ओ३म्
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संसार में ज्ञान से सम्बन्धित सबसे प्राचीन पुस्तक चार वेद हैं। इन चार वेद ग्रन्थों ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद के मुख्य विषय ज्ञान, कर्म, उपासना तथा विशिष्ट ज्ञान वा विज्ञान हैं। यह चार वेद सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, सर्वज्ञ एवं सर्वशक्तिमान परमात्मा ने सृष्टि के आरम्भ में अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य एवं अंगिरा को उनकी आत्माओं में प्रेरणा द्वारा प्रदान किये थे। ईश्वर ने ही इस सृष्टि व सब प्राणियों को बनाया है। किसी भी रचनाकार को रचना का पूर्ण ज्ञान होता है। यदि उसे ज्ञान न हो तो वह रचना नहीं कर सकता। अतः किसी विषय के वरिष्ठ वैज्ञानिक व इंजीनियर की तरह ही इस सृष्टि और सभी प्राणियों की रचना करने के कारण ईश्वर को ज्ञान व विज्ञान का पूर्ण रहस्य व ज्ञान विदित होता है। इस आधार पर ईश्वर का ऋषियों को व ऋषियों द्वारा उस वेद का मनुष्यों को दिया हुआ ज्ञान भी सर्वथा व पूर्णतः सत्य है। वेदों की परीक्षा करने पर भी वेदों का ज्ञान इस सृष्टि व सृष्टिक्रम के सर्वथा अनुकूल सिद्ध होता है। ऋषि दयानन्द ने वेदों की सत्यता की परीक्षा की थी और वह इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि वेद आद्यान्त सर्वत्र सत्य एवं मनुष्यों के लिए हितकारी ज्ञान के आगार व कोष हैं। इस कारण अर्थात् सर्वांश में वेदज्ञान के सत्य होने, पक्षपात से रहित तथा सभी मनुष्यों के हितकर व उपयोगी शिक्षाओं से युक्त होने से ही उनका महत्व है। वेद के ऋषियों ने सृष्टि के आरम्भ से महाभारत युद्ध तक वेदज्ञान को अपने प्राणों से भी प्रिय मानकर इनकी रक्षा की है। इसी कारण यह वेदज्ञान सृष्टि के आदि काल से वर्तमान समय तक के 1.96 अरब वर्षों की लम्बी अवधि में भी सुरक्षित बने हुये हंै। जो महत्व वेदों का है वह संसार में उपलब्ध किसी ज्ञान विज्ञान व मत-मतान्तर की पुस्तक का नहीं है। इसका कारण वेदों का सबसे प्राचीन होना, वेदों का ज्ञान ईश्वर द्वारा दिया जाना और वेदों की सभी बातें ज्ञान व विज्ञान के अनुकूल होना है। यह भी ज्ञातव्य है कि संसार की सभी धार्मिक व अन्य पुस्तकें परमात्मा के ही बनाये अल्पज्ञ, अल्प ज्ञान व अल्प शक्ति वाले मनुष्यों की बनायी हुई हैं। इस कारण मनुष्यों द्वारा प्रेरित व बनाई गई सभी पुस्तकों में अविद्या, अज्ञान, असत्य मान्यताओं व सिद्धान्तों का होना स्वाभाविक है। यह इन ग्रन्थों के अध्ययन से भी विदित होता है जिसका प्रमाणसहित उल्लेख ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश में किया है।
वेदों में यज्ञों को करने की प्रेरणा एवं विधान है। अग्निहोत्र यज्ञ वेद मन्त्रों के साथ आम्र आदि काष्ठों से उत्पन्न की गई अग्नि में वायुशोधक एवं स्वास्थ्यवर्धन ओषधियों सहित सुगन्ध का विस्तार करने, आरोग्यप्रद, बलवर्धक तथा विषनाशक पदार्थ गोघृत सहित अन्य अनेक लाभप्रद व हितकारी पदार्थों को अग्नि में आहुत करने की अनेकानेक लाभ प्रदान करने वाली प्रक्रिया व अनुष्ठान ही अग्निहोत्र, हवन, याग आदि नामों से प्रचलित हैं। यज्ञ का उद्देश्य हव्य पदार्थों को अग्नि द्वारा सूक्ष्म बनाकर उनसे मनुष्य आदि सभी प्राणियों को लाभान्वित करने की प्रक्रिया को कहते हैं। यज्ञ करने से वायुमण्डल में दुर्गन्ध सहित विषाणुओं व किटाणुओं का नाश होता है। यज्ञ से हमारे शरीर के भीतर का अशुद्ध रक्त भी न केवल शुद्ध होता है अपितु यज्ञ की वायु फेफड़ों में रक्त में घुलकर पूरे शरीर में पहुंच कर स्वास्थ्य को आरोग्य प्रदान करती है। वेद में विधान है ‘समिधाग्निं दुवस्यत घृतैर्बोधयतातिथिम्। आस्मिन् हव्या जुहोतन स्वाहा’ अर्थात् एक अतिथि की तरह समिधा व घृत आदि हव्य पदार्थों से प्रतिदिन प्रातः व सायं अग्नि का सेवन व सत्कार करो। एक अन्य वेदमन्त्र में बताया गया है कि आत्मा को परमात्मा में युक्त कर अग्निहोत्र करने से यज्ञकर्ता को पुत्र, पौत्र, सेवक, उत्कृष्ट सन्तान, गौ आदि पशुओं सहित वेद विद्या के तेज, धन-धान्य, घृत, अन्न आदि की प्राप्ति होकर मनुष्य बढ़ता है और समृद्धि को होता है। यज्ञ करने से वायु में विद्यमान विजातीय पदार्थों का प्रभाव नष्ट होता है, वायु का दुर्गन्ध दूर होकर वह सुगन्धित होती है, यज्ञ से शुद्ध हुई वायु श्वास से शरीर में प्रविष्ट होकर हमारे हृदय व फेफड़े के रोगों को दूर करती है तथा फेफड़ों का रक्त यज्ञ की वायु से शुद्ध होकर शरीर के सभी अंगों को पुष्ट करता है। इसके साथ ही यज्ञ करने से देवपूजा, विद्वानों के साथ संगतिकरण तथा विद्वानों से विद्या का दान भी प्राप्त होता है। वेदमन्त्रों को पढ़ने व बोलने सहित ऋषियों के ग्रन्थों का इस अवसर पर जो पाठ व प्रवचन होता है उससे भी हमारे ज्ञान में वृद्धि होती है। इसके साथ ही हमारा ईश्वर व आत्मा विषयक ज्ञान विस्तृत होकर नाना प्रकार की भ्रान्तियां दूर होती हैं। हम साधना के पथ पर अग्रसर होते हैं तथा कुछ व अनेक सिद्धियों को भी प्राप्त करते हैं। वर्तमान समय में आर्यसमाज में दैनिक व सामान्य यज्ञों सहित वृहद यज्ञों का भी प्रचलन है। वृहद यज्ञों से अधिक मात्रा में शुद्ध घृत एवं यज्ञीय द्रव्यों की आहुतियों से वायुमण्डल एवं आकाशस्थ वर्षाजल सहित पर्यावरण की शुद्धि होती है। यज्ञ करने वाला व्यक्ति व उसका परिवार अनेक साध्य व असाध्य रोगों से बचा रहता है। यज्ञ में वेदमंत्रों से ईश्वर से जो प्रार्थनायें की जाती हैं उससे यज्ञकर्ता को आयु, विद्या, यश और बल सहित धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति होती है। इन उपलब्धियों को केवल वेद से ही प्राप्त किया जा सकता है। इनकी प्राप्ति अन्य किसी साधन से नहीं होती।
हमारा दुर्भाग्य है कि हम यज्ञ के महत्व व लाभों से परिचित नहीं है। हमें यह भी नहीं पता है कि दैनिक यज्ञ करना प्रत्येक गृहस्थी का कर्तव्य होता है। जिस प्रकार ईश्वर की उपासना, माता-पिता और आचार्यों की सेवा तथा मूक पशु-पक्षियों को भोजन व चारा आदि खिलाने से मनुष्य को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष लाभ होते हैं उसी प्रकार से यज्ञ करने से भी अनेकानेक प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष लाभ होते हैं। अप्रत्यक्ष लाभों को छोड़ भी दें तो भी हमें वायु, वर्षा-जल तथा पर्यावरण शुद्धि सहित साध्य व असाध्य रोगों से बचाव व होने वाले लाभों के लिए यज्ञ अवश्य ही करना चाहिये। यज्ञ करने से परिवार, समाज व देश को भी लाभ होता है। यह ज्ञान वैदिक साहित्य का अध्ययन करने से समझ में आता है। अतः हम सबको यज्ञ अवश्य करना चाहिये। ऐसा करने से हम ईश्वर की आज्ञा का पालन करने के साथ राम व कृष्ण आदि अपने पूर्वजों की परम्परा का पालन व निर्वाह करने वाले बनेंगे। यह कोई कम लाभ नहीं है।
हम जिस मत व परम्पराओं को मानते हैं वह कुछ ऐसी हैं कि वह प्राणीमात्र के लिये लाभप्रद होते हुए भी हमें उनसे सद्कार्यों को करने की शक्ति व प्रेरणा प्राप्त नहीं होती। दूसरी ओर संसार में ऐसे भी श्रद्धालु लोग हैं जो अपनी पुस्तकों की बातों का सत्यासत्य का विचार किये ही उन्हें पूरा करने के लिये तत्पर रहते हैं। वह अपने कृत्यों के मानवीय व अमानवीय होने पर भी विचार नहीं करते। परमात्मा ने यह संसार में जीवात्माओं को उनके पूर्वकर्मों के भोग वा सुख-दुःख प्रदान करने के लिये बनाया है। मांसाहार से उन जीवों का जीवन अपने भोग भोगे बिना ही बीच में समाप्त कर दिया जाता है। हम व संसार में मानवतावादी लोग आज तक मौखिक प्रचार कर संसार से मांसाहार व पशु-हिंसा को बन्द नहीं करा पाये। एक ओर वह लोग हैं जो सद्गुणों व सद्कार्यों यज्ञ आदि को ग्रहण नहीं करते और दूसरी ओर वह हैं जो असत्य, प्राणियों के दुःखदायी व अहितकर तथा ईश्वरीय विधान के विरुद्ध कार्यों को भी पूरे उत्साह से करते हैं। इससे यही प्रतीत होता है कि हम हमारे बन्धु कुछ-कुछ नाममात्र ही सन्मार्गगामी हैं पूर्णरुपेण नहीं। हम लोग गाय जैसे उपयोगी पशु की हत्या भी नहीं बन्द करा पायें हैं। ऐसे बहुत से कार्य हैं जो हमें कराने थे परन्तु उनमें हम असफल हैं। हमने अनेक अवसरों पर कुछ अनुभवी विचारकों व चिन्तकों से सुना है कि संसार में जो अमानवीय पशु-हिंसा होती है वह विश्व में यत्र-तत्र भूकम्प, अनावृष्टि, अतिवृष्टि, मौसम परिवर्तन एवं अनेक आपदाओं का कारण बनती है। विश्वस्तरीय सम्मेलनों में भी यह बातें प्रस्तुत की गई हैं। वर्तमान समय में संसार कोरोना वायरस के आतंक से त्रस्त है। देश में विगत 72 वर्षों में ऐसा रोग व महामारी नहीं देखी है। ऐसा बताया जा रहा है कि यह रोग भी चमगादड़ पक्षी का जूस पीने से चीन में उत्पन्न होकर सारे विश्व में फैला है। अतः इसका एक कारण पशु-हिंसा को भी माना जा सकता है। आजकल बताया जा रहा है कि लोग बाजारों में मांसाहारी भोजन नहीं कर रहे हैं। फास्ट फूड आदि भी लोगों ने खाना छोड़ दिया है। यह एक अच्छा समाचार है। यह जारी रहना चाहिये। हमें मनुष्य समाज व देश सहित मानवता की चिन्ता करनी चाहिये और पशुओं के प्रति हिंसा का त्याग कर सही अर्थों में मनुष्य बनना चाहिये। इसी से यह संसार सुरक्षित व सुखी रह सकता है।
अग्निहोत्र यज्ञ वेदों व वैदिक परम्परा की एक अति महत्वपूर्ण ऐसी देन है जिससे मनुष्य का सर्वविध कल्याण होता है। हमें इस परम्परा को अपनाकर इसे बढ़ाना चाहिये। इससे हम कोरोना रोग पर भी नियंत्रण कर सकते हैं क्योंकि यज्ञ करने से विषाणु व हानिकार जीवाणु नष्ट होते हैं। हमें मांसाहार सहित सभी अवैदिक कृत्यों को यथाशीघ्र छोड़ देना चाहिये और वेदों की शरण में जाना चाहिये। वेद मनुष्य को सुख व शान्ति से युक्त करते हैं। वेदमार्ग पर चलने से हमारा वर्तमान जीवन तथा मृत्यु के बाद का जीवन भी सुखी व कल्याणप्रद बनता है। वेदों का अध्ययन व स्वाध्याय तथा वेदानुकूल कर्म जिनमें यज्ञ भी एक कर्म है, हमें नित्य प्रति करना चाहिये और इसे करते हुए अपना व विश्व का कल्याण करना चाहिये। गीता में कृष्ण जी ने अर्जुन को बताया है कि यज्ञ करने से बादल बनते हैं। बादल से वर्षा होती है। वर्षा से अन्न उत्पन्न होता है। अन्न से पुरुष शरीर में मनुष्य का बीज वा वीर्य उत्पन्न होता। इससे मनुष्यों की उत्पत्ति होती है। मनुष्य पुनः यज्ञ करते हैं और उससे बादल, वर्षा व अन्न आदि की उत्पत्ति होती है। अतः यज्ञ का महत्व जानकर इस कर्म को अवश्य ही करना चाहिये। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य