हमारे ऋषि बड़े ज्ञानी थे, वे जानते थे कि मनुष्य के लिए भौतिक ज्ञान आत्मघाती हो सकता है इसलिए वे प्रारंभ से ही प्रयास करते थे कि जैसे भी हो, मनुष्य के भौतिक ज्ञान के साथ-साथ आध्यात्मिक ज्ञान भी जोड़ा जाए। भौतिकता को यदि अध्यात्म के साथ जोड़ दिया तो वह बहुत ही लाभकारी हो सकती है। जैसे भी हो मनुष्य के भौतिक ज्ञान के साथ-साथ आध्यात्मिक ज्ञान भी जोड़ा जाए। अत: ये ‘भूर्भुव स्व:’ की महाव्याहति भौतिकता और आध्यात्मिकता के संयोग की सूचक है।
अग्निप्रदीप्त करते समय ”ओ३म् उदबुध्य स्वाग्ने प्रतिजागृहि।’….” कहकर हम ईश्वर से यही प्रार्थना करते हैं कि-‘हे यज्ञाग्नि ! तू ऊपर की ओर बढक़र अत्यंत प्रदीप्त हो। हमारी सभी इच्छित कामनाओं और लोकोपकारी कार्यों को तू भली प्रकार संपन्न कराके हमारी सहयोगी बन।’
अग्नि प्रज्ज्वलन के पश्चात समिदाधान के मंत्र आते हैं। ये चार मंत्र हैं, जिनसे तीन समिधाएं अग्नि को समर्पित की जाती हैं। इन तीनों समिधाओं द्वारा यज्ञाग्नि को तीनों लोकों में क्रियाशील करके यज्ञ को ब्रह्माण्ड में व्याप्त किया जाता है। तीन समिधाओं के कई अर्थ हैं जो अलग-अलग विद्वानों ने अलग-अलग ढंग से बड़ी तार्किक शैली में प्रस्तुत किये हैं। एक अर्थ यह भी है तीन प्रकार से ज्ञान की प्राप्ति करना। लौकिक दृष्टि से-सत्संग, स्वाध्याय, और देशाटन तथा पारलौकिक दृष्टि से आत्मचिंतन, सत्कर्म संपादन एवं उपासना।
अग्नि प्रज्ज्वलन के पश्चात पंचघृताहुति का विधान किया गया है। यहां घृत का अभिप्राय गोघृत से ही है। गोघृत में 12 प्रकार के धातु व कुछ अम्ल मिलते हैं। घृत के जलने से प्रखर उष्णता की ऊर्जा तैयार होती है, जिसमें अशुद्घ वायु को शुद्घ करने तथा शरीर और मन के तनावों को भी दूर करने की अदभुत शक्ति व क्षमता है। गोघृताहुति से यज्ञ के निकट बड़ी भारी मात्रा में प्राणवायु बनती है। साथ ही पर्यावरण प्रदूषण भी दूर होता है। बहुत से रोगाणुओं का बड़ी तीव्रता से विनाश होता है। महर्षि आश्वलायन ने ‘ओ३म् अयंत इध्म आत्मा……’ का बड़ा सुंदर और वैज्ञानिक मंत्र रचा और उसमें कहीं भी बीच में कोई अर्धविराम आदि नहीं लगाया है। इस प्रकार पूरा मंत्र पांच बार बोलने से एक साथ पांच प्राणायाम हो जाते हैं। पांच घृताहुति निरंतर डालने से हमें मानो नीरोग रहने के लिए एक साथ शद्घ प्राणवायु उपलब्ध कराने हेतु ही यह क्रिया रखी गयी है। नित्य यज्ञादि करने से इसका स्पष्ट लाभ हमें दिखाई देने लगता है। यज्ञकुण्ड में पंचघृताहुति डालने से अग्नि प्रदीप्त हो उठती है, जिससे यज्ञकुण्ड के पास ताप वृद्घि हो जाती है। इस तापवृद्घि को मर्यादित करने के लिए अग्नि के चारों ओर जलसिंचन किया जाता है। वैसे हम यह भी देखते हैं कि जब सृष्टि में ताप बढ़ जाता है तो जल अपने आप ही प्रकट हो उठता है। ऋतुओं में भी गरमी के पश्चात ही वर्षा आती है। जब समुद्र बढ़ी हुई गरमी से तपने लगता है तो वहां भी वाष्पीकरण की प्रक्रिया से मानसून बनने लगता है। इसी प्रकार अग्नि के चारों ओर जल प्रसेचन करने से वहां भी ‘अग्निषोमात्मक मण्डल’ बनने लगता है। यह मंडल वर्षा का जनक है। जिससे सभी प्राणियों को लाभ मिलता है। जल प्रसेचन के मंत्रों में हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि हे दयानिधे, परमपिता परमेश्वर प्रभो! हमारा यह याज्ञिक पवित्र कार्य अखंडित वेदानुकूल और ज्ञानपूर्वक संपन्न हो। हमारे इस कार्य में किसी प्रकार का खण्डन, विघ्न, विरोध या बाधा न आये और हम इसे वेद की आज्ञाओं के अनुसार पूर्ण कर लें।
ज्ञान पूर्वक का अर्थ है कि इसमें किसी प्रकार का अज्ञानान्धकार, पाखण्ड, ढोंग या अंधविश्वास ना हो। हम सारी क्रियाओं का रहस्य समझते हुए उन्हें पूर्ण करें।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक उगता भारत