होकर सत्य का ग्रहण एवं असत्य का त्याग कर सकें। ऋषि दयानन्द मानते थे और यह है भी सत्य कि मनुष्य जाति की उन्नति का एकमात्र व प्रमुख कारण व आधार सत्य का ग्रहण करना और असत्य का त्याग करना ही है। ऋषि दयानन्द का जीवन इस नियम व सिद्धान्त का जीवन्त रूप था। ऋषि दयानन्द ने जिन प्रमुख वैदिक विकृतियों का खण्डन किया उनमें पाषाण मूर्तिपूजा, फलित ज्योतिष, मृतक श्राद्ध, अवतारवाद का विचार व सिद्धान्त, समस्त सामाजिक कुरीतियां, नाना प्रकार के पक्षपात व भेदभाव आदि सम्मिलित थे। उनका मूर्तिपूजा के खण्डन तथा सच्चिदानन्दस्वरूप, सर्वज्ञ, सर्वव्यापक, निराकारस्वरूप वाले ईश्वर का मण्डन विषयक काशी शास्त्री विश्व के इतिहास की अन्यतम घटना है। चैत्र शुक्ल पंचमी संवत् 1832 विक्रमी के दिन मुम्बई में आर्यसमाज की स्थापना के बाद उन्होंने देश भ्रमण का अपना कार्य जारी रखा और अनेक स्थानों पर आर्यसमाजों की स्थापनायें की। उनके द्वारा लाहौर में भी आर्यसमाज की स्थापना की गई थी। इस लाहौर की आर्यसमाज को मनीषी पं. गुरुदत्त विद्यार्थी, महात्मा हंसराज तथा लाला लाजपतराय आदि प्रमुख शिष्य मिले जिन्होंने कालान्तर में आर्यसमाज के इतिहास को स्वर्णिम बनाने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। सन् 1886 में दयानन्द ऐंग्लो वैदिक स्कूल व कालेज की स्थापना का श्रेय आर्यसमाज लाहौर तथा इन तीन महापुरुषों को ही मुख्यतः है। इस स्कूल व कालेज ने देश में अशिक्षा वा अविद्या के नाश का महत्वपूर्ण कार्य किया है। सरदार भगत सिंह आदि अनेक क्रान्तिकारी आर्यसमाज के संस्कारों तथा डी.ए.वी. स्कूल व कालेज की ही देन थे। भारत के पंजाब नैशनल बैंक के संस्थापक ऋषिभक्त लाला लाजपतराय थे। पं. गुरुदत्त विद्यार्थी वह शोध स्कालर थे जिनकी पुस्तक ‘वैदिक संज्ञा विज्ञान’ आक्सफोर्ड विद्यालय में निर्धारित हुई थी। पं. गुरुदत्त विद्यार्थी ने सभी पाश्चात्य प्राच्य विद्याओं के विद्वानों की मिथ्या वैदिक मान्यताओं का समीक्षापूर्वक खण्डन कर वैदिक धर्म की उल्लेखनीय सेवा की।
ऋषि दयानन्द ने मुम्बई के लोगों के अनुरोध पर वेद प्रचारार्थ आर्यसमाज संगठन व आन्दोलन की स्थापना की। ऋषि दयानन्द ने चार वेदों को प्राप्त किया तथा उनकी परीक्षा कर कुछ समय बाद उनके भाष्य का कार्य भी किया था। उन्होंने कर्मकाण्ड विषयक यजुर्वेद का सम्पूर्ण भाष्य संस्कृत व हिन्दी भाषा में किया है। ऋषि ने ऋग्वेद का भी आंशिक भाष्य किया है। उनका वेदभाष्य वैदिक साहित्य में सर्वश्रेष्ठ होने सहित अकाट्य तर्कों से युक्त एवं अखण्डनीय है। उनके पूववर्ती भाष्यकार सायण व महीधर आदि उनके समान मनुष्य जीवन को श्रेष्ठ व उत्तम बनाने वाले वेदार्थों से युक्त भाष्य नहीं कर सके थे। ऋषि दयानन्द ने इन भाष्यकारों के वेदभाष्यों के दोष भी प्रदर्शित किये हैं। यह भाष्यकार वेदभाष्य करने के अधिकारी विद्वान नहीं थे। इन्होंने वेदमन्त्रों के यथार्थ अर्थ नहीं किये। इसका कारण यह था कि महाभारत के बाद ऋषि दयानन्द की योग्यता का विद्वान उत्पन्न नहीं हुआ। ऋषि दयानन्द ने अपने ग्रन्थों में ईश्वर व जीवात्मा के सत्यस्वरूप का प्रकाश किया है। इससे विद्वानों सहित सामान्य लोग भी लाभान्वित हुए है। ऋषि दयानन्द ने सन्ध्या व अग्निहोत्र विषयक पंचमहायज्ञ विधि व संस्कारविधि पुस्तकें लिखकर भी वैदिक धर्म व संस्कृति की रक्षा तथा प्राचीन लुप्त ज्ञान के अन्वेषण व उसके प्रकाशन का महत्वपूर्ण कार्य किया है।
ऋषि दयानन्द की कृपा से आज देशवासियों को पूर्ण वैदिक जीवन पद्धति जिसका पालन वैदिक काल में होता था तथा सभी ऋषि, मुनि, योगी व गृहस्थी आदि करते थे? उस वैदिक जीवन शैली को पूर्णरूपेण संस्कारविधि सहित अपने अन्य ग्रन्थों के माध्यम से प्रस्तुत किया है। समाज से अन्धविश्वासों को दूर करने का सबसे अधिक प्रशंसनीय कार्य ऋषि दयानन्द, आर्यसमाज व इनके अनुयायियों ने ही किया है व अब भी कर रहे हैं। समाज से जन्मना जाति व्यवस्था के उन्मूलन की दिशा में भी आर्यसमाज ने महत्वपूर्ण व उल्लेखनीय कार्य किया है। जो व्यक्ति वैदिक साहित्य का स्वाध्याय करता है वह जानता है जन्मना जाति व्यवस्था का सम्पूर्ण वैदिक साहित्य में कहीं उल्लेख नहीं है। इसका कोई औचीत्य भी नहीं है। जन्मना जाति व्यवस्था समाज को तोड़ती व कमजोर करती है। यह देश को गुलाम बनाने तथा मनुष्यों में अन्याय की पोषक अवैदिक व्यवस्था है। इसके स्थान पर गुण, कर्म व स्वभाव पर आधारित वैदिक व्यवस्था ही श्रेष्ठ व पालनीय है। ऋषि दयानन्द व आर्यसमाज के प्रचार के कारण ही देश में बाल विवाह का उन्मूलन हुआ, बेमेल विवाह समाप्त हुए तथा गुण-कर्म-स्वभाव पर आधारित अन्तर्जातीय विवाह प्रचलित हुए। विधवा विवाह का आरम्भ भी आपद्धर्म के रूप में आर्यसमाज के प्रचार से ही सम्भव हुआ। आरम्भ में हमारे पौराणिक सनातनी भाईयों ने इन सब अन्धविश्वासों का विरोध किया था।
ऋषि दयानन्द और आर्यसमाज का देश को स्वतन्त्रता प्रदान कराने में भी सबसे अधिक योगदान है। देश की स्वतन्त्रता, सुराज्य व स्वराज्य का मंत्र ऋषि दयानन्द ने ही अपने अमर ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश के माध्यम से दिया था। इसके लिये उन्हें अपने प्राणों का त्याग करना पड़ा। ऋषि के जीवन व व्यवहार में एक प्रमुख विशेषता यह थी कि वह सत्य बोलते व सत्य का व्यवहार करते थे। यह हमारे देश के बहुत से लोगों को पसन्द नहीं आया। इसी कारण लोगों ने उनके वेदों पर आधारित सत्य सिद्धान्तों को स्वीकार नहीं किया व अविद्या व अन्धविश्वासों का पोषण किये जा रहे हैं। इसका परिणाम देश व समाज के लिये अच्छा नहीं होगा। सर्वांश में सत्य को ग्रहण किये बिना मनुष्य जाति की पूर्ण उन्नति कदापि नहीं हो सकती।
आर्यसमाज के देश व समाज के उत्थान में किये गये कार्यों वा योगदान पर बहुत कुछ कहा जा सकता है। यहां हम इतना ही कहेंगे कि यदि ऋषि दयानन्द न आते तो हमारे सर्वप्रिय तथा सर्वोत्तम वैदिक धर्म व संस्कृति की रक्षा न हो पाती। विधर्मी इसे अपना ग्रास बना रहे थे। वह इस कार्य में सफल हो जाते। इस दृष्टि से ऋषि दयानन्द और आर्यसमाज का देश की स्वतन्त्रता प्राप्ति व धर्म की रक्षा में सर्वोपरि योगदान व महत्व है। ज्ञान-विज्ञान से युक्त आधुनिक भारत के निर्माण में आर्यसमाज ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। आर्यसमाज की मान्यताओं एवं सिद्धान्तों के प्रभाव से अनेक मत-मतान्तरों ने भी अपना दृष्टिकोण बदला है। इनका परिणाम ही आज का आधुनिक भारत है जहां सबको समानता का अधिकार, धर्म-मत के चयन एवं प्रचार करने सहित शिक्षा प्रथम स्थान पर है। आर्यसमाज के स्थापना दिवस के अवसर पर हम अपने सभी वैदिक धर्मी भाईयों सहित पौराणिक भाईयों को भी बधाई देते हैं। ऋषि दयानन्द के कारण ही हम सब का प्रिय धर्म व संस्कृति बची है। इसे सभी बन्धुओं को स्वीकार करना चाहिये। यदि हम सब ऋषि दयानन्द के बताये मार्ग पर चल सकें तो यह देश व धर्म के लिये उत्तम होगा। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य
मुख्य संपादक, उगता भारत