अब अध्याय अर्थात पिण्ड (Microscopic Point of view) की दृष्टि से सुनो। पिण्ड अर्थात शरीर की दृष्टि से प्राण ही संवर्ग है, सब इंद्रियों को अपने अंदर समा लेने वाला है। जब मनुष्य सोता है तो वाणी प्राण को लौट जाती है, प्राण को ही चक्षु प्राण को ही स्रोत, प्राण को ही मन लौट जाता है, प्राण ही इन सबका संवरण करता है, इन सबको ढांप लेता है।
इसलिए संवर्ग अर्थात लय-स्थान दो ही हैं-ब्रह्मांड के देवों में वायु तथा पिण्ड की इंद्रियों में प्राण।
ऋषि ने कहा, अग्नि, सूर्य चंद्र और जल ये चार, एवं वाणी, चक्षु श्रोत्र तथा मन-ये चारों महात्मा। इन चारों के मुकाबले में एक देव है-अधिदैवत (ब्रह्मांड) की दृष्टि से वायु तथा अध्यात्म (पिण्ड) की दृष्टि से प्राण। निस्संदेह ब्रह्मांड में वायु उन चारों देवों का तथा पिण्ड में प्राण चारों इंद्रियों की आत्मा है, ये चारों वायु तथा प्राण की क्रमश: प्रजाएं हैं। वायु तथा प्राण इन चारों को खा भी जाते हैं, और जाग्रत में इन्हें प्रकट भी कर देते हैं। इनकी महिमा महान है।
हे राजन! ब्रह्मांड के चार देवता (अग्नि, सूर्य, चंद्र, जल) तथा वायु मिलकर पांच होते हैं, इसी प्रकार पिण्ड की इंद्रियां (वाणी, चक्षु, श्रोत्र, मन) तथा प्राण मिलकर पांच होते हैं।
ये सब दस हैं, और ये दसों मानो कृत (पासा) है, संसार का जुआ खेलने के पासे हैं। इन्हीं में यह विश्व का प्रपंच चल रहा है। जैसे वायु, अग्नि, सूर्य, चंद्र, जल का भक्षण कर जाती है, इन्हें अपना अन्न बना लेती है, जैसे -प्राण, वाणी, चक्षु, श्रोत्र, मन इन चारों को समेट लेता है, इन्हें अपना अन्न बना लेता है, वैसे ही विश्व की विराट शक्ति (ब्रह्मा) सबको अन्न बनाकर उसका भक्षण कर रही है, सबकी अन्नाद है, सबको जुए में लगाए बैठी है, सबकी भोक्ता है और द्रष्टा रूप में वर्तमान है जो यह जानता है, वह द्रष्टा रूप होकर विचरता है, संसार में भोक्ता होकर रहता है।
रैक्व ऋषि की संवर्ग विद्या का अभिप्राय यही है कि वायु तथा प्राण की तरह भोक्ता बनकर रहे, योग्य बनकर नही, संसार को अपने अंदर समेटे, दूसरों में सिमटता ना फिरे। किंतु प्रस्तुत पद्यांश की अंतिम पंक्ति की व्याख्या करना भी अपेक्षित है। संसार में केवल वायु और प्राण की सृष्टि के अन्नाद नही है अपितु वायु और प्राण का भी अन्नाद इस जगत का रचईया (ब्रह्मा) है। जिसके आगोश में बैठने से ही हे मनुष्य ! तुझे सुकून मिलेगा।
तू सत-चित है आनंद प्रभु!
गंतव्य मेरा तू अंतिम है।
तेरा धाम मेरा आकर्षण है,
तू जग का कारण अंतिम है।।
‘विजय’ तुझसे है कोई श्रेष्ठ नही,
इस दुनिया में इस दौलत में।।
जो सुकून मिले………..6
ओउम
भगवान को वाचिक रूप से तो सभी जानते हैं, किंतु उसके वृहद और करूणा से भरे स्वरूप को कोई कोई जानता है। वह परम ब्रह्म कण-कण में व्याप्त है। यदि ऐसा कोई जाने तो मनुष्य जीवन में पाप नही कर सकता।
उसकी अनवरत रूप से बरसती अनुकंपाओं को देखकर हृदय पुलकित हो जाएगा। रोमांचित हो जाएगा। मस्तक उसके चरणों में बरबस झुक जाएगा बशर्ते कि मानव के ज्ञान में इतनी सूक्ष्मता और पवित्रता को कि उसके स्वरूप को जान सके।
इस संदर्भ में ऋग्वेद का ऋषि कहता है:त्वदा कश्चन हि प्रकेत: ऋग्वेद 3/30/1 अर्थात उसे कोई बिरला ही जान पाता है। सब नीति नेति कह कर हार गये। प्रस्तुत गीत प्रभु के स्वरूप और उसकी अनुकंपाओं पर प्रकाश डालता है :
तर्ज : तेरा सत चित आनंद रूप कोई कोई जाने रे……..
भजन
कण-कण में बसे भगवान कोई कोई जाने रे………
है रूप अनूप महान, कोई कोई जाने रे………………
स्रष्टा तू और धारक तू है।
रक्षक और संहारक तू है।।
सूरज में तू ही है धूप,
कोई कोई जाने रे………….1
सागर पर्वत हिमनद जंगल।
करता है तू सबका मंगल।
ब्रह्मांड का तू बड़ा भूप,
कोई कोई जाने रे………….2
डाली-डाली लदी पड़ी है।
रत्नों से धरा भरी पड़ी है।
भण्डारों के भरे कूप,
कोई-कोई जाने रे…………3
दु:ख विनाशक दीन्हों का बंधु।
न्यायकारी और करूणा का सिन्धु।।
है धर्म तेरा ही स्वरूप,
कोई-कोई जाने रे…………….4
भावों का है छुपा खजाना।
कितनी दौलत किसने जाना।।
है दिल तेरा स्तूप,
कोई कोई जाने रे……………5
आदि अंत गंतव्य तू ही।
सृष्टि-सार मन्तव्य यही है।।
विजय बन उसके अनुरूप
गर मन माने रे…………..
कोई कोई जाने रे…………….6