राजा को मन्युशील होना चाहिए
ऐसे राजा का राज्य अधिक दिनों तक नहीं टिक पाता जो मन्यु रहित हो और दुष्टों व अनाचारी लोगों के सामने हथियार फेंक देता हो। दुष्टों और अनाचारियों का विनाश करना हर राजा का पवित्र उद्देश्य होता है, और समाज के जागरूक व सबल लोगों का यह दायित्व होता है कि वे समाज को दुष्टों व अनाचारी लोगों के आधिपत्य से मुक्त करे। इसलिए प्रकृति ने अपनी व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाये रखने के लिए मन्युशील बनने के लिए हर व्यक्ति को खुला छोड़ा है। इसका एक कारण यह भी है कि मन्युशील व्यक्ति से दुष्टात्माएं स्वयं बचकर निकलती हैं। यही कारण है कि हम अपनी प्रार्थना में ईश्वर से यह भी कामना करते हैं कि आप मन्यु हैं, इसलिए मुझे भी मन्यु बनाओ।
हमारी कामना होनी चाहिए कि काम, क्रोधादि विकार हमारे भीतर उसी सीमा तक होने चाहिएं जिस सीमा तक उनका रहना ईश्वरीय व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाते रहने के लिए आवश्यक है। यदि किसी कारण इन तत्वों का हमारे भीतर अधिक समावेश हो जाता है अर्थात उस सीमा से अधिक हो जाते हैं जिस सीमा तक इनका रहना हमारे लिए और ईश्वरीय व्यवस्था के लिए आवश्यक है, तो उस समय ये सारे तत्व या इनमें से कोई भी एक तत्व हमारे विनाश का कारण बन जाता है। संसार के ऐसे बहुत लोग हैं जो केवल क्रोध के कारण अपने बने बनाए काम बिगाड़ लेते हैं, और न केवल अपने काम बिगाड़ लेते हैं अपितु क्रोध के कारण कितने ही स्थानों पर अपमानित भी होते हैं।
इसी प्रकार काम, मद, मोह, लोभ आदि में से किसी भी एक के कारण हम किसी व्यक्ति को समाज में अपमानित और तिरस्कृत होते हुए देखते हैं। ऐसे लोग समाज में रहकर विशेष उन्नति नहीं कर पाते। ये समय पूर्व ही पक जाते हैं और थक जाते हैं। इनके ये विकार इन्हें घेरे रहते हैं और पटक-पटककर इन्हें मार लेते हैं। हमारे ऋषि पूर्वजों ने इस सत्य को समझा। हमारे ऋषियों ने हमारे लिए आचार संहिता बनाई कि इन विकारों की अधिकता से बचकर रहना, इन्हें अपने नियंत्रण में रखना, और ध्यान रखना कि इन पर तुम्हें हावी होना है, ऐसा न हो कि ये तुम पर हावी हो जाएं। ध्यान रखना कि जब तुम इन पर हावी रहोगे, तब तक ये तुम्हारे बिगड़े कामों को भी सुधारते रहेंगे। परंतु जैसे ही ये तुम पर हावी हो जाएंगे वैसे ही ये तुम्हारे बनते कामों को भी बिगाड़ डालेंगे। यही कारण रहा कि हमारे ऋषियों ने हमसे यह अपेक्षा की कि जितेन्द्रिय बनो, इंद्रियों को अपने वश में रखो। यदि इंद्रियों के घोड़े अनियंत्रित हो गये तो आपके रथ रूपी शरीर को खाई, गड्ढों में डालकर तोड़-फोड़ डालेंगे।
जब हम संध्या में परमपिता परमेश्वर की गोद में बैठे होने का आनंद ले रहे हों तब साधना के उन पवित्र क्षणों में अर्थात ईश्वर के दरबार में उपस्थित होते समय हम ये देखें कि अपने साथ काम, क्रोधादि की सेना को लेकर न जाएं। वहां जितने हल्के होकर हम अपने परमपिता से मिलेंगे अर्थात बातचीत करेंगे, उतना ही अच्छा है। वैसे भी हमें ईश्वर से कुश्ती नहीं लडऩी है और ना ही उसके सामने किसी प्रकार का शक्ति प्रदर्शन करना है, तब समर्पण भाव से ही उसके समक्ष उपस्थित होना या समर्पण भाव से ही उसे सदा अपने साथ मानना ही उपयुक्त है। किसी कवि ने कहा है-
‘उलफत की राह में दो की गुजर नहीं’
कबीर दास जी ने भी बड़ा सुंदर कहा है-
‘जब मैं था तब हरि नहीं जब हरि है हम नाहिं।
प्रेम गली अति सांकरी तामें दो न समाहि।।’
सार्थक जीवन जीने के लिए माखनलाल चतुर्वेदी जी ने अपनी इन पंक्तियों में भी बड़ा सुंदर संदेश दिया है :-
‘चाह नहीं मैं सुरबाला के गहनों में गूंथा जाऊं।
चाह नहीं, प्रेमी माला में बिंध प्यारी को ललचाऊं।।
चाह नहीं देवों के सिर चढूं भाग्य पर इठलाऊं।
मुझे तोड़ लेना बनमाली उस पथ पर देना तुम फेंक,
मातृभूमि पर शीश चढ़ाने जिस पथ जाते वीर अनेक।’
यज्ञमयी जीवन स्वयं में एक पुष्प है। इस पुष्प की अभिलाषा, कामना ऐसी ही होनी चाहिए जो इसे महानता की साधक बना दे और मोक्ष पद का पात्र बना दे। इतनी पवित्र कामना, इतनी पवित्र साधना और इतनी पवित्र प्रार्थना हमारे जीवन को पवित्र बना डालेगी और हमारा यह जीवन एक पुष्प की भांति सर्वत्र अपनी सुगंधि फैलाकर सभी के लिए सम्मान और सत्कार का पात्र बन जाएगा। ऐसी कामना सचमुच हमारा जीवन बदल देगी।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत