शांता कुमार
वाटिका में बड़े सुंदर-सुंदर फूल खिलते हैं। माली उनको कठिन परिश्रम से अपने स्नेह का स्पर्श दे, सहला सहला कर पालता है। उनकी गंध व सौरभ से चहुं ओर का वातावरण उल्लास से मुखरित हो उठता है। भक्तगण उन फूलों को तोड़ अपनी आरती की थाली में सजाकर, अपने आराध्य देवता के चरणों में चढ़ा देते हैं। कुछ मनचले युवक पुष्पों को अपने प्रियजनों को भेंट करके अपनी प्रीति का प्रदर्शन करते हैं। फूलों का सौरभ, उनका सौंदर्य तथा मादक सुगंध को लोग देखते हैं, सूंघते हैं तथा प्रशंसा करते हैं। भ्रमर, उसके रस के प्यासे होकर घंटों उन पर मंडराते रहते हैं। परंतु किसी सुदूर बनांत के किसी सूने निर्जन कोने में कांटों व झाडिय़ों से घिरे बीहड़ पथ पर कभी कभी मनमोहक कली उग आती है। वह भी अपने यौवन का परिचय देती हुई प्रस्फुटित होती है, प्रफुल्लित होती है। थोड़े ही समय में एक सुंदर मादक खिले हुए फूल के रूप में उसका यौवन अठखेलियां करता हुआ निखर उठता है।उसमें भी सुगंध होती है, कोमलता होती है, पत्तियों का कौमार्य होता है और एक मनोहारी सौंदर्य होता है। पर वह फूल उस सूने निर्जन स्थान में अकेला खिलता है और खिलकर मुरझा जाता है और फिर धरती की मिट्टी में ध्वस्त हो विलीन हो जाता है। उसे कोई देखता नही। कोई उस पर शोक प्रकट नही करता, उसके लिए वेदना के दो आंसू कोई नही गिराता और उसके गत वैभव व सौंदर्य की कोई प्रशंसा नही करता। बिना देखे वह खिलकर मुरझा कर समाप्त हो जाता है। प्रभु की लीला को इसे चमत्कार कहें या अत्याचार कुछ समझ में नही आता।
स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में भी इस प्रकार के कितने ही फूल खिलकर मुरझा गये। समय की तीव्र गति ने उनकी ओर निहारकर भी न देखा। ऐसे ही एक फूल थे, मैनपुरी षडयंत्र के नेता पंडित गेंदालाल दीक्षित।
वैसे तो उत्तर प्रदेश में भी क्रांतिकारियों ने बड़े षडयंत्र किये, पर उन सब में मैनपुरी षडयंत्र अपनी एक विशेषता रखता है। इसके नेता पंडित गेंदालाल दीक्षित थे। आगरा के समीप बटेसुर गांव के रहने वाले थे। प्रारंभिक शिक्षा समाप्त करके डीएवी स्कूल औरैया में अध्यापन कार्य करने लगे। विचारों से वे आर्य समाजी थे। राजनीतिक दृष्टि से तिलक पर उनकी अटूट श्रद्घा थी। उन्हें वे अपना गुरू समझते थे। अपने देश की विकट परीधीनता की अवस्था पर उनका ध्यान गया। भारत मां की दयानीय अवस्था ने उनके प्रति अति मानवीय मानस पटल पर एक मार्मिक चोट की। कुछ करने के लिए उनका हृदय छटपटाने व तड़पने लगा। उधर सारे देश में स्थान स्थान पर कुछ युवक मां की गुलामी की बेडिय़ां तोडऩे का प्रयत्न कर रहे थे। बंगाल व पंजाब में तो विशेष रूप से नवयुवक मानो आग की होली ही खेल रहे थे। महाराष्ट्र में लोकमान्य तिलक, गणेश और शिवाजी के उत्सवों के बहाने नवयुवकों को देश भक्ति का पाठ पढ़ा रहे थे।
दीक्षित जी ने भी एक शिवाजी समिति बनाई। उद्देश्य था, शिवाजी के तरीके पर शक्ति का संचय करके विदेशी सत्ता को उखाड़ फेंकना। इस प्रकार वह कुछ दिन तक अपने विचारों का प्रचार करता रहे। प्रचार के साथ साथ वे कुछ ठोस कार्य करने की चिंता में रहने लगे। इस दृष्टि से उन्हें उत्तर प्रदेश के पढ़े लिखे लोग अच्छे अच्छे पदों पर आसीन हो, अंग्रेजी राज्य का नमक खाने के कारण सुखोपभोग में लिप्त हो, देश धर्म का सब प्यार भुला बैठे। देश धर्म से स्वयं को दूर करके मौज की बंशी बजा रहे थे। उन्हें इस वर्ग से बड़ी निराशा हुई। इस प्रकार का अनुभ्ज्ञव वासुदेव बलवंत फड़के, रामप्रसाद बिस्मिल तथा अन्य कुछ क्रांतिकारी भी कर चुके थे। आखिर विवश हो पंडितजी ने यह विचार किया कि देश में एक ऐसा भी संप्रदाय है, जिसमें अभी पराक्रम व साहस बाही है। भले ही वे उस पराक्रम व साहस का ठीक दिशा में उपयोग नही करते। यह सोचकर उन्होंने कुछ डाकुओं का संगठन करने का निश्चय किया। इस विषय में एक सज्जन ब्रह्मचारी जी से उन्हें बड़ी सहायता मिली। उन्होंने चंबल की घाटी के कुछ डाकुओं से संबंधा स्थापित करके स्वराज्य प्राप्ति के लिए धन इकट्ठा करने के लिए डाके डालने की योजना बनाई।
स्वतंत्रता संग्राम में डाकुओं की सहायता के औचित्य पर भिन्न मत हो सकते हैं। परंतु हमें इतिहास की किसी भी घटना को उस समय की परिस्थितियों के प्रकाश में ही देखना होगा। अंतत्वोगत्वा वे लोग हानिकारक होते, इसमें कोई संदेह नही है, परंतु जब चहुं ओर निराशा थी, कोई साथ आने का नाम तक लेना नही चाहता था, उस भयंकर राष्ट्रीय पतन के क्षेत्र में किसी भी मस्तिष्क का इस प्रकार विचार करना अस्वाभाविक नही कहा जा सकता।
इन्हीं दिनों दीक्षित जी ने ‘मातृवेदी’ नाम से भी एक दल संगठित किया। इस दल में भले लोगों को भरती करके देश धर्म की भक्ति का पाठ पढ़ाया जाता था। रामप्रसाद बिस्मिल जो बाद में काकोरी षडयंत्र में शहीद हुए इस दल के सदस्य थे। काकोरी के मुमुन्दीलाल भी इन्हीं दिनों देशभक्तों के संपर्क में आए। कुछ ही दिनों में अच्छे युवकों की टोली इकट्ठी हो गयी। इन सबको अच्छी शिक्षा देने का विचार आया। कहे हैं, इच्छा को पूरा करने के लिए वे स्वयं अध्ययन के लिए बंबई गये। वहां से लौटकर इन नवयुवकों के हृदय में देशधर्म पर बलिदान होने का मंत्र फूंकने लगे।
उधर ब्रह्मचारी जी ने डाकुओं आदि से बना एक अच्छा खासा संगठन खड़ा कर लिया था। धन संग्रह के लिए उन्होंने एक धनवान के घर पर डाका डालने की योजना बनाई। डाके का स्थान दूर था। इसलिए मार्ग में ही एक जंगल के पास पड़ाव डालना पड़ा। उनके गिरोह में 80 लोग थे। उनमें एक हिंदू सिंह नाम का व्यक्ति पुलिस वालों के झांसे में आ गया था। उसने इस दल को पकड़वाने के लिए पुलिस से सब बातचीत तय कर ली थी। पड़ाव डालने पर सब थके थे, अत: भूख लगने लगी। पास ही गांव में हिंदू सिंह का कोई संबंधी रहता था। वह उस गांव में भोजन का प्रबंध करने के लिए गया। पहले से ही सब योजना तैयार थी। गर्म गर्म पूडिय़ों आ गयीं। उनमें भयंकर विष मिलाया हुआ था। भाग्य व होनी की बात की ब्रह्चारीजी जो कभी किसी के हाथ का बनाया भोजन न खाते थे, इस हिंदूसिंह के आग्रह पर उन पूडिय़ों पर सबसे पहले टूटे। विष अधिक था, इसलिए खाते ही जीभ ऐंठने लगी। वे सब बात तुरंत समझ गये। सबाके पूडिय़ां खाने को उन्हेांने मना कर दिया। हिंदू सिंह ने काम पूरा हुआ जानका नौ-दो ग्यारह होना चाहा, पानी लेने के बहाने वह वहां से खिसकने लगा। ब्रह्मचारी जी ने पास पड़ी बंदूक उठाकर उस द्रोही पर दे मारी।
बंदूक की गोली चलना था कि जंगल में चोर ओर छिपे 500 सिपाहियों की बंदूकें आगे उगलने लगीं, दोनों ओर से गोलियों की बौछार होने लगी। ब्रह्मचारी जी विष से ही तड़प रहे थे। आक्रमण का मुकाबला करते रहे, पर हाथा में गोली आ लगने पर बंदूक हाथ से छूट गई। गंदालाल की भी बांई आंख में बंदूक के छर्रे लगे, जिससे वह आंख जाती रही। कुछ लोग पूडिय़ों के विष से मरे और कुछ पुलिस की गोलियों से 80 से 35 वहीं मारे गये। अंत में 45 समर्पण करना पड़ा। गेंदालाल, ब्रह्मचारी जी तथा कुछ अन्य लोगों को पकड़कर ग्वालियर किले में बंद कर दिया गया। उनकी गिरफ्तारी का पता मातृवेदी के सदस्यों को लगा तो वे बड़े चिंतित हुए। रामप्रसाद बिस्मिल जैसे कुछ साहसी युवक किला देखने के बहाने ग्वालियर के किले में गये और गेंदालाल आदि से मिल आए। उनके परामर्श से मातृवेदी के सदस्रूों ने उन्हें किले से ही छुड़ा लेने की योजना बनाई।
क्रमश: