वेद, महर्षि दयानंद और भारतीय संविधान-52
भारत की राजभाषा हिंदी की संवैधानिक स्थिति
डा. डी.डी. बसु लिखते हैं-‘संविधान के निर्माताओं को शासकीय पत्राचार के माध्यम के रूप में (भारत में तत्समय प्रचलित 1652 से अधिक भाषाओं में) इनमें से कुछ भाषाओं को चुनना था, जिससे कि देश में अनावश्यक भ्रम न रहे। यह सौभाग्य की बात है कि इन 1652 भाषाओं को बोलने वाले समान अनुपात में नही थे और 18 भाषाएं भारत की प्रमुख भाषाओं के रूप में सरलता से चुनी जा सकीं। ये भाषाएं देश की जनसंख्या के 91 प्रतिशत लोग प्रयोग करते हैं। इनमें से हिंदी यह दावा कर सकती है कि 46 प्रतिशत लोग उसका प्रयोग करते हैं। अत: हिंदी को संघ की राजभाषा के रूप में विहित किया गया और यह सिफारिश की गयी कि हिंदी का विकास इस प्रकार किया जाए कि वह भारत की सामासिक संस्कृति के सभी तत्वों की अभिव्यक्ति का माध्यम बन सके।
ऐसी व्यवस्था भारत के संविधान का अनुच्छेद 351 करता है। जयहिंद स्वतंत्रता संघर्ष के दिनों में हमारा एक पवित्र और उत्कृष्ट भावना को प्रदर्शित करने वाला नारा था। मौ. इकबाल ने जो सारे जहां से अच्छा हिंदुस्तां हमारा का गीत बनाया था उसी की एक पंक्ति ‘हिंदी (अर्थात हम हिंद के रहने वाले लोग) हैं हम वतन हैं हिंदोस्तां हमारा’ ये है। इसमें हिंदी हमारी राष्ट्रीयता का प्रतीक शब्द है। संविधान के अनुच्छेद 351 में इस प्रकार हिंदी को राजभाषा घोषित करना बहुत ही उचित था। परंतु यह समझ नही आता कि जब देश का विभाजन भाषा और संप्रदाय के नाम पर 1947 में हो ही गया था तो हिंदी को उसी समय राष्ट्रभाषा क्यों नही बना दिया गया था? तुष्टिकरण और छदम् धर्मनिरपेक्षता की भेंट हिंदी का गौरव चढ़ा दिया गया। (ऋग्वेद 10/19/2) में सं वद ध्वम् आया है। उस सूक्ति की व्याख्या करते हुए स्वामी वेदानंद तीर्थ जी महाराज लिखते हैं-तुम एक सा बोलो। चाल की समानता के लिए बोल की समानता अत्यंत आवश्यक है। बोली व भाषा के भेद के कारण बहुधा विचित्र किंतु निरर्थक झगड़े हुए हैं। एकता स्थापित करने के लिए एक भाषा का होना अत्यंत आवश्यक है। एक भाषाभाषी लोग एक गुट बना लेते हैं। प्राय: उनका दूसरी भाषा बोलने वालों से संपर्क न्यून ही रहता है। फलत: उनसे उचित संबंध स्थापित नही हो पाता, अत: मनुष्यों की बोली, भाषा, उक्ति, उच्चार एक सा होना चाहिए।
भाषा शब्द में ‘भा’ का अभिप्राय ज्ञान की दीप्ति-तेजोमयी ज्ञान-विज्ञान है तो दूसरा इसका अभिप्राय जो यहां अधिक सटीक माना जाता है वो भाव प्रकाशन भी है। अत: भाषा भाव प्रकाशन का वह माध्यम है जो तेजोमयी ज्ञान विज्ञान की गूढ़ता और सूक्ष्मताओं को हमें समझाने व बताने में सहायता करती है। इस दृष्टिकोण से और इस परिभाषा से राष्ट्र के भीतर एक भाषा का प्रचलन होना बहुत ही आवश्यक है। विभिन्न भाषाएं विभिन्न गुटों को जन्म देती हैं। जिससे समाज में बिखराव उत्पन्न होता है। भाषा के विषय में यह माना जाना कि वह साम्प्रदायिक होती है, नितांत भ्रामक है। भाषा को साम्प्रदायिक वो लोग बनाते हैं जो सांप्रदायिक सोच रखते हैं और उसके गुट या समुदाय के लिए किसी अपनी भाषा के प्रति पूर्वाग्रह रखते हैं। उस भाषा को वह अपनी निजता और अस्मिता से जोड़कर देखते हैं। हां, भाषाएं जितनी नई होती हैं, अथवा जितनी कम प्राचीन होती हैं, वो उतने ही अनुपात में हमें ज्ञान विज्ञान की गूढ़ता और सूक्ष्मताओं से परिचित कराने में अक्षम होती हैं। बस यही कारण है कि विश्व की सबसे प्राचीन भाषा संस्कृत जितना अधिक हमें ज्ञान विज्ञान की गूढ़ता और सूक्ष्मताओं से परिचित करा सकती हैं, उतना कोई अन्य भाषा नही करा सकती है। उस संस्कृत की आज यदि कोई उत्तराधिकारिणी भाषा है तो वह हिंदी है। इसलिए हिंदी को भारत की राजभाषा का सम्मान दिया गया। हिंदी इस सम्मान की पात्र थी, इसलिए उसे यह सम्मान मिलना भी चाहिए था।
मनु महाराज कहते हैं :
सर्वेषां तु स नामानि कम्र्माणि च पृथक्पृथक।
वेद शब्देभ्य एवादौ संस्थाश्च निर्ममे।।
वेदानंद तीर्थ जी इस पर लिखते हैं-सबके नाम और कर्म और सारी रचनाएं वेद शब्दों के अनुसार ही आरंभ में निर्माण कीं। अथवा उनकी रचना वह पूर्वया निविदा पुरानी रीति से करता है-सूय्र्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वम कल्पयत धाता-जगद्विधाता ने सूर्य और चंद्रमा को यथापूर्व-पूर्वकल्प की भांति बनाया। पूर्वया निविदा और यथापूर्व ने एक और सूचना भी दी कि यह सृष्टि थी, और इस सृष्टि के पश्चात भी सृष्टि होगी। सृष्टि का चक्र चलता रहता है। सृष्टि के पीछे प्रलय, प्रलय के पीछे सृष्टि इस प्रकार यह प्रवाह चलता है। ज्ञान की यह गूढ़ता और सूक्ष्मता हमें केवल संस्कृत से ही मिलती है। अन्य भाषाओं में जाकर गूढ़ ज्ञान के निर्विवाद विषय भी विवादित बन जाते हैं? जैसे सृष्टि उत्पत्ति प्रकरण, जीवोत्पत्ति प्रकरण, आदि आदि। ऐसे बहुत से विषयों पर बाद की भाषाओं ने और भाषाविदों ने अपनी अपनी मान्यता आरोपित कर दी हैं। जिससे संसार में मतभेद उत्पन्न हुए और लोगों में विभाजनवाद कीप्रक्रिया बढ़ी। क्योंकि सबने अपनी अपनी भाषा और अपने अपने भाषाविदों के विचारों को या मान्यताओं को ही अंतिम सत्य माना। लोग अपनी मान्यता को ही अंतिम सत्य सिद्घ कराने के लिए अपने अपने समुदाय में अपनी अपनी भाषा में अपने अपने विचारों को अधिक प्रचारित करते हैं। जिससे भाषा साम्प्रदायिक बन जाती है।
महर्षि दयानंद संस्कृत को आर्यभाषा मानते थे। उन्होंने अमर ग्रंथ सत्यार्थ प्रकाश की रचना स्वयं गुजराती होकर भी हिंदी में की थी। हिंदी के प्रति महर्षि दयानंद का यह प्रयास और सम्मान भाव मानो उसे राजभाषा ही नही अपितु राष्ट्रभाषा के प्रतिष्ठित पद पर आसीन करा देना था।
उज्ज्वल भारत के उज्ज्वल भविष्य के लिए महर्षि का यह उज्जवल सपना था। जिसे उन्होंने सत्यार्थ प्रकाश की रचना हिंदी में करके साकार कर दिखाया था। कालांतर में हमारे संविधान निर्माताओं ने महर्षि के जीवन लक्ष्य को एक जीवन स्वरूप देने का प्रयास किया और राष्ट्र की सांस्कृतिक एकता को बलवती करने के लिए हिंदी को देश की राजभाषा घोषित किया।
हिंदी को पीड़ा दी उस सोच ने जिसमें हिंदी को हिंदुस्तानी के रूप में प्रचारित प्रसारित करने का कुप्रयास किया गया। हिंदुस्तानी नाम की खिचड़ी भाषा इसे वैयाकरणिक दृष्टि से ही नही अपितु ज्ञान विज्ञान की प्राप्ति के दृष्टिकोण से भी कमतर ही सिद्घ कर रही है। इस पर हमारे लोगों को शीघ्रातिशीघ्र चिंतन करना चाहिए। संविधान की मूल भावना है कि भाषाई भिन्नता देश में समाप्त की जाए और देश में एक भाषा का प्रचलन किया जाए। कई भाषाओं को मान्यता देने का अर्थ है कि अपनी मातृभाषा में शिक्षा प्राप्त कोई युवा या युवती भी विकास के समान अवसरों से वंचित न रह जाए। उसे सम्मान मिले, उसकी भाषा को सम्मान मिले। पर धीरे धीरे राजभाषा हिंदी का वर्चस्व हो जाए और हम सब एक भाषा के माध्यम से सांस्कृतिक एकता के सूत्र में बंध जाएं।