ईश्वर है और वह अनुमान व प्रत्यक्ष प्रमाण से सिद्ध है

ओ३म्
==========
प्रायः सभी मत-मतान्तरों में ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार किया गया है परन्तु उनमें से कोई ईश्वर के यथार्थ स्वरूप को जानने तथा उसका अनुसंधान कर उसे देश-देशान्तर सहित अपने लोगों में प्रचारित करने का प्रयास नहीं करते। ईश्वर यदि है तो वह दीखता क्यों नहीं है, इसका उत्तर भी मत-मतान्तरों के पास नहीं है। ईश्वर का अवतार मानने वाले इस प्रश्न पर मौन हैं कि आज की परिस्थितियां इतिहास में पहले से कहीं अधिक खराब हैं तो फिर आजकल ईश्वर का अवतार क्यों नहीं हो रहा है। आज भारत मे गुरुडम प्रचलित है। अनेक आचार्यों के अनुयायी अपने-अपने आचार्य की ईश्वर की तरह से पूजा करते हैं। यह आचार्य न तो स्वयं का ईश्वर होने का खण्डन करते हैं और न ही उनमें से कोई ईश्वर जैसा कार्य करने की सामथ्र्य रखते हैं। आर्यसमाज की ओर देखें तो आर्यसमाज के अनुयायियों का सबसे अधिक विश्वासयोग्य ग्रन्थ वेद, उपनिषद, दर्शन एवं सत्यार्थप्रकाश आदि हंै। सत्यार्थप्रकाश में ईश्वर के संबंध में विस्तार से चर्चा की गई है। ईश्वर है या नहीं? है तो कहां है? कैसा है? वह उत्पत्ति व नाश धर्मा है अथवा नहीं है, सृष्टि का कर्ता कौन है? सृष्टि कब बनी? सृष्टि की प्रलय कब व क्यों होगी? मनुष्य का जन्म क्यों होता है और इसे सुख व दुःख मिलने के कारण क्या हैं? क्या मनुष्य दुःखों से छूट सकता है? दुःखों से छूटने के उपाय क्या हैं आदि अनेकानेक प्रश्नों के उत्तर सत्यार्थप्रकाश में दिये गये हैं। सत्यार्थप्रकाश की सभी बातें तर्क एवं युक्ति सहित ईश्वर द्वारा दिये गये वेदज्ञान के आधार पर प्रस्तुत की गई हैं। सत्यार्थप्रकाश की बातें सृष्टिक्रम के अनुकूल होने के साथ विश्वसनीय हैं। कोई मान्यता व सिद्धान्त काल्पनिक व मनगढ़न्त न होकर वह सब सत्य हैं जिसका विश्वास आत्मा को विचार, चिन्तन, ऊहापोह व साधना करने पर सत्य सिद्ध होता है। सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ में ईश्वर के अस्तित्व की सिद्धि पर भी चर्चा है और उसकी सिद्धि में अनेक तर्क व प्रमाण दिये गये हैं। हम सत्यार्थप्रकाश के आधार पर ईश्वर की प्रत्यक्षता पर कुछ विचार इस लेख में प्रस्तुत कर रहे हैं।

हम व आर्यसमाज ईश्वर को मानता है। ऋषि दयानन्द ने ईश्वर के सत्यस्वरूप का प्रचार करने के साथ उसकी स्तुति, प्रार्थना तथा उपासना पर बल दिया है। हमसे यह प्रश्न किया जा सकता है कि ईश्वर के अस्तित्व की सिद्धि कीजिये? हमारा मानना है कि ईश्वर की सिद्धि सभी प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से होती है। कुछ बन्धु कह सकते हैं कि ईश्वर को प्रत्यक्ष प्रमाणों से सिद्ध नहीं किया जा सकता। उन बन्धुओं के लिये हमारी ओर से यह प्रश्न हो सकता है कि वह प्रत्यक्ष का क्या अर्थ करते हैं? प्रत्यक्ष ज्ञान के यथार्थ स्वरूप पर महर्षि गौतम के न्याय दर्शन के एक सूत्र में प्रकाश पड़ता है। वह सूत्र है ‘इन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्नं ज्ञानमव्यपदेश्यमव्यभिचारि व्यवसायात्मकं प्रत्यक्षम्।’ इस सूत्र का अर्थ है कि मनुष्य के शरीर में जो श्रोत्र, त्वचा, चक्षु, जिह्वा, प्राण और मन आदि इन्द्रिय व अवयव हैं, इनका अपने विषयों शब्द, स्पर्श रूप, रस, गन्ध, सुख, दुःख, सत्य-असत्य के साथ सम्बन्ध होने से ज्ञान उत्पन्न होता है, यदि वह ज्ञान भ्रान्तिरहित है तो उस ज्ञान को प्रत्यक्ष कहते हैं।

अब हम विचार करते हैं कि हम अपनी इन्द्रियों तथा मन से जो प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त करते हैं वह ज्ञान गुणों का होता है गुणी का नहीं। गुणी वह पदार्थ है जिसमें गुण विद्यमान व निहित होते हैं। जैसे त्वचा, नेत्र, जिह्वा तथा ध्राण इन्द्रियों से स्पर्श, रूप, रस और गन्ध का ज्ञान होने से इन चारों गुणों की गुणी, आश्रय व आधार जो पृथिवी होती है उसका प्रत्यक्ष ज्ञान आत्मायुक्त मन से किया जाता है। इसी प्रकार इस प्रत्यक्ष सृष्टि में रचना व ज्ञान आदि विशेष गुणों के प्रत्यक्ष होने से परमेश्वर का भी प्रत्यक्ष होता है। जब आत्मा मन और मन इन्द्रियों को किसी विषय में लगाता है, मान लीजिये कि वह चोरी आदि बुरी वा परोपकार आदि अच्छी बातों के करने का जिस क्षण में आरम्भ करता है, उस समय जीव की ‘इच्छा, ज्ञानादि उसी इच्छित (चोरी व परोपकार) विषय पर झुक जाते हैं। उसी क्षण में आत्मा के भीतर से बुरे काम करने में भय, शंका और लज्जा तथा अच्छे कामों के करने में अभय, निःशंकता और आनन्दोत्साह उठता है। यह भय, शंका, लज्जा, उत्साह, आनन्द व निःशंकता जीवात्मा में उसकी अपनी ओर से नहीं उत्पन्न नहीं होते अपितु परमात्मा द्वारा आत्मा में प्रेरणा द्वारा उत्पन्न किये जाते हैं।

इसके अतिरिक्त जब जीवात्मा शुद्ध होकर परमात्मा का विचार करने में तत्पर रहता है उस को उसी समय आत्मा और परमात्मा दोनों प्रत्यक्ष होते हैं। जब विचार करते हुए ध्यान व समाधि की अवस्था में आत्मा को परमात्मा का प्रत्यक्ष होता है तो अनुमान आदि से परमात्मा का ज्ञान होने में क्या सन्देह है? क्योंकि कार्य को देखकर उसके कारण का अनुमान होता है।

अतः हम ईश्वर की सिद्धि सृष्टि के सूर्य, चन्द्र, पृथिवी, अग्नि, वायु, जल, आकाश आदि पदार्थों सहित मनुष्यों, विभिन्न प्राणियों तथा नाना प्रकार के फूल, फल, वनस्पतियों आदि पदार्थों में निहित रचना विशेष गुणों व उन गुणों के अधिष्ठाता तत्व व सत्ता के अनुमान के आधार पर तथा इन विषयों का आत्मायुक्त मन से चिन्तन व ध्यान करने पर जो प्रत्यक्ष अनुभव करते है, उसके आधार पर परमात्मा की सत्ता को स्वीकार करते हैं।

यह पूरा संसार हमारी आंखों के सामने प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होता है। इसका प्रत्यक्ष हम आंखों से देखने के साथ इसे छूकर, शब्दों को सुनकर तथा जिह्वा से नाना प्रकार के रसों को अनुभव कर करते हैं। जब हम इस सृष्टि के कर्ता के विषय में विचार करते हैं तो हमें इस संसार का निमित्त कारण का होना अनुमान के आधार पर सिद्ध होता है परन्तु वह परमेश्वर है कहां व कैसा है, इसका प्रत्यक्ष ज्ञान आत्मायुक्त मन से, चिन्तन व ध्यान करने पर होता है। ऋषि दयानन्द ने वेदों सहित ध्यान व समाधि के द्वारा ईश्वर के जिस सत्यस्वरूप को प्रस्तुत किया है वही इस सृष्टि का उत्पत्तिकर्ता है व हो सकता है और वही अपने रचना विशेष गुण से प्रत्यक्ष अनुभव होता है। ईश्वर का स्वरूप है ‘सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता’। हम विचार करते हैं तो पाते हैं कि यदि हम ईश्वर के इस स्वरूप में सर्वव्यापक सर्वज्ञ चेतन सत्ता को न माने तो यह सृष्टि इस रूप में उत्पन्न होकर संचालित नहीं हो सकती है। अतः ईश्वर है वह अनुमानादि प्रमाणों से सिद्ध है और वह आत्मायुक्त मन से चिन्तन करने पर प्रत्यक्ष भी होता है। महर्षि दयानन्द आदि अनेक योगियों ने उसका प्रत्यक्ष व साक्षात्कार किया था। हम ऋषि दयानन्द के ग्रन्थों को पढ़कर आश्वस्त होते हैं कि ईश्वर है और वह इस सृष्टि का उत्पत्तिकर्ता, धारण-पालन-रक्षक होने सहित प्रलयकर्ता है। उसी ने हम मनुष्यों सहित सभी प्राणियों को बनाया है। उसी का ध्यान व उपासना करने से हमें सुख मिलता है। उसको प्राप्त होकर मनुष्य के सभी क्लेश नष्ट हो जाते हैं और वह जन्म-मृत्यु रूपी आवागमन से छूट कर मोक्ष को प्राप्त हो जाता है। इस लेख को विराम देते हुए हम यह भी कहना चाहते हैं कि जिस प्रकार दूध में मक्खन व घृत होता है परन्तु दिखाई नहीं देता, तिलों में तेल होता है परन्तु दिखाई नहीं देता, दो मनुष्यों के शरीर एक जैसे होते हैं परन्तु वह अपने ज्ञान व आचरण से पहचाने जाते हैं इससे उनमें पृथक पृथक व स्वरूप वाले एक चेतन, अल्पज्ञ, एकदेशी, ससीम आदि गुणों में समान आत्मा का अनुमान होता है, उसी प्रकार से परमात्मा का भी समस्त ब्रह्माण्ड में सर्वव्यापक रूप से विद्यमान होना सिद्ध है। ओ३म् शम्।

-मनमोहन कुमार आर्य

Comment: