ओ३म्
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आज 25 मार्च, 2020 को प्राचीन वैदिक संवत्सर की वर्ष श्रृंखला का नये वर्ष चैत्र मास का प्रथम दिवस है। आज से चैत्र माह का शुक्ल पक्ष आरम्भ हुआ है। वैदिक गणना में प्रथम दिवस को प्रतिपदा कहा जाता है। आज प्रतिपदा है। इस दिवस का अनेक कारणों से महत्व है। आज से 1,96,08,53,120 वर्ष पूर्व आज के ही दिन ईश्वर ने सृष्टि में अमैथुनी सृष्टि कर मनुष्यों को उत्पन्न किया था। जैसे कोई मनुष्य सोकर जागता है उसी प्रकार से अमैथुनी सृष्टि के मनुष्यों के शरीर परमात्मा ने पृथिवी माता के भीतर गर्भ में बनाये और वह आज के ही दिन जागे व जन्मे थे। आज ही के दिन परमात्मा ने चार ऋषियों को अपने जीवन में सत्यासत्य, धर्माधर्म, कर्तव्य-अकर्तव्य, उचित-अनुचित, ज्ञान-अज्ञान तथा पाप-पुण्य का ज्ञान कराने के लिए संस्कृत भाषा को शब्दार्थ सहित चार वेद ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद का ज्ञान दिया था। यह चार वेद ज्ञान, कर्म, उपासना तथा विशेष ज्ञान वा विज्ञान से युक्त हैं। यह वेद ज्ञान सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है। इसका अध्ययन करना व कराना तथा इसके अनुसार आचरण करना व कराना ही संसार के सब मनुष्यों का परम धर्म है। यही न्यायसंगत है और इसी पथ पर हमारे आदि कालीन पूर्वज चले थे। आज भी यह वेदज्ञान ही संसार के सभी मनुष्यों का धर्म व कर्तव्य है। आश्चर्य एवं दुःख की बात है कि संसार के लोगों ने वेद ज्ञान का तिरस्कार किया हुआ है। यह उनकी अज्ञानता है। यदि लोग पक्षपात रहित होकर वेदों और मत-मतान्तरों की पुस्तकों का तुलनात्मक अध्ययन करेंगे तो निश्चय ही वह मत-मतान्तरों की अविद्यायुक्त बातों को त्याग कर सत्य व ज्ञान से युक्त प्राणीमात्र के हितकारी एवं उन्नति के पर्याय वेदों को अपनायेंगे और अभ्युदय व निःश्रेयस को प्राप्त होंगे। ऐसा ही सृष्टि के आरम्भ से महाभारत तक के 1.96 अरब वर्षों में अनुमान होता है।
वेदों का ज्ञान परमात्मा ने किस प्रकार दिया इसका तर्क एवं युक्तिसंगत उत्तर जो पौराणिकता, अज्ञानता तथा अंधविश्वासों से सर्वथा रहित है, वह वेद मर्मज्ञ ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ के सातवें समुल्लास तथा ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका के वेदोत्पत्ति प्रकरण में दिया है। जिज्ञासु बन्धुओं को सत्यार्थप्रकाश और ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका के संबंधित स्थलों को देखकर अपना ज्ञान अद्यतन करना चाहिये। यहां संक्षेप में इतना कहेंगे कि ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ, सर्वव्यापक एवं सर्वान्तर्यामी है। उसने इस प्रकार की सृष्टि वा जगत को इससे पहले भी एक दो बार नहीं अनन्त बार बनाया है। ईश्वर के पास सृष्टि की रचना करने और उसे धारण करने का अनन्त काल से ज्ञान व अभ्यास है। उसी ने सृष्टि को बनाकर अपने अन्तर्यामी स्वरूप से जीवों के भीतर आत्मा में प्रेरणा द्वारा वेदों का ज्ञान दिया था। परमात्मा हमारी आत्माओं के भीतर है और हमें अब भी प्रेरणा करता रहता है। जब हम कोई पाप कर्म को करने का विचार करते हैं तो हमारे मन में भय, शंका व लज्जा उत्पन्न होती है और जब हम कोई परोपकार, शुभ व पुण्य कर्म करने का विचार करते हैं तो उस कर्म को करने के प्रति हमारी आत्मा में उत्साह, उमंग, निर्भयता व प्रेरणा उत्पन्न होती है। यह प्रेरणा कौन करता है? इसका एक ही उत्तर है कि हमारी आत्मा में व्यापक परमात्मा ही इन प्रेरणाओं को करता है। इससे यह ज्ञात होता है कि परमात्मा हमारी आत्मा के भीतर व बाहर विद्यमान है। वह हमें जो कहना होता है उसे हमारी आत्माओं में प्रेरणाओं द्वारा कहता है। इसी प्रकार से परमात्मा ने सृष्टि के आरम्भ में चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा के हृदयस्थ आत्माओं में पेे्ररणा करके वेदों का ज्ञान दिया था। इस कारण हमें नवसंवत्सर के दिन वेद जयन्ती भी मनानी चाहिये। आज वेदों की 1,96,08,53,121 वीं जयन्ती है। इसके माध्यम से हमें परमात्मा का धन्यवाद करने सहित वेदों के स्वाध्याय एवं वेदमार्ग पर चलने का संकल्प वा व्रत लेना चाहिये। ऐसा करने से हमारा न केवल इस जन्म में अपितु आने वाले सभी जन्मों में भी कल्याण होगा। नवसम्वत्सर को हम वैदिक धर्म एवं संस्कृति का स्थापना दिवस भी कह सकते हैं। वेदाविर्भाव से सम्बन्धित होने के कारण इसे इस रूप में मनाने का औचीत्य निर्विवाद है।
चैत्र का महीना शीतकाल की समाप्ति पर आरम्भ होता है। इस समय यव वा गेहूं की फसल तैयार होने को होती है। इसके कुछ ही दिन बाद देश के अनेक भागों में फसल की कटाई आरम्भ हो जाती है। यह जीवन का एक महत्वपूर्ण अवसर होता है कि जब मनुष्य की प्राथमिक आवश्यकता अन्न की प्राप्ति उन्हें होती है। इस अवसर पर होने वाली प्रसन्नता को पर्व के रूप में सम्मिलित किया जा सकता है। आज का दिन इसलिये भी महत्वपूर्ण होता है कि लगभग पांच हजार वर्ष पूर्व इसी दिन महाराज युधिष्ठिर का राज्यारोहण हुआ था। आज के दिन ही महाराज विक्रमादित्य जी का राज्याभिषेक होकर विक्रमी सम्वत् का आरम्भ हुआ था। इसे स्मरण कर हम महाराज विक्रमादित्य जी के शौर्य एवं जनहित के कार्यों को स्मरण कर सकते हैं। हमें यह स्मरण रखना चाहिये कि महाराज विक्रमादित्य ईसा मसीह जी के जन्म से पूर्व भारत के यशस्वी राजा रहे हैं। उन दिनों का भारत विश्व के सभी देशों में विकसित एवं उन्नत देश था। इसके बाद ऋषि दयानन्द जी के समय 1825-1883 में वैदिक धर्म एवं संस्कृति विकृतियों को प्राप्त हो गयी थी। ज्ञान-विज्ञान पर आधारित वैदिक धर्म का स्थान अन्धविश्वासों, पाषण पूजा, नदियों में स्नान को तीर्थ माना जाने लगा था, मृतकों का श्राद्ध आरम्भ हो गया था, हमारे सुख दुःख हमारे कर्मों पर आधारित होते हैं परन्तु कुछ लोगों ने इसके स्थान पर फलित ज्योतिष प्रचलित कर हमारे सुख व दुःखों को जन्म की राशियों व सुख व दुःख को जन्म कुण्डली से जोड़ दिया था, ऐसी मान्यतायें व प्रथायें किसी भी प्रकार से सत्य एवं प्रामाणिक सिद्ध नहीं होती। अतः वैदिक धर्म से अन्धविश्वासों, पाखण्डों, कुरीतियों व अन्य अज्ञानपूर्ण परम्पराओं को दूर करने के लिये ऋषि दयानन्द ने चैत्र शुक्ल पंचमी के दिन सन् 1875 में मुम्बई में आर्यसमाज की स्थापना की थी। आर्यसमाज अपना स्थापना दिवस भी चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को ही मनाने लगा है। इस दृष्टि से भी नवसंवत्सर का का प्रथम दिवस महत्वपूर्ण है। ऐसी अनेक अन्य एतिहासिक घटनायें हो सकती हैं जो इस दिन से जुड़ी हों। उन्हें भी इस अवसर पर स्मरण किया जा सकता है।
नववर्ष विषयक उल्लेख ज्योतिष के एक प्राचीन ग्रन्थ हिमाद्रि में मिलता है। इस ग्रन्थ के एक श्लोक में कहा गया है कि चैत्र मास के प्रथम दिन सूर्याेदय के समय ब्रह्मा ने जगत् की रचना की थी। ज्योतिष के आचार्य भास्कराचार्य जी के ग्रन्थ सिद्धान्त शिरोमणि के एक श्लोक में बताया गया है कि लंका नगरी में सूर्य उदय होने पर आदित्य-वार (ैनदकंल) का दिवस, मास चैत्र शुक्ल पक्ष का आरम्भ दिन (प्रथम दिन), अन्य मास, वर्ष तथा युग (सतयुग आदि) एक साथ आरम्भ हुए। नवसंवत्सर मनाने की प्रथा की पुष्टि औरंगजेब के अपने पुत्र मोअज्जम को लिखे पत्र से भी होती है। पत्र में उसने लिखा था कि यह दिन (चैत्र शुक्ल प्रतिपदा) अग्निपूजक पारसियों का पर्व है और काफिर हिन्दुओं के विश्वास के अनुसार विक्रमाजीत के राज्याभिषेक की तिथि है और यही भारतवर्ष का नवसंवत्सर का आरम्भ दिवस है। इन प्रमाणों से चैत्र शुक्ल प्रतिपदा के दिन ही सृष्टि व नववर्ष का आरम्भ होना ज्ञात होता है।
पर्वों को मनाने की वैदिक परम्परा यह है कि उस दिन अपने घर वा निवास को स्वच्छ किया जाये। किसी विद्वान पुरोहित को बुलाकर व स्वयं ही परिवार सहित गृह पर अग्निहोत्र यज्ञ किया जाये। पर्व से सम्बन्धित शास्त्रीय जानकारी सहित उस दिवस की ऐतिहासिक महत्ता को भी संबंधित ग्रन्थों से पढ़कर पूरे परिवार को विदित कराई जाये। पर्व के दिन स्थान-स्थान पर सार्वजनिक कार्यक्रम आयोजित किये जायें जहां विद्वानों को आमंत्रित किया जाना चाहिये। विद्वानों का सम्मान किया जाना चाहिये और उनसे पर्व की महत्ता पर सारगर्भित उपदेश देने का अनुरोध करना चाहिये। इस अवसर पर रोचक व मधुर स्वर से गीत व भजन गाने वाले गायकों के प्रभावशाली गीतों का श्रवण किया जाना चाहिये। ऐतिहासिक पृष्ठ भूमि के नाटकों का मंचन, बच्चों के गीत, नृत्य-अन्त्याक्षरी प्रतियोगितायें तथा किसी धार्मिक व सांस्कृतिक विषय पर वाद- विवाद आदि प्रतियोगितायें भी आयोजित की जा सकती हैं। इससे मनोरंजन सहित ज्ञानवर्धन, वृद्धों एवं विद्वानों का स्वागत, सम्मान एवं सत्कार होने से समाज को लाभ होता है। ऐसा करने से अन्धविश्वास भी समाप्त किये जा सकते हैं। इसके लिये विद्वानों का भी अन्धविश्वासों तथा पाखण्डों से मुक्त होना तथा इन्हें दूर करने की भावनाओं से युक्त होना आवश्यक है जैसे हमारे ऋषि दयानन्द, स्वामी श्रद्धानन्द, पं. लेखराम, स्वामी दर्शनानन्द, पं. चमूपति जी तथा महाशय राजपाल जी आदि थे।
चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से आरम्भ होकर 9 दिन का समय पौराणिक बन्धुओं में नवरात्र के दिनों के रूप में माना जाता है। इस अवसर पर वह अपने प्रकार से देवी की पूजा करते हैं। वैदिक सिद्धान्तों के अनुसार इस संसार में एकमात्र एक सर्वव्यापक ईश्वर ही उपासनीय देवता है। अन्य सब देवता जड़ हैं जिनकी पूजा मूर्ति के रूप में नहीं अपितु जल, वायु आदि देवताओं को स्वच्छ एवं पवित्र रखकर होती है। ऐतिहासिक महापुरुष अपने-अपने समय में देवता थे। इनकी पूजा इनके चरित्रों का अध्ययन कर अपने चरित्र को उन जैसा आदर्श बनाकर ही की जा सकती है। हमारे बन्धु मध्यकाल के अन्धकार के समय में इन बातों को समझ नहीं सके और आज भी इसे समझने का प्रयास नहीं कर रहे हैं। ऋषि दयानन्द ने इस ओर ध्यान दिलाया था और इससे होने वाली हानियों से भी परिचित कराया था। धर्म के क्षेत्र में जो अज्ञान है उसे वेदों, उपनिषदों तथा दर्शनों सहित सथ्यार्थप्रकाश आदि शास्त्रों के अध्ययन वा स्वाध्याय से दूर किया जा सकता है। ऐसा करके ही हम अन्धविश्वासों से मुक्त और संगठित हो सकते हैं और अपने धर्म एवं संस्कृति की रक्षा कर सकते हैं। ईश्वर की उपासना से हम धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को भी प्राप्त हो सकते हैं। हमें अपनी जीवन की उन्नति के लिये अविद्या व अन्धंविश्वासों का त्याग करना ही होगा। इसी के साथ इस लेख को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य