क्या गुर्जर एक विदेशी जाति है ?
भारत में एक भयानक षडयंत्र के अंतर्गत लेखकों का एक ऐसा वर्ग सक्रिय रहा है जो भारत की अनेकों जातियों को विदेशी सिद्ध करने का प्रयास करता रहता है । जबकि भारत की इतिहास परम्परा के ऐसे अनेकों स्पष्ट प्रमाण हैं कि भारत की लगभग सभी वे जातियां जो अपने आप को आर्यों की संतान कहती हैं या भारतीय इतिहास , धर्म और संस्कृति में अपना विश्वास व्यक्त करती हैं मूल रूप से सभी भारतीय हैं । जो लोग आर्यों की संतानों के रूप में भारत में बस रही जातियों को विदेशी सिद्ध करने का प्रयास करते हैं उनके ऐसा करने से उन्हें यह लाभ होता है कि ऐसी परिस्थितियों में भारत पर कोई भी एक जाति अपना दावा नहीं कर सकेगी और सब अपने आपको विदेशी मूल की होने के कारण अलग – अलग समझने की भूल करते रहेंगी । जिसका परिणाम यह होगा कि भारत की प्रत्येक जाति अपना मूल विदेशों में खोजेगी तो स्वाभाविक रूप से उसका लगाव भारत से ना होकर विदेशों के किसी विशिष्ट स्थान या भौगोलिक क्षेत्र से होगा । जहां से वह अपना निकास मान रही होगी । इसका अंतिम परिणाम यह होगा कि भारत टूटेगा , बिखरेगा । क्योंकि जिस राष्ट्र में सांस्कृतिक एकता ना हो और जिसकी इतिहास की परम्पराएं एक न हों , जिसका धर्म एक न हो , जिसकी मान्यताएं एक न हों , उसमें बिखराव आता ही आता है । भारत के लोगों की और विशेष रूप से भारत में निवास कर रही जातियों की इन सारी चीजों को अलग – अलग सिद्ध करने के उद्देश्य से ही भारत की जातियों को विश्व के अन्य भौगोलिक क्षेत्रों से आई हुई दिखाने का षड्यंत्र किया जाता रहा है ।
भारत की जिन जातियों को षड्यंत्रकारी लेखकों ने विदेशी सिद्ध करने का प्रयास किया है उनमें से एक गुर्जर जाति भी है । गुर्जर जाति भारत की बहुत प्राचीन जाति है। इसने भारत के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को मजबूत करने में तो महत्वपूर्ण योगदान दिया ही है साथ ही इस जाति के शासकों ने दीर्घकाल तक शासन करके विदेशी मुस्लिम हमलावरों को भारत में प्रवेश करने से रोके रखने का प्रशंसनीय और देशभक्तिपूर्ण कार्य भी किया है । यदि यह जाति विदेशी होती तो विदेशी हमलावरों को मां भारती पर हमला करने से रोकने का प्रशंसनीय कार्य न करती । इसके विपरीत इसके पूर्वज उन विदेशी हमलावरों के साथ मिलकर भारत को लूटने की योजना बनाते और यहां पर उन्हीं की तरह नरसंहार करने के कीर्तिमान स्थापित करते।
भारत के इतिहास में एक पल भी ऐसा नहीं आया जब किसी गुर्जर शासक ने या किसी गुर्जर योद्धा ने किसी विदेशी का साथ दिया हो या मां भारती के विरुद्ध घात किया हो। इसी से पता चल जाता है कि इस जाति के शासकों और योद्धाओं का मां भारती के प्रति कितना सम्मान पूर्ण व्यवहार रहा ? और यदि वह ऐसा कर रहे थे तो इसका एक ही कारण था कि वह अपने आपको इसके मूल से जुड़ा हुआ अनुभव करते थे।
इससे पहले कि हम गुर्जरों के विदेशी या भारतीय होने पर प्रकाश डालें , हम चाहेंगे कि पहले भारत के प्राचीन इतिहास की उस परम्परा पर थोड़ा प्रकाश डाला जाए जो हम सबको एक ही मूल का सिद्ध करने के लिए बहुत प्रमाणिक है। इसके लिए भारत के प्राचीन साहित्य की पड़ताल करना आवश्यक है। इतिहास की अनेकों घटनाओं का उल्लेख पुराणों में मिलता है । पुराण वास्तव में इतिहास की ही पुस्तकें हैं जो पौराणिक काल के इतिहासवृत्त को सुरक्षित रखने के लिए लिखी गयीं । शतायु’ पुराण के अनुसार धरती के सात द्वीपों का हमें पता चलता है । जिनके नाम जम्बू, प्लक्ष, शाल्मली, कुश, क्रौंच, शाक एवं पुष्कर थे। इनमें से जम्बूद्वीप सभी के मध्य स्थित है। इस जंबू द्वीप को विद्वानों ने आज के यूरोप और एशिया से मिलकर बना हुआ माना है। पुराणों की उपरोक्त साक्षी से यह स्पष्ट है कि संपूर्ण भूमंडल के सातों द्वीपों पर आर्यों का ही शासन था और आर्य संपूर्ण भूमंडल के प्रत्येक क्षेत्र से परिचित थे ।पुराणों की साक्षी से यह भी सिद्ध है कि पहले संपूर्ण आर्य / हिन्दू जाति जम्बू द्वीप पर शासन करती थी। स्पष्ट है कि यूरोप और एशिया के जितने भर भी देश आज हमें विश्व मानचित्र पर दिखाई देते हैं वे सबके सब प्राचीन काल के वैदिक धर्मी आर्यों और कालांतर में उनके स्थान पर हिंदू के नाम से पुकारे गए हमारे पूर्वजों की ही संतानों के देश हैं।
इस जम्बू द्वीप के भी 9 खंड थे :- इलावृत, भद्राश्व, किंपुरुष, भरत, हरि, केतुमाल, रम्यक, कुरु और हिरण्यमय। इन 9 खंडों में से भरत नाम के खंड को भरतखंड या भारतवर्ष के नाम से जाना गया। इस भरत खंड का उससे पूर्व का नाम अजनाभ था ।
इस भरत खंड के भी नौ खंड थे- इन्द्रद्वीप, कसेरु, ताम्रपर्ण, गभस्तिमान, नागद्वीप, सौम्य, गंधर्व और वारुण तथा यह समुद्र से घिरा हुआ द्वीप उनमें नौवां है। यह भारतवर्ष अफगानिस्तान के हिन्दुकुश पर्वतमाला से अरुणाचल की पर्वत माला और कश्मीर की हिमालय की चोटियों से कन्याकुमारी तक फैला हुआ था। दूसरी ओर यह हिन्दूकुश से अरब सागर तक और अरुणाचल से बर्मा तक फैला था। इसका अर्थ हुआ कि उस समय के भरतखंड के अंतर्गत आज के अफगानिस्तान बांग्लादेश, नेपाल, भूटान, बर्मा, श्रीलंका, थाईलैंड, इंडोनेशिया और मलेशिया आदि देश आते थे।
इस भरत खंड में कुरु, पांचाल, पुण्ड्र, कलिंग, मगध, दक्षिणात्य, अपरान्तदेशवासी, सौराष्ट्रगण, तहा शूर, आभीर, अर्बुदगण, कारूष, मालव, पारियात्र, सौवीर, सन्धव, हूण, शाल्व, कोशल, मद्र, आराम, अम्बष्ठ और पारसी गण आदि रहते हैं। इसके पूर्वी भाग में किरात और पश्चिमी भाग में यवन बसे हुए थे।
वायु पुराण के अनुसार त्रेतायुग के हजारों वर्ष पूर्व प्रथम मनु स्वायंभुव मनु के पौत्र और प्रियव्रत के पुत्र ने इस भारतवर्ष को बसाया था । वायु पुराण के अनुसार महाराज प्रियव्रत को कोई अपना पुत्र नहीं था। ऐसे में उन्होंने अपनी पुत्री के पुत्र अग्नीन्ध्र को गोद ले लिया था । जिसका लड़का नाभि था। नाभि की एक पत्नी मेरू देवी से जो पुत्र उत्पन्न हुआ उसका नाम ऋषभ था। इसी ऋषभ के पुत्र भरत थे तथा इन्हीं भरत के नाम पर इस देश का नाम ‘भारतवर्ष’ पड़ा।
प्राचीनकाल में जम्बू द्वीप ही एकमात्र ऐसा द्वीप था, जहां रहने के लिए उचित वातावरण था और उसमें भी भारतवर्ष की जलवायु सबसे उत्तम थी। यहीं विवस्ता नदी के पास स्वायंभुव मनु और उनकी पत्नी शतरूपा निवास करते थे। राजा प्रियव्रत ने अपनी पुत्री के 10 पुत्रों में से 7 को संपूर्ण धरती के 7 महाद्वीपों का राजा बनाया दिया था और अग्नीन्ध्र को जम्बू द्वीप का राजा बना दिया था। इस प्रकार राजा भरत ने जो क्षेत्र अपने पुत्र सुमति को दिया वह भारतवर्ष कहलाया।
महाभारत के अनुसार भरत का साम्राज्य सम्पूर्ण भारतीय उपमहाद्वीप में व्याप्त था । जिसमें वर्तमान भारत, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, उज्बेकिस्तान, ताजिकिस्तान, किर्गिस्तान , तुर्कमेनिस्तान तथा फारस आदि क्षेत्र सम्मिलित थे। दूसरे शब्दों में हम यह भी कह सकते हैं कि इन सारे देशों का अतीत भारत का अतीत है । भारत का संपूर्ण इतिहास यदि लिखा जाए तो इन देशों का इतिहास उसमें अपने आप सम्मिलित हो जाएगा । इसे हम ऐसे भी समझ सकते हैं कि जैसे कोई रेलगाड़ी जिस स्थान से चली वहाँ से लेकर उसके गंतव्य स्थल तक बीच में कई स्टेशन आते हैं। जहाँ पर यात्री उतरते चढ़ते रहते हैं। एक प्रकार से भारत की प्राचीन काल से चली आ रही रेल के ये देश बीच के मार्ग में पड़ने वाले स्टेशन हैं । जिन पर किसी समय विशेष पर कुछ यात्री ( देश ) उतर गए अर्थात भारत से अलग हो गये ।
1947 से पूर्व पाकिस्तान में जन्मे लालकृष्ण आडवाणी और डॉ मनमोहन सिंह भारत की राजनीति में उच्चतम शिखर पर पहुंचे । भारत के लोगों ने उन्हें भरपूर सम्मान और प्यार भी दिया है। यह केवल इसलिए ही संभव हुआ है कि इन दोनों और इन जैसे अन्य अनेकों लोगों ने पाकिस्तान को अपना देश न मानकर भारत को अपना देश माना और भारत की परम्पराओं के साथ अपना आत्मीय भाव प्रदर्शित किया । फलस्वरूप यह विदेशी नहीं माने जा सकते । ऐसे ही जो लोग जंबूद्वीप में कहीं भी पैदा हुए और पर उन्होंने भारत के साथ अपने आत्मीय संबंध को बनाए रखा और भारत को ही अपना देश मानते रहने की परंपरा का निर्वाह किया , वे चाहे जंबूद्वीप में इधर से उधर कहीं चले गए हों परंतु उन्हें भारतीय ही माना जाएगा , यह बात ध्यान रखने योग्य है।
बीबीसी ने भी फैलाई भ्रांति
भारत में गुर्जरों के विदेशी होने की भ्रांति फैलाने वालों में बीबीसी का भी नाम सम्मिलित है । जब राजस्थान में गुर्जर आरक्षण आंदोलन चल रहा था तब 29 दिसंबर 2010 को बीबीसी की ओर से जारी की गई एक रिपोर्ट में कहा गया कि प्राचीन इतिहास के जानकारों के अनुसार गूजर मध्य एशिया के कॉकेशस क्षेत्र ( अभी के आर्मेनिया और जॉर्जिया) से आए थे लेकिन इसी इलाक़े से आए आर्यों से अलग थे।
कुछ इतिहासकार इन्हें हूणों का वंशज भी मानते हैं।
भारत में आने के बाद कई वर्षों तक ये योद्धा रहे और छठी सदी के बाद ये सत्ता पर भी क़ाबिज़ होने लगे। सातवीं से 12 वीं सदी में गूजर कई जगह सत्ता में थे।
गुर्जर-प्रतिहार वंश की सत्ता कन्नौज से लेकर बिहार, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात तक फैली थी।
मिहिरभोज को गुर्जर-प्रतिहार वंश का बड़ा शासक माना जाता है और इनकी लड़ाई बिहार के पाल वंश और महाराष्ट्र के राष्ट्रकूट शासकों से होती रहती थी।
12वीं सदी के बाद प्रतिहार वंश का पतन होना आरम्भ हुआ और ये कई हिस्सों में बँट गए।
गूजर समुदाय से अलग हुए सोलंकी, प्रतिहार और तोमर जातियाँ प्रभावशाली हो गईं और राजपूतों के साथ मिलने लगीं। अन्य गूजर कबीलों में बदलने लगे और उन्होंने खेती और पशुपालन का काम अपनाया।
ये गूजर राजस्थान, हिमाचल प्रदेश, जम्मू कश्मीर जैसे राज्यों में फैले हुए हैं।
इतिहासकार कहते हैं कि विभिन्न राज्यों के गूजरों की शक्ल सूरत में भी फ़र्क दिखता है।राजस्थान में इनका काफ़ी सम्मान है और इनकी तुलना जाटों या मीणा समुदाय से एक हद तक की जा सकती है। उत्तर प्रदेश, हिमाचल और जम्मू-कश्मीर में रहने वाले गूजरों की स्थिति थोड़ी अलग है जहां हिंदू और मुसलमान दोनों ही गूजर देखे जा सकते हैं जबकि राजस्थान में सारे गूजर हिंदू हैं। मध्य प्रदेश में चंबल के जंगलों में गूजर डाकूओं के गिरोह सामने आए हैं ।समाजशास्त्रियों के अनुसार हिंदू वर्ण व्यवस्था में इन्हें क्षत्रिय वर्ग में रखा जा सकता है लेकिन जाति के आधार पर ये राजपूतों से पिछड़े माने जाते हैं।पाकिस्तान में गुजरावालां, फैसलाबाद और लाहौर के आसपास इनकी अच्छी ख़ासी संख्या है।भारत और पाकिस्तान में गूजर समुदाय के लोग ऊँचे ओहदे पर भी पहुँच हैं. इनमें पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति फ़ज़ल इलाही चौधरी और कांग्रेस के दिवंगत नेता राजेश पायलट शामिल हैं।
बीबीसी के उपरोक्त विवरण से ऐसा लगता है कि जैसे गुर्जर भारत में बाहर से आए और यहां के किसी क्षेत्र विशेष पर बलात अपना कब्जा कर शासन करने लगे । उनका इस देश या इस देश की संस्कृति से कोई आत्मिक लगाव नहीं था। वे एक लुटेरे या हमलावर के रूप में आए और यहां बस गए । जिसे धीरे-धीरे भारत ने स्वीकार कर लिया । भारत के प्रति शत्रुभाव रखने वाले इतिहासलेखकों को ऐसा लिखने से यह कहने का अवसर मिलता है कि – ‘काफिले आते गए और हिन्दोस्तान बनता गया ।’ जो लोग बीबीसी को एक प्रमाणिक संस्था मानते हैं उनकी सोच में यह बात पूर्णतया सटीक बैठ सकती है कि जो उसने कहा वह बिल्कुल ठीक है । परंतु सच यह नहीं है । सच की पड़ताल करने के लिए हमें आर्यावर्त , भरतखंड और जंबूद्वीप की वास्तविकता को देखना होगा और यह भी पड़ताल करनी होगी कि क्या जंबूद्वीप के निवासियों को उस समय किस नाम से पुकारा जाता था और यदि वह सब आर्य थे तो वहां से आकर अपने ही देश में किसी समय विशेष पर उनके बस से वह विदेशी नहीं हो गये । इसे ऐसे ही माना जा सकता है जैसे आज के भारतीय पंजाब का कोई व्यक्ति तमिलनाडु में जाकर बस जाए तो आने वाले समय में उसकी पीढ़ियों को विदेशी नहीं कहा जा सकता ।
आजकल कहां कहां बसे हैं गुर्जर
भारत में गुर्जर समाज प्राचीन काल से ही एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है । इसने अपनी वीरता ,शौर्य पराक्रम और देशभक्ति के कार्यों से अलग-अलग समय पर नए-नए कीर्तिमान स्थापित किये हैं । इसे हम इतिहास में गुज्जर, गूजर, गोजर, गुर्जर, गूर्जर और वीर गुर्जर के नाम से भी जानते हैं।
आजकल गुर्जर समाज के लोग उत्तर भारत सहित पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान में भी बसे हैं। अपने शौर्य और पराक्रम के कारण इस जाति का नाम अफ़ग़ानिस्तान के राष्ट्रगान में भी आता है। गुर्जरों के ऐतिहासिक प्रभाव के कारण उत्तर भारत और पाकिस्तान के बहुत से स्थान गुर्जर जाति के नाम पर रखे गए हैं, जैसे कि भारत का गुजरात राज्य, पाकिस्तानी पंजाब का गुजरात ज़िला और गुजराँवाला ज़िला और रावलपिंडी ज़िले का गूजर ख़ान शहर। इसी प्रकार अन्य स्थानों पर भी गुर्जरों के नाम से स्थान विशेष को पुकारा जाता है । जिनसे पता चलता है कि इस समाज के लोग कभी विशाल भूभाग पर अपना या तो प्रभाव रखते थे या शासन स्थापित कर शासक की भूमिका में रहकर काम करते थे।
गुर्जरों की उत्पत्ति
गुर्जरों की उत्पत्ति पर यदि विचार किया जाए तो गुर्जर अभिलेखों के अनुसार ये लोग सूर्यवंशी या रघुवंशी हैं।
स्पष्ट है कि गुर्जर सूर्यवंशी या रघुवंशी अपने आप को यदि मानते हैं और उनके अभिलेख इस बात की पुष्टि करते हैं तो इसका एक ही कारण है कि भारत का सबसे पहला क्षत्रिय राजवंश सूर्यवंश ही है । जो बाद में रघुवंश के नाम से भी जाना गया । इसी में श्री रामचंद्र जी का जन्म हुआ । इस प्रकार सूर्यवंशी या रघुवंशी गुर्जर समुदाय के लोग भारत के सबसे पहले क्षत्रिय राजवंश की परंपरा के ध्वजवाहक हैं।
प्राचीन महाकवि राजशेखर ने गुर्जरों को ‘रघुकुल-तिलक’ तथा ‘रघुग्रामिणी’ कहा है। इससे भी पता चलता है कि गुर्जर लोग सूर्यवंशी क्षत्रिय राजवंशी परंपरा के ही हैं । 7 वीं से 10 वीं शतब्दी के गुर्जर शिलालेखों पर सूर्यदेव की कलाकृतियाँ भी इनके सुर्यवंशी होने की पुष्टि करती हैं। राजस्थान में आज भी गुर्जरों को सम्मान से ‘मिहिर’ कहकर लोग आज भी बुलाते हैं । मिहिर का अर्थ भी सूर्य से ही है। राजस्थान के लोगों में यह परम्परा आज भी प्रचलित है कि गुर्जर लोग रघुवंशी अर्थात सूर्यवंशी हैं।
कुछ इतिहासकारों की ऐसी भी मान्यता है कि ये गुर्जर लोग मध्य एशिया के कॉकस क्षेत्र (अभी के आर्मेनिया और जॉर्जिया) से आए आर्य योद्धा थे।
कुछ विद्वानों का ऐसा ही कहना है कि गुर्जर एक संस्कृत शब्द है । जिसका अर्थ ‘शत्रु का नाश करने वाला’ अर्थात ‘शत्रु विनाशक’ होता है। प्राचीन महाकवि राजशेखर ने गुर्जर नरेश महिपाल को अपने महाकाव्य में दहाड़ता गुर्जर कह कर सम्बोधित किया है। कुछ इतिहासकार ऐसी भी मान्यता रखते हैं कि कुशान लोग भी गुजर ही थे उनकी दृष्टि में कनिष्क का रबातक शिलालेख जिस ‘गुशुर’ जाति की बात करता है , वह ‘गुशुर’ और कोई नहीं बल्कि गुर्जर ही है । इन इतिहासकारों का मानना है कि गुशुर या गुर्जर लोग विजेता के रूप में भारत में आये क्योंकि गुशुर का अर्थ ‘उच्च कुलीन’ होता है।
हमारी मान्यता है कि गुर्जर गुर्जर हो सकता है यह तो माना जा सकता है परंतु काकस , आर्मेनिया आदि से गुर्जरों के यहां आने को विदेशों से उनका आना माना जाए यह उचित नहीं है । इसके लिए यह देखने की आवश्यकता है कि जिस समय गुर्जर किसी भी क्षेत्र से भारत में आए उस समय वह देश अस्तित्व में था या नहीं ? या वह भारतवर्ष का ही एक भूभाग था।
क्रमश:
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत