जिन इतिहासकारों ने गुर्जरों को विदेशी जाति माना है उनमें डॉक्टर डीआर भंडारकर का नाम सबसे पहले लिया जा सकता है। यद्यपि यतेंद्र कुमार वर्मा, रतन लाल वर्मा , गणपतसिंह , मुल्तान सिंह वर्मा , स्वामी वासुदेवानंद तीर्थ , गौरीशंकर हीराचंद ओझा , डॉ दशरथ शर्मा , बी .एन. पुरी , सी. वी. वैद्य आदि विद्वान इस बात से सहमत नहीं हैं कि गुर्जर एक विदेशी जाति है। डॉक्टर डीआर भंडारकर गुर्जर्स पर शोध पत्र , जर्नल ऑफ दी बॉम्बे ब्रांच ऑफ द रॉयल एशियाटिक सोसायटी खंड – 21 , पृष्ठ 411 पर अपने उक्त मत को व्यक्त करते हैं।
डॉ भंडारकर और उनके मत का समर्थन करने वाले विद्वानों की मान्यता है कि गुर्जरों को ‘खजर’ जाति से जोड़कर देखा जाए । दूसरे , हूण गुर्जरों के साथ स्थायी रूप से बड़े पैमाने पर राजपूताना में बस गए थे – ऐसा भी स्वीकार किया जाए। डॉ भंडारकर और उनके साथियों के इस मत में कोई दम दिखाई नहीं देता । इन लोगों का खजर जाति का होना मात्र ही उनको गुर्जर के साथ स्थापित करने का कोई पर्याप्त आधार नहीं बन जाता । इसके अतिरिक्त हूणों के आक्रमण स्कंद गुप्त के काल में हुए हैं । उनका भी गुर्जरों की सामाजिक व्यवस्था के साथ कोई समन्वय स्थापित नहीं दीखता।
गुर्जर ईरानी मूल के थे ?
कुछ इतिहासकारों का ऐसा भी मानना है कि गुर्जरों का सम्बन्ध ईरानियों से रहा है , अर्थात गुर्जर ईरानी मूल के हैं । कैनेडी महोदय गुर्जरों को सूर्य का उपासक होने के कारण ईरानियों के साथ जोड़ने का बेतुका प्रयास करते हैं । उनका मानना है कि गुर्जर लोग ईरान से ही आए थे। हमारा मानना है कि कैनेडी महोदय की इस बात में भी कोई दम नहीं है। क्योंकि हम पहले ही स्पष्ट कर चुके हैं कि भारत सूर्योपासना करने वाले लोगों का देश रहा है । सूर्यवंशी शासक यहाँ पर सबसे पहले हुए । इसलिए सूर्य की उपासना करने वाले लोग केवल वही हो सकते हैं जो भारत की संस्कृति में विश्वास रखते हों और अपने आपको भारतीय पूर्वजों की सन्तान मानते हों ।
हमारा मानना है कि ईरान स्वयं कभी एक ‘आर्यान’ प्रांत के नाम से जाना जाता था । यह कोई अलग देश नहीं था । ‘आर्यान’ प्रांत होने से इसका संबंध स्वयं ही आर्यों और उनकी संस्कृति से जुड़ जाता है। ऐसे में यह स्पष्ट हो जाता है कि ईरान के पूर्वज भी आर्य संस्कृति के ही उपासक थे और वे स्वयं भी आर्य ही थे । यदि उन आर्य लोगों में सूर्योपासना का विचार देर तक बना रहा तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है । जब संपूर्ण भूमंडल पर आर्यों का शासन था तो आर्यान प्रांत पर भी उनका शासन था । इसलिए आर्यों की परम्पराएं वहां पर मिलती हैं तो इसका अभिप्राय यह नहीं हो जाता है कि आर्यान प्रांत से निकलकर कोई व्यक्ति यदि उस समय के अपने ही देश अर्थात आर्यावर्त में आ गया तो वह विदेशी हो गया । इसी बात को यदि कैनेडी महोदय इस प्रकार कहते कि भारत के आर्यों की ही सन्तानें ईरान में निवास करती थीं और ईरानी और गुर्जरों की बहुत सी बातें समान हैं , इसलिए यह दोनों एक ही वंश परंपरा के और एक ही संस्कृति के उत्तराधिकारी माने जाने चाहिए तो उनकी बात को माना जा सकता था । परंतु कहने का ढंग दूसरा होने से हम उनसे इस बात पर असहमत हैं । ईरान हमारे लिए विदेश नहीं था और वहां के लोगों की और भारत के लोगों की उस समय की परम्पराओं में कोई विशेष अन्तर भी नहीं था , दोनों एक थे , दोनों का कुल एक था , दोनों का वंश एक था , दोनों की परम्पराएं , दोनों की संस्कृति और दोनों का धर्म एक था । तब आज की कुछ समानताओं को देखकर वहां से गुर्जरों का निकास मानना सर्वथा अतार्किक ही है।
गुर्जर सीथियन मूल के थे ?
चंद्रबरदायी कृत ‘पृथ्वीराज रासो’ में राजपूतों की उत्पत्ति का वर्णन करते हुए बताया गया है कि यह अग्निकुंड से उत्पन्न हुए थे । जिनमें प्रतिहार , चालुक्य , चौहान और परमार क्षत्रिय वंश प्रमुख हैं । इस अग्निकुंड की चर्चा ‘हम्मीर रासो’ , ‘नैणसी री ख्यात’ , ‘वंशभास्कर’ में भी मिलती है ।अग्निकुंड की इस गाथा को सही मानकर डॉ भंडारकर , कर्नल टॉड , स्मिथ जैसे विद्वानों ने गुर्जरों का सम्बन्ध सिथियनों के साथ जोड़ने का प्रयास किया है।
वास्तव में ‘अग्निकुंड की गाथा’ को भी गलत ढंग से समझने का प्रयास किया गया है । हमें यह समझना चाहिए कि अग्निकुंड से किसी की उत्पत्ति नहीं हो सकती । हाँ , अग्निकुंड पर बैठकर संकल्प अवश्य लिया जाता है । भारतीय इतिहास में ऐसे अनेकों अवसर आए हैं , जब क्षत्रिय लोगों ने अपने देश व धर्म की रक्षा के लिए अग्निकुंड के समीप बैठकर सौगंध उठाई है । कुछ ऐसा ही आबू पर्वत पर रचे गए इस यज्ञ के अवसर पर हुआ था । जब हमारे क्षत्रियों ने भारतीय देश , धर्म और संस्कृति की रक्षा के लिए एक महान संकल्प लिया था । वास्तव में यह अग्निकुंड की घटना हमारे उन चार क्षत्रिय कुलों की यशोगाथा को जन्म देने वाली घटना है जिसने आगे चलकर भारत के लिए बहुत क्रांतिकारी कार्य किया , यद्यपि इसे इतिहास में उचित स्थान नहीं दिया गया।
अग्निकुंड की इस कहानी पर राजस्थान के इतिहासकार श्री देवीसिंह जी मंडावा लिखते है कि – “जब वैदिक धर्म ब्राह्मणों के नियंत्रण में आ गया था और बुद्ध ने इसके विरुद्ध बगावत कर अपना नया बौद्ध धर्म चलाया तो शनै: शनै: क्षत्रिय वर्ग वैदिक धर्म त्यागकर बौद्ध धर्मी बन गया । क्षत्रियों के साथ साथ वैश्यों ने भी बौद्ध धर्म अंगीकार कर लिया ।
क्षत्रियों के बौद्ध धर्म ग्रहण करने के पश्चात उनकी वैदिक परम्परायें भी नष्ट हो गई और वैदिक क्षत्रिय जो कि सूर्य व चंद्रवंशी कहलाते थे, उन परम्पराओं के सम्राट हो गये तथा सूर्य व चन्द्रवंशी कहलाने से वंचित हो गये । क्योंकि ये मान्यतायें और परम्परायें तो वैदिक धर्म की थी जिन्हें वे परित्याग कर चुके थे ।यही कारण है कि ब्राह्मणों ने पुराणों तक में यह लिख दिया कलियुग में ब्राह्मण व शुद्र ही रह जायेंगे व कलियुग के राजा शुद्र होंगे, बौद्ध के अत्याचारों से पीड़ित होकर ब्राह्मणों ने बुद्ध धर्मावलम्बी क्षत्रिय शासकों को भी शुद्र की संज्ञा दे डाली । दुराग्रह से ग्रसित हो उन्होंने यह भी लिख दिया कि कलियुग में वैश्य और क्षत्रिय दोनों लोप हो जायेंगे ।
उस काल में समाज की रक्षा करना व शासन चलाना क्षत्रियों का उतरदायित्व था, चूँकि वे बौद्ध हो गये थे अत: वैदिक धर्म की रक्षा का जटिल प्रश्न ब्राह्मणों के सामने उपस्थित हो गया । इस पर ब्राह्मणों के मुखिया ऋषियों ने अपने अथक प्रयासों से चार क्षत्रिय कुलों को वापस वैदिक धर्म में दीक्षित करने में सफलता प्राप्त कर ली । आबू पर्वत पर यज्ञ करके बौद्ध धर्म से वैदिक धर्म में उनका समावेश किया गया। यही अग्निकुंड का स्वरूप है ।वे प्राचीन सूर्यवंशी व चन्द्रवंशी ही थे इसलिए बाद में शिलालेखों में भी तीन वंश अपने प्राचीन वंश का हवाला देते रहे लेकिन परमारवंश ने प्राचीन वंश न लिखकर अपने आपको अग्निवंश लिखना शुरू कर दिया ।
कुमारिल भट्ट ई.700 वि. 757 ने बड़ी संख्या में बौद्धों को वापस वैदिक धर्म में लाने का कार्य शुरू किया जिसे आगे चलकर आदि शंकराचार्य ने पूर्ण किया । अत: इन चार क्षत्रिय वंशों को वैदिक धर्म में वापस दीक्षा दिलाने का कार्य उसी युग में होना चाहिए। आबू के यज्ञ में दीक्षा का एक ऐतिहासिक कार्यक्रम था जो छठी या सातवीं सदी में हुआ है । यह कोई कपोल कल्पना या मिथ नहीं था , बल्कि वैदिक धर्म को वापस सशक्त बनाने का प्रथम कदम था जिसकी स्मृति में बाद में ये वंश अपने आपको अग्निकुंड से उत्पन्न अग्निवंशी कहने लग गये ।आज भी आबू पर यह यज्ञ स्थल मौजूद है ।”
वास्तव में अग्नि कुंड की यह घटना भारत के इतिहास की एक बहुत ही महत्वपूर्ण और क्रांतिकारी घटना है , जब वैदिक संस्कृति के प्रति पूर्णत: समर्पित रहे आदि शंकराचार्य जी ने इस महान यज्ञ का आयोजन ,इस उद्देश्य से किया था कि भारत की संस्कृति को बचाने के लिए फिर से क्षत्रिय धर्म की स्थापना की जाए । क्योंकि वह इस बात को लेकर बहुत दुखी थे कि भारत की क्षत्रिय परंपरा को बौद्ध धर्म की अहिंसा का जंग लग चुका है । जिससे विधर्मियों को भारत पर आक्रमण करने का अवसर उपलब्ध होने लगा था । फलस्वरूप उन्होंने बौद्ध धर्म की अहिंसा के बढ़ते वर्चस्व पर लगाम लगाने के लिए और इस्लाम की खूनी तलवार का सामना करने के लिए इस यज्ञ का आयोजन इस उद्देश्य से कराया कि क्षत्रिय लोग फिर अपने आप को पहचानें और जो लोग देश , धर्म व संस्कृति की रक्षा के लिए अपने आप को समर्पित कर सकते हैं , वे अपना सर्वस्व देशहित न्यौछावर करने के उद्देश्य को लेकर सामने आएं ।
जिस पर क्षत्रियों के चार कुलों के योद्धाओं ने शंकराचार्य जी को यह विश्वास दिलाया कि वह संकल्प लेते हैं कि किसी भी स्थिति में भारत को गुलाम नहीं होने देंगे और भारत की संस्कृति के विनाश के जो भी षड्यंत्र भीतरी और बाहरी तौर पर रचे जा रहे हैं उन सबका डटकर सामना करेंगे। इतिहास की इतनी महत्वपूर्ण घटना को हल्के में करके दिखाया जाता है और यह कह दिया जाता है कि अग्नि कुंड से चार क्षत्रियों की उत्पत्ति हुई। इस मूर्खता को यदि वैज्ञानिक दृष्टिकोण से और वास्तविकता के सांचे में ढालकर हमारे समक्ष प्रस्तुत किया जाए तो इतिहास का गौरवपूर्ण पक्ष हमारे सामने आएगा। शंकराचार्य जी के इन महान कार्यों को देखकर ही महर्षि दयानंद ने उनके बारे में यह कहा है कि यदि उस समय वैदिक संस्कृति के उत्थान के लिए शंकराचार्य जी परिश्रम न कर पाते तो बहुत संभव था कि वैदिक संस्कृति उसी समय विलुप्त हो गई होती।
जो लोग इस घटना को सिथियनों के साथ गुर्जरों की उत्पत्ति से जोड़ते हैं उनसे यह पूछा जा सकता है कि इस घटना का सिथियनों से क्या मेल है ? आबू पर्वत आज भी भारत में है , शंकराचार्य जी भारत के थे , और प्रतिहार , सोलंकी , परमार और चौहान नाम के वे चारों क्षत्रिय कुल आज भी भारत में ही मिलते हैं जिन्होंने शंकराचार्य जी को उस समय यह विश्वास दिलाया था कि वे हर स्थिति में भारत की एकता और अखंडता के लिए काम करेंगे और भारत के भीतरी और बाहरी शत्रुओं से लड़कर उनका सफाया करने में किसी प्रकार का आलस्य , प्रमाद या संकोच नहीं करेंगे। इस घटना से यह भी समझना चाहिए कि गुर्जर जाति के लोगों ने अथवा योद्धाओं ने भारत की संस्कृति की रक्षा के लिए अपने आप को समर्पित किया था । उनके लिए भारत पहले था , भारत की संस्कृति पहले थी , भारत का धर्म और भारत की परंपराएं पहले थीं – बाकी सब कुछ बाद में था । ऐसे धर्म योद्धाओं और संस्कृति उद्धारकों को विदेशी मानना या उसके लिए अनावश्यक परिश्रम करना समय को नष्ट करना मात्र है।
जिन लोगों ने गुर्जर जाति को किसी कबीले के रूप में माना है , हमारा उनसे भी यह आग्रह है कि वह भी इस प्रकार की अतार्किक और असंगत बातों को परोसने से अपने आप को दूर रखें । कबीला शब्द अपने आप में एक ऐसी संस्कृति को दिखाने वाला शब्द है जहाँ एक कबीला दूसरे कबीले से लड़ता है। दूसरे के खून का प्यासा होता है , दूसरे को मिटा देना चाहता है । जबकि भारत में वर्ण व्यवस्था एक ऐसी पवित्र व्यवस्था है जिसमें एक वर्ण के लोग शेष वर्णों के लोगों के कल्याण के लिए अपना धर्म निभाते हैं , अपना कर्तव्य कर्म करने के लिए प्रयासरत रहते हैं। हमारे यहां वर्ण व्यवस्था जाति में परिवर्तित होने के उपरांत भी अपने आपको किसी एक मूल तने की शाखा मानती है। शाखा और कबीला दोनों में जमीन आसमान का अंतर है। कबीला एक अलग अस्तित्व खोजता है जबकि शाखा किसी मूल के साथ अपने आप को जोड़ कर देखती है । इसलिए हमारी सोच कभी भी हिंसक नहीं थी , ना है और ना होगी ।क्योंकि हम किसी एक मूल की शाखा हैं और अपने आपको अपने उसे मूल से जुड़ा रहने में गर्व और गौरव की अनुभूति करते हैं। हम अनेकों वर्गों ,संप्रदायों ,जातियों , उप जातियों के होकर भी अपने एक मूल से जुड़े होने के कारण स्वयं को एक परिवार का सदस्य अनुभव करते हैं और वैसे ही रहने के सहज अभ्यासी हैं जैसे परिवार में परिवार के लोग रहते हैं। जबकि कबीला वाले लोग इस प्रकार नहीं रहते।
कर्नल टॉड गुजरात के चापों को सीथियन मानते रहे । क्योंकि चाप उनकी दृष्टि में विदेशी थे और चाप गुर्जरों की एक शाखा है ,साथ ही सोलंकियों का संबंध भी चापों से रहा है , इसलिए टॉड की मान्यताओं को उनके समर्थक भारतीय लेखकों ने सही मानते हुए यह स्थापित करने का प्रयास किया कि गुर्जर लोग भी विदेशी थे । हमारा मानना है कि कर्नल टॉड की उक्त मान्यता में दोष के अतिरिक्त और कुछ नहीं है , इसलिए उसे गुर्जरों के बारे में सही मानना उचित नहीं है।
गुर्जरों को विदेशी मानने वाले विद्वानों के मतों का निष्कर्ष
जिन विद्वानों का मत है कि गुर्जर लोग विदेशी थे उनके मत का सार संक्षेप इतना है कि ये लोग गुर्जरों को विजेता के रूप में भारत आना स्वीकार करते हैं। विभिन्न इतिहासकारों ने यूची ,खर्जर , शक , हूण , कुषाण , तुखार , कुसुर आदि से उनका सम्बन्ध होना स्थापित किया है । इन विद्वानों की मान्यता यह भी है कि मध्य एशिया , समरकंद, बलखबुखारा , ताहिया , गॉर्जिया , सीस्तान (ईरान ) खोतान , कैस्पियन सागर का निकटवर्ती स्थान ख़्वारेजम ,अफगानिस्तान आदि को अलग-अलग रूप से गुर्जरों का इतिहास मूल स्थान माना जाए ।
जब गुर्जरों को या किसी भी जाति को हमारे ये तथाकथित विद्वान लेखक विदेशी सिद्ध करने का प्रयास करते हैं तो वे यह भूल जाते हैं कि वह जिन स्थानों का नाम भारत की किसी विशेष जाति को विदेशी सिद्ध करने के लिए ले रहे हैं वास्तव में उनके द्वारा बताए जाने वाले वे स्थान तो मूल रूप में भारत के ही एक अंग रहे हैं । यहां पर भी यही बात है कि जितने भी स्थान इन विद्वानों ने ऊपर गिनाए हैं कि गुर्जर जाति संभावित रूप से इन -इन स्थानों से निकलकर के भारत में आई – भी मूल रूप में भारत के ही अंग रहे हैं । इसलिए भारत में गुर्जर जाति को इन स्थानों से निकलने के आधार पर विदेशी नहीं माना जा सकता।
वास्तव में भारत की प्राचीन काल से चली आ रही क्षत्रिय परंपरा की प्रतिनिधि जाति के रूप में गुर्जर जाति को माना जाना न्यायोचित होगा । इसका कारण यह है कि इसने ही वह गुरुतर दायित्व निभाया जो आदि शंकराचार्य जी ने आबू अग्निकुंड पर क्षत्रियों को प्रदान किया था अर्थात देश , धर्म व संस्कृति की रक्षा का संकल्प लेकर दीर्घकाल तक मुस्लिम आक्रांताओं को भारत में प्रवेश करने से रोका।
यदि गुर्जर जाति विदेशी होती तो विदेशियों से लड़ने के लिए वह सीमा पर अपने आपको समर्पित ना करती।
यहां पर हम अरबवासियों को इस समय विदेशी मान रहे हैं । यद्यपि हमारा उनके बारे में भी यह स्पष्ट मानना है कि अरब भी कभी वैदिक संस्कृति का गढ़ रहा था । उसके अनेकों स्पष्ट प्रमाण हैं जिनसे यह सिद्ध होता है कि मक्का और मदीना या अरब के अन्य ऐतिहासिक स्थलों में भी कभी वैदिक धर्म ध्वजा ही फहराती थी। जब अरब वाले भारत की ओर चले तो उनका उद्देश्य भारत की संस्कृति और धर्म का सर्वनाश कर अपने मजहब और अपनी संस्कृति का परचम फ़हराना था। उनकी यह सोच उन्हें पहले दिन से ही भारत से अलग करती है । विपरीत मजहब तथा विपरीत सोच एक अलग देश को पैदा करते हैं । उनका मजहब , उनकी सोच और उनका आक्रमण करने का उद्देश्य यह सब कुछ ऐसे थे जो भारत को मिटाना चाहते थे । जबकि गुर्जर प्रतिहार लोगों का या योद्धाओं का उद्देश्य था कि उस विपरीत सोच , विपरीत मजहब और विपरीत संस्कृति को भारत की संस्कृति को मिटाने में सफल नहीं होने दिया जाएगा। इस चिंतन को भी तर्क तराजू पर तौल कर देखने की आवश्यकता है और यह समझने की आवश्यकता है कि जो लोग इस देश को अपना देश मानकर इसके लिए अपना सब सर्वस्व बलिदान करने को तैयार थे वह भारत के ही थे , किसी अन्य देश के नहीं हो सकते।
अंग्रेजों ने चलाया था भारतीयों को विदेशी सिद्ध करने का कुचक्र
‘आर्यों का आदि देश और उनकी सभ्यता’ – नामक अपनी पुस्तक में की प्रस्तावना में स्वामी विद्यानंद सरस्वती जी पृष्ठ संख्या 9 व 10 पर , अंग्रेजों के द्वारा किस प्रकार भारत में आर्यों सहित अनेकों जातियों को विदेशी सिद्ध करने का कुचक्र किन उद्देश्यों से प्रेरित होकर चलाया ? – इस पर प्रकाश डालते हुए 1899 ई0 में मूल रूप से और 1936 ई0 में पुनः प्रकाशित ‘संस्कृत साहित्य का इतिहास ‘ के लेखक ऑर्थर ए. मैकडानल को उद्धृत करते हुए उस पुस्तक के कुछ अंशों को इस प्रकार लिखते हैं : —
1 – आर्यों के आक्रमण के बाद बड़ी तेजी से आर्य सभ्यता ने भारत उपखंड में एक अनोखा विस्तार कर लिया । पृष्ठ 72
2 – वास्तव में भारत में इतिहास का अस्तित्व ही नहीं है । ऐतिहासिक अस्मिता का इतना अभाव है कि सारे संस्कृत साहित्य पर इसकी छाया पड़ी है और कालक्रम का तो संस्कृत साहित्य में सर्वथा अभाव है। पृष्ठ – 10
3 — भारतीयों ने इतिहास लिखा ही नहीं , क्योंकि उन्होंने कभी कोई ऐतिहासिक कार्य नहीं किया ।
पृष्ठ 11
4 — भारत पर प्रथम आक्रमण पश्चिम से आर्यों ने किया । वह पश्चिमोत्तर घाटियों पर उतरे जहां भारत की समतल भूमि पर सदा से आक्रमणों की लहरें आती रहीं । पृष्ठ 40
5 — इतिहास पूर्व काल में जिन आर्यों ने भारत को जीता था वे स्वयं पुराने समय से बाहरी आक्रमणों के शिकार होते चले आए थे । पृष्ठ 408
6 – बेहिस्तून तथा पर्सीपोलिस के शिलालेख बताते हैं कि साइरस – 1 का पुत्र दरायूस हिस्तेसपीस केवल गांधार पर ही नहीं , भारत के लोगों पर भी राज्य करता था । हीरोडोटस भी कहता है कि वह बादशाह उत्तर भारत पर शासन करता था । ईरानी साम्राज्य को भारत सबसे कीमती भेंट देता था तथा जिस सोने के रूप में वह दी जाती थी वह किसी पूर्वी मरुस्थल से आता था । जिसे खोदने वाली चीटियां लोमड़ी से भी बड़ी होती थीं । पृष्ठ 409
7 — ईसा पूर्व 120 से 178 ईसा के बाद तक कुषाण जातियां भारत पर आक्रमण करने में अगवा थीं । उसकी स्मृति भारत के लोगों ने शक वर्ष के रूप में आज तक संजोकर रखी हैं । इसका आरंभ ईसवी सन 78 से होता है। जब उस जाति के सबसे बड़े राजा कनिष्क का राज्याभिषेक हुआ था । इसके बाद शकों के आक्रमण होते रहे । भारत के अनेक राज्यों के टुकड़े हो गए। ईस्वी सन् 1000 ( पूर्णतया झूठ ) के आसपास भारत को मुसलमानों ने जीता । पृष्ठ 413
इस प्रकार भारत सदा से हारने वाला देश रहा है — यह सार संक्षेप है , उस इतिहास का जिसे झूठा होते हुए भी हमने अपनी मानसिक दासता के कारण ”आंग्ल वाक्यम प्रमाणम” के अनुसार स्वीकार किया हुआ है । ”
हमने झूठे इतिहास को पढ़ा और उसको सच मानकर अपने विद्यालयों में भी बच्चों को पढ़ाना आरम्भ किया। उसका परिणाम यह निकला कि झूठ हमारे मन मस्तिष्क में एक सत्य के रूप में स्थापित हो गया। फलस्वरूप 4 सितंबर 1977 को संसद में बेहद शर्मनाक दृश्य उपस्थित हुआ , जब राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत सदस्य फ्रैंक एंथोनी ने मांग की थी कि संविधान के आठवें परिशिष्ट में परिगणित भारतीय भाषाओं की सूची में से संस्कृत को निकाल देना चाहिए। क्योंकि यह विदेशी आक्रांताओं अर्थात आर्यों के द्वारा लाई जाने के कारण विदेशी भाषा है।
स्वामी विद्यानंद जी ही हमें बताते हैं कि सन 1978 के प्रारंभ में भारत ने अपना पहला उपग्रह अंतरिक्ष में छोड़ा था । उसका नाम भारत के प्राचीन वैज्ञानिक आर्यभट्ट के नाम पर रखा गया था । इस अवसर पर 23 फरवरी 1978 को द्रमुक मुनेत्र कड़गम के प्रतिनिधि के0 लक्ष्मणन ने राज्यसभा में मांग की थी कि भारतीय उपग्रह का नाम आर्यभट्ट नहीं रखा जाना चाहिए था , क्योंकि यह एक विदेशी नाम है।”
कहने का अभिप्राय है कि चाहे वह आर्य लोग हों या फिर गुर्जर जाति के योद्धा हों ,इन सबको विदेशी सिद्ध करने का षड्यंत्र केवल इसलिए रचा गया कि यदि इनको विदेशी घोषित कर दिया जाएगा तो जो वास्तव में विदेशी हैं या विदेशी मूल के मजहब या सोच में विश्वास रखते हैं या विदेशी चिंतन से इस देश को हांकने का प्रयास करना चाहते हैं या भारत की संस्कृति को हेय दृष्टि से देखकर किसी बाहरी संस्कृति को यहां पर थोपना चाहते हैं , उन लोगों के प्रयास तभी फलीभूत हो सकते हैं। अतः षड्यंत्र को पहचानने की आवश्यकता है और यह सोचने की भी आवश्यकता है कि जब हमारे आर्यावर्त का इतिहास हमारे पास है तो आर्य और आर्य से उत्पन्न जातियां यहीं कि मूल निवासी हैं। दूसरे आर्य, आर्यभाषा और आर्यराष्ट्र की जिस सोच को लेकर हमारे ऋषि मुनि चले थे उसको आज हम हिंदी , हिंदू , हिंदुस्तान के नाम से जानते हैं। उसका रूपांतरण चाहे हो गया हो लेकिन शब्दों का अर्थ वही है जो आर्य , आर्यभाषा और आर्य राष्ट्र या आर्यावर्त का था ।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत
मुख्य संपादक, उगता भारत