पृथ्वी के समस्त प्राणधारियों को जीवन इस सूर्य से मिलता है। पृथ्वी सूर्य से ऊर्जा प्राप्त करती है और यही ऊर्जा इसकी सतह को गर्माती है। वैज्ञानिकों का मत है कि इस ऊर्जा का लगभग एक तिहाई भाग पृथ्वी को घेरने वाली गैसों के आवरण अर्थात वायुमंडल से निकलते समय छिन्न-भिन्न हो जाता है। सूर्य से मिली ऊर्जा जब पृथ्वी से टकराती है तो उसका लगभग 30 प्रतिशत भाग पृथ्वी की सतह और समुद्र की सतह से टकराकर वायुमंडल में परावर्तित होकर लौट जाता है। इस प्रकार पृथ्वी को गरमाने के लिए सूर्य से मिली ऊर्जा का मात्र 70 प्रतिशत भाग ही पर्याप्त होता है। इसी से पृथ्वी पर जीवन की सारी प्रक्रिया चलती रहती है, दूसरे शब्दों में इसे यूं भी कहा जा सकता है कि सूर्य से मिलने वाली ऊर्जा का मात्र 70 प्रतिशत भाग ही पृथ्वी पर जीवन चक्र को चलाने के लिए पर्याप्त है, और इसका 30 प्रतिशत भाग हर स्थिति में परावर्तित हो ही जाना चाहिए। यदि ऐसा नहीं होगा अर्थात 70 प्रतिशत से अधिक सौर ऊर्जा पृथ्वी पर रह जाएगी तो पृथ्वी अपेक्षा से अधिक गरम हो जाएगी, जिससे पृथ्वी के जीवधारियों का जीवन प्रभावित हेागा।
वैज्ञानिकों का यह भी मानना है कि वायुमंडल में भी जलवाष्प और कार्बन डाईऑक्साइड जैसी कुछ गैसें इस परावर्तित ऊर्जा के कुछ अंश को चूस लेती हंै, जिससे तापमान के स्तर को सामान्य सीमा में रखने में सहायता मिलती है। इस आवरण प्रभाव की अनुपस्थिति में पृथ्वी अपने सामान्य तापमान से 30 डिग्री सेल्सियस अधिक सर्द हो सकती है।
जब तक संसार में आर्य-संस्कृति का प्रचलन रहा तब तक यज्ञ के द्वारा प्राकृतिक संतुलन को बनाये रखने के गंभीर प्रयास किये जाते रहे। लोग प्रकृति से जितना लेते थे-उससे अधिक देने का प्रयास करते थे। जिससे पृथ्वी का वायुमंडल शुद्घ रहता था और किसी प्रकार का संकट पृथ्वी पर जीवन को लेकर नहीं था। परंतु समय के प्रवाह के साथ जैसे-जैसे वैदिक आर्य-संस्कृति का संकुचन आरंभ हुआ तो याज्ञिक प्रक्रिया का धीरे-धीरे दूसरे देशों से विलोपीकरण होता चला गया। आज तो स्थिति यह है कि याज्ञिक क्रियाओं का भारत में भी प्रचलन लगभग समाप्त सा ही हो गया है। दूसरी ओर मनुष्य ने भौतिक उन्नति करते-करते बड़ी तेजी से औद्योगिक विकास किया है। जिससे वायुमंडल में कूड़ा करकट भर गया है। फलस्वरूप औद्योगिक काल से पूर्व की स्थितियों की तुलना में आज वायुमंडल में कार्बन डाईऑक्साइड के स्तर में 30 प्रतिशत से अधिक की वृद्घि हो चुकी है। जिससे पृथ्वी की सतह से निकट की हवा और महासागरों के औसत तापमान में वृद्घि हो गयी है। इसी को वैश्विक तापवृद्घि या ग्लोबल वार्मिंग कहा जाता है।
कहने का अभिप्राय है कि मानव ने अपने मरने की तैयारी स्वयं कर ली है, और अब मानव द्वारा निर्मित वैश्विक भौतिक जगत की व्यवस्था इतनी दूषित हो गयी है कि कोई भी व्यक्ति किसी दूसरे के लिए समय देने या कुछ करने के लिए तैयार नहीं है। स्वार्थपूर्ण परिवेश में परमार्थ समाप्त हो गया है। ऐसे में ‘ग्लोबल वार्मिंग’ से युद्घ करने के लिए कौन सामने आये-यह भी आज का एक यक्ष प्रश्न है। मनुष्य ने जीवाश्म ईंधन का दहन और वनोन्मूलन करके धरती के साथ घोर अन्याय किया है, और उस अन्याय की प्रतिक्रिया अर्थात वैश्विक तापवृद्घि के चलते अपने ही अस्तित्व पर लगे प्रश्नचिन्ह को देखकर आज स्वयं दुखी है।
वैश्विक तापवृद्घि के दृष्टिगत वैज्ञानिक चेतावनी दे रहे हैं कि यदि इस पर नियंत्रण स्थापित नहीं किया गया तो जलवायु की चरम स्थिति की आवृत्ति या बारम्बारता में परिवर्तन संभावित है, जिससे बाढ़ एवं सूखे का खतरा बढ़ जाएगा। सर्दकाल में कमी आएगी और ग्रीष्म काल बढ़ जाएगी। दूसरे अल वीनो की बारम्बारता और इसकी तीव्रता प्रभावित हो सकती है और तीसरे वर्ष 2100 तक विश्व के औसत समुद्र स्तर में 9.88 सेंटीमीटर की वृद्घि संभावित है। वैज्ञानिकों के पास पिछले साढ़े छह लाख वर्ष के वैश्विक तापवृद्घि के आंकड़े अनुसंधान के उपरांत निकाले गये निष्कर्ष उपलब्ध हैं। जिनसे पता चलता है कि पृथ्वी के वायुमंडल में जितनी कार्बन डाईऑक्साइड इस समय है इतनी पिछले साढ़े छह लाख वर्ष में कभी नहीं हुई। इससे भी बड़ी चिंता की बात है कि इसके कम होने की भी कोई संभावना नहीं है।
1990 के पश्चात वैश्विक तापवृद्घि निरंतर बढ़ती जा रही है। 2003 में तो यूरोप में ‘लू’ के प्रकोप से लगभग 35,000 लोगों की मृत्यु हो गयी थी। इस प्रकार की तापवृद्घि के परिणामस्वरूप धु्रवों की बरफ पिछल रही है और पर्वतों पर ग्लेशियर घट रहे हैं। जिससे समुद्र का जलस्तर बढ़ रहा है। समुद्री स्तर बढऩे से जनसमूहों का पलायन, खाद्य आपूत्र्ति बाधित होने के कारण कुपोषण, रोगाणुओं के प्रसार में सहायक कीटों के हमलों में वृद्घि और जल जनित रोगों में वृद्घि होती जा रही है। जिससे संपूर्ण मानवजाति ही प्रभावित हो रही है।
वैज्ञानिकों की मान्यता है कि यदि इस प्रकार की परिस्थितियों पर रोक न लगायी गयी तो स्थिति और भी अधिक भयानक हो जाएगी और मलेरिया और डेंगू जैसे रोग तीव्रता से फैलकर विश्व के बड़े भाग को अपनी गिरफ्त में ले लेंगे। अच्छी वायु और अच्छा जल न मिलने के कारण मनुष्य की रोग निरोधक क्षमता में कमी आती जाएगी जिससे छोटे-छोटे रोगों पर नियंत्रण स्थापित करना भी मनुष्य के लिए कठिन हो जाएगा। ‘विश्व स्वास्थ्य संगठन’ के लिए उस समय छोटे-छोटे रोगों पर नियंत्रण स्थापित करना भी कठिन हो जाएगा।
विश्व स्वास्थ्य संगठन इस समय छोटे-छोटे द्वीपीय देशों के अस्तित्व को लेकर बड़ी कठिन स्थिति में फंसा हुआ है। पर्यावरण असंतुलन की स्थिति से निपटने के लिए आज भी बहुत से देश मनोवैज्ञानिक रूप से तैयार नहीं हैं। विश्व के अधिकांश देश ऐसे हैं-जिनके पास किसी गंभीर महामारी से लडऩे के लिए भी कोई सक्षम तंत्र उपलब्ध नहीं है। जबकि विश्व में सांस रोगों की समस्याएं बढ़ती जा रही हैं। भूस्खलन और बाढ़ों का प्रकोप भी बढ़ता ही जा रहा है।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक उगता भारत