राणा उदयसिंह हमारे एक ऐसे इतिहास नायक हैं जिनके साथ अभी तक अन्याय ही होता रहा है । बहुत बहादुर , देशभक्त , वीर स्वतंत्रता सेनानी होने के उपरांत भी उन्हें इतिहास में वह स्थान नहीं मिला है जो उन्हें मिलना चाहिए था । वे मेवाड़ के राणा साँगा के पुत्र और महाराणा प्रताप के पिता थे। उनमें अपने पिता जैसी वीरता कूट-कूट कर भरी थी । तभी तो शत्रु के सामने वह कभी झुके नहीं । चित्तौड़ छोड़कर दूर जाकर उदयपुर बसाना तो स्वीकार किया , परंतु शत्रु के सामने कभी स्वाभिमान का सौदा नहीं किया । अपने पिता की मृत्यु के उपरांत वह नाबालिग थे । उस काल में गूजरी माता पन्ना धाय ने अपने बेटे चंदन का बलिदान देकर उनकी सुरक्षा की थी ।
चित्तौड़गढ़ को लेकर अकबर प्रारंभ से ही बेचैन था उसे लगता था कि यदि चित्तौड़गढ़ को उसने हासिल कर लिया तो हिंदुस्तान उसके कब्जे में आ जाएगा । अपनी इसी मानसिकता के चलते अकबर ने दो बार चित्तौड़ पर आक्रमण किया था । 1567 में चित्तौड़गढ़ को लेकर अकबर ने इस किले का दूसरी बार घेराव किया । उस समय राणा उदय सिंह की सूझबूझ काम आयी। अकबर की पहली चढ़ाई को राणा ने असफल कर दिया था। पर जब दूसरी बार चढ़ाई की गयी तो लगभग छह माह के इस घेरे में किले के भीतर के कुओं तक में पानी समाप्त होने लगा। किले के भीतर के लोगों की और सेना की स्थिति बड़ी ही दयनीय होने लगी।
तब किले के रक्षकदल सेना के उच्च पदाधिकारियों और राज्य दरबारियों ने मिलकर राणा उदय सिंह से निवेदन किया कि राणा संग्राम सिंह के उत्तराधिकारी के रूप में आप ही हमारे पास हैं, इसलिए आपकी प्राण रक्षा इस समय आवश्यक है। अत: आप को किले से सुरक्षित निकालकर हम लोग शत्रु सेना पर अंतिम बलिदान के लिए निकल पड़ें। तब राणा उदय सिंह ने सारे राजकोष को सावधानी से निकाला और उसे साथ लेकर पीछे से अपने कुछ विश्वसनीय रक्षकों के साथ किले को छोड़कर निकल गये। अगले दिन अकबर की सेना के साथ भयंकर युद्घ करते हुए वीर राजपूतों ने अपना अंतिम बलिदान दिया। जब अनेकों वीरों की छाती पर पैर रखता हुआ अकबर किले में घुसा तो उसे शीघ्र ही पता चल गया कि वह युद्घ तो जीत गया है, लेकिन कूटनीति में हार गया है, किला उसका हो गया है परंतु किले का कोष राणा उदय सिंह लेकर चंपत हो गये हैं। अकबर झुंझलाकर रह गया।
राणा उदय सिंह ने जिस प्रकार किले के बीजक को बाहर निकालने में सफलता प्राप्त की वह उनकी सूझबूझ और बहादुरी का ही प्रमाण है।
वास्तव में अकबर चित्तौड़गढ़ के भीतर छुपे इस बीजक को लेने के लिए ही चढ़ाई कर रहा था और वह बीजक ही उसे नहीं मिला । इस प्रकार उसकी जीत पराजय में तब्दील हो गई। समझ लीजिए कि हमारे वीर शिवाजी तो औरंगजेब की आंखों में धूल झोंक कर 100 वर्ष बाद किले से बाहर निकले थे , उससे पहले तो हमारे महाराणा उदयसिंह ने अकबर के साथ लगभग ऐसा ही कर दिया था। घटनाओं को घटनाओं से जोड़कर पढोगे तो आनंद आएगा और पता चलेगा कि हमारे देशभक्तों ने किस समय पर कैसे कैसे ढंग से अपने देश , धर्म और मर्यादाओं की रक्षा की ?
महाराणा उदय सिंह ने अपने इसी बीजक या खजाने से अगले 5 वर्ष में उदयपुर जैसा सुंदर शहर खड़ा कर दिया ।वहां पर अच्छे-अच्छे भवन बनाए और वहीं से वे शासन करने लगे । शेरशाह सूरी ने 5 वर्ष में हमारी एक पुरानी सड़क की मरम्मत कराई तो उसे इतिहास में नाम दे दिया की जीटी रोड का निर्माण शेरशाह सूरी ने कराया था । यद्यपि यह सड़क महाभारत और अशोक के समय से चली आ रही थी । शेरशाह सूरी को तो इस हमारी इस सड़क की मरम्मत से ही इतिहास में सम्मान मिल गया जबकि हमारे इस शूरवीर देशभक्त इतिहास नायक महाराणा उदय सिंह ने 5 वर्ष में एक शानदार राजस्थानी खड़ी की और वहां पर दर्शनीय स्थलों का निर्माण कराया उसके लिए एक पंक्ति लिखने में भी इतिहासकारों की लेखनी की स्याही सूख जाती है ।
यहां पर दिए गए चित्रों को अलग-अलग देखने का कष्ट करें ।यदि ये भवन / किले किसी मुगल बादशाह के द्वारा बनाए गए होते तो इतिहास में इन्हें बहुत अधिक सम्मान मिला होता और कहा जाता कि देखिए मुगलों ने हम पर कितना बड़ा उपकार किया ? लेकिन यह क्योंकि एक हिंदू देशभक्त के द्वारा बनाए गए हैं इसलिए आज भी उपेक्षा के पात्र हैं।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत
मुख्य संपादक, उगता भारत