वैदिक संपत्ति इंद्र और वृत्र का अलंकार
गतांक से आगे….
इन्द्रो मधैर्मधवा वृत्रहा भुवत्।(ऋ०१०/२3/२)
वृत्रहणं पुरन्दरम्। (ऋ० ६/१६/१४)
यो दस्योर्हन्ता स जनास इन्द्र:।(ऋ० २/१२/१०)
अर्थात् इंद्र ही मधवा और वृत्र के मारनेवाला हुआ। वृत्र को मारने वाला ही पुरन्दर है और जो दस्यु को मारने वाला है, वही इन्द्र है । यह वृत्र और दस्यु शब्द एक ही पदार्थ के वाचक हैं। इन्द्र और दस्यु शब्द पर मैक्समूलर कहते हैं कि ‘ तब इन्द्र की स्तुति की जाती है,क्योंकि उसने दस्युओं का नाश किया और आर्य लोगों की रक्षा की । हमने पहले ही लिखा है कि मैक्समूलर दस्यु को शत्रु कहते हैं और मिस्टर मूर कहते हैं कि वेदों में अनेक प्रमाण हैं जिनमें वृत्र को शत्रु कहा गया है – इससे मालूम हुआ कि वृत्र और दस्यु एक ही पदार्थ हैं। दस्यु शब्द की निरूक्ति करते हुए यास्क कहते हैं कि ‘ दस्युर्दस्यते: क्षयार्थादुपदस्यन्त्यसिमन् रसा उपदासयति कर्माणि ‘ अर्थात् दस्यु शब्द क्षयार्थक दस धातु से बना है । अतः जो रसों का क्षय करता है और यज्ञों को नष्ट करता है,वही दस्यु है । संसार के सब रस खींचकर बादलों में ही जाते हैं, इसलिए सच्चे दस्यु बादल ही है। इसी तरह वृत्रों की निरुत्ति में यास्काचार्य कहते हैं कि ‘ तत्र को वृत्रः मेध इति नैरूत्ता।’ अर्थात् वृत्र कौन हैं ? उत्तर देते हैं कि नैरूक्तों के मत से मेघ ही वृत्र है। इसलिए ऋग्वेद में आया है कि इन्द्रो यो दस्युन अधरानवातिरत्। अर्थात जो इन्द्र दस्युओं को नीचे गिरता है। अर्थ स्पष्ट हो गया कि इन्द्र अर्थात् विद्युत या सूर्य ताड़न के द्वारा बादलों को नीचे गिरता है। यही आर्य और दस्युओं का युद्ध है और नीचे गिराना ही दस्यु को भगा देना है । तथा बादल ही कृष्णयोनि है और वही मृध्रवाचा बोलने वाला है । ऋ०2/20/7 में लिखा है कि स वृत्रहेन्द्र:कृष्णयोनि अर्थात् वृत्र ही निश्रयपूर्वक कृष्ण योगी है और दनों विश इन्द्र मृध्रवाच (ऋग्वेद 1/17 4/2) अर्थात इन्द्र ही वृत्र में घुसकर मृध्रवाचा बोलता है। मतलब यह कि काले बादल कृष्ण योनि है और बादलों में विद्युत की गड़गड़ाहट ही मृध्रवाचा है।
वेदों में आया हुआ इंद्र और वृत्र का अलंकार ही देव और असुरों तथा आर्य और दस्यु के संग्राम के नाम से प्रसिद्ध है । आर्यों का विश्वास है कि उन्होंने संसार में जितने पदार्थों का ज्ञान प्राप्त किया है,उनका नाम वेद शब्दों से ही रक्खा है । प्रकाश के विरुद्ध आने वाले बादलों को जिस प्रकार वेद ने दस्यु कहां है,उसी प्रकार श्रेष्ठ आर्यों से विरोध करने वालों को भी दस्यु कहा है।इसलिए आर्यों ने वेदों से नामकरण की यह सच्ची कुंजी पाकर अपनी जाति को दो भागों में बांट दिया। क्योंकि ऋग्वेद में लिखा है कि विजानीह्यार्यान् ये च दस्यवः। अर्थात आर्य और दस्यु को अलग जानो । कर्म हीन , यज्ञ हीन, अविचारी – आदिश्वर वादी अमानुषों को दस्यु समझना चाहिए। इनके विरुद्ध आर्यों का लक्षण करते हुए निरुक्तकार कहते हैं कि आर्य ईश्वर पुत्र: अर्थात आर्य परमेश्वर के पुत्र हैं। तात्पर्य है कि जैसे बादल सूर्य के प्रकाश को रोककर अंधकार फैलाते हैं,वैसे ही अनार्य -दस्यु -भी आर्यों के श्रेष्ठ कर्मों में विघ्न करते है और जिस प्रकार सूर्य अपनी प्रखर किरणों से बादलों को नष्ट करते हैं,वैसे ही आर्य भी दुष्टों का दमन करते हैं । इसलिए आर्य ईश्वर पुत्र कहलाते हैं। वेद की इस अलंकृत शिक्षा के द्वारा ही प्राचीन आर्य ने अपनी जाति के भीतर ही दुष्ट स्वभाव के पुरुषों को अनार्य कहा है,दस्यु कहां है और उत्तम स्वभाव वालों को आर्य कहा है।
वेदों में इतिहास मानने वाले भी स्वीकार करते हैं कि सुदास, दिवोदास और त्रसदस्यु आदि राजे आर्य ही थे । पारसी भी अपने गोल में ही दह्य की कल्पना करते हैं । अतः इसका यह अर्थ नहीं है कि दस्यु कोई दूसरी जाति थी। वेदों में किसी जाति का दस्यु नाम से वर्णन नही है।न आर्यों के पूर्व यह किसी मूलनिवासिनी जाति का पता मिलता है। इसलिए दूसरा प्रश्न भी निराधार ही सिद्ध होता है। इतना वर्णन कर चुकने के बाद अब आगे तीसरे प्रधान प्रश्न पर विचार करते हैं कि मूलनिवासियों की मौलिकता का क्या रहस्य है?
क्रमशः
देवेंद्र सिंह आर्य
चेयरमैन : उगता भारत
मुख्य संपादक, उगता भारत