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गांधीजी ने क्यों नहीं रुकवाई थी भगत सिंह और उनके साथियों की फांसी ?

आज क्रांतिकारियों के सिरमौर भगत सिंह व उनके साथी राजगुरु व सुखदेव का बलिदान दिवस है। वास्तव में यह भारत का वह दिवस है जिसे सभी क्रांतिकारियों की स्मृति में ‘राष्ट्रीय बलिदान दिवस दिवस’ घोषित किया जाए तो कुछ भी गलत नहीं होगा।
आज के इस लेख को हम केवल यहीं तक सीमित रखना चाहेंगे कि क्या गांधीजी सरदार भगत सिंह और उनके साथियों की फांसी को रुकवा सकते थे और क्या उन्होंने जानबूझकर उन्हें फांसी लगने दी ?
इन प्रश्नों का उत्तर खोजने के लिए हमें ध्यान रखना चाहिए कि गांधीजी अहिंसावादी आंदोलन को ही सारी आजादी की लड़ाई का केंद्र बना देना चाहते थे। इसके लिए वह जिद की हर सीमा तक जा सकते थे । उनकी यह जिद थी कि वह देश को आजाद न कराकर अधिशासी अधिकारी लेकर ही संतोष कर लेंगे लेकिन कांग्रेस के भीतर ही मौलाना हसरत मोहनी , सुभाष चंद्र बोस , देशबंधु चितरंजन दास और अन्य अनेकों लोगों के सुर जब उठे तो गांधी को 1929 में अपनी रणनीति पर विचार करना पड़ा। 1921 से कांग्रेस के भीतर ऐसे लोगों की आवाज उठने लगी थी जो गांधी के अहिंसा वादी आंदोलन को नकारा मानते थे। गांधी जी ने फिर लोगों को चुन – चुन कर या तो कांग्रेस से निकाला या किसी और दूसरे ढंग से उनसे बदला लिया।

यहाँ पर समझने वाली बात है कि जो गांधीजी अपने दल के भीतर के लोगों को अपने विरुद्ध आवाज नहीं उठाने देना पसंद करते थे वह उन क्रांतिकारी भगत सिंह और उनके साथियों की फांसी को क्यों रुकवाते जो उनकी विचारधारा के सर्वथा विपरीत दिशा में जाकर अर्थात हिंसक आंदोलन के माध्यम से देश को आजाद कराना चाहते थे ?
वर्ष1928 में साइमन कमीशन के विरुद्ध विरोध प्रदर्शन में वरिष्ठ कांग्रेस नेता लाला लाजपत राय को पुलिस की लाठियों ने घायल कर दिया ।इसके कुछ ही दिनों बाद उनका निधन हो गया । लाला जी के जीवन के अंतिम वर्षों की राजनीति से भगत सिंह सहमत नहीं थे और उन्होंने उनका खुलकर विरोध किया।
लेकिन अंग्रेज़ पुलिस अधिकारियों की लाठियों से घायल हुए लाला जी की स्थिति देखकर भगत सिंह को बहुत क्रोध आया । भगत सिंह ने इसका बदला लेने के लिए अपने साथियों के साथ मिलकर पुलिस सुपिरिटेंडेंट स्कॉट की हत्या करने की योजना बनाई।
लेकिन एक साथी की ग़लती के कारण स्कॉट के स्थान पर 21 वर्ष के पुलिस अधिकारी सांडर्स की हत्या हो गई ।
इस मामले में भगत सिंह पुलिस की गिरफ़्त में नहीं आ सके. लेकिन कुछ समय बाद उन्होंने असेंबली सभा में बम फेंका। उस समय सरदार पटेल के बड़े भाई विट्ठल भाई पटेल पहले भारतीय अध्यक्ष के तौर पर सभा की कार्यवाही का संचालन कर रहे थे।
भगत सिंह जनहानि नहीं करना चाहते थे, लेकिन वह बहरी अंग्रेज सरकार के कानों तक देश की सच्चाई की गूंज पहुंचाना चाहते थे।बम फेंकने के बाद भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त भाग सकते थे, लेकिन उन्होंने अपनी गिरफ़्तारी दे दी। गिरफ़्तारी के वक़्त भगत सिंह के पास उस वक्त उनकी रिवॉल्वर भी थी।

कुछ समय बाद ये सिद्ध हुआ कि पुलिस अफ़सर सांडर्स की हत्या में यही रिवॉल्वर प्रयोग हुई थी।
इसलिए, असेंबली सभा में बम फेंकने के मामले में पकड़े गए भगत सिंह को सांडर्स की हत्या के गंभीर मामले में अभियुक्त बनाकर फांसी दी गई।
वर्ष 1930 में दांडी कूच के बाद कांग्रेस और अंग्रेज सरकार के बीच संघर्ष जोरों पर था। इसी समय ब्रिटिश सरकार ने भारत में आजादी की लड़ाई को हल्का करने के दृष्टिकोण से भारत के नेताओं की एक बैठक आहूत की । यह बैठक लंदन में रखी गई। जिसे गोलमेज सम्मेलन के नाम से इतिहास में जाना जाता है। इस गोल मेज सम्मेलन की पहली बैठक में गांधी जी भारत की ओर से गए लेकिन उस बैठक का कोई भी परिणाम नहीं निकला।
17 फरवरी 1931 से वायसराय इरविन और गांधीजी के बाद बीच फिर से बातचीत आरंभ हुई। 5 मार्च 1931 को इन दोनों नेताओं के बीच एक समझौता हुआ। जिसे गांधी इरविन समझौता के नाम से इतिहास में जाना जाता है ।
इस गांधी इरविन समझौता में यह प्रावधान किया गया कि भारत की आजादी की लड़ाई लड़ने वाले उन लोगों को ब्रिटिश सरकार जेल से मुक्त कर देगी जो गांधी जी के अहिंसक आंदोलन में विश्वास रखते हैं । इसका अभिप्राय था कि गांधीजी से भिन्न मत रखने वाले या हिंसक आंदोलन चलाने वाले सरदार भगत सिंह जैसे क्रांतिकारियों को जेल से नहीं छोड़ा जाना था । इस समझौते से उन लोगों को बहुत अधिक निराशा हुई जो क्रांतिकारी आंदोलन के माध्यम से देश को आजाद कराने वाले सरदार भगत सिंह और उनके साथियों के समर्थक थे। उन सबने गांधीजी के विरुद्ध देश में माहौल बनाना आरंभ किया कि उन्होंने जानबूझकर क्रांतिकारियों को माफ नहीं कराया है।
लोगों ने गांधीजी का विरोध करते हुए पूरे देश में पर्चे बांटने आरंभ कर दिए। जिसमें गांधी जी के विषय में यह लिखा जाता था कि उन्होंने सरदार भगत सिंह और उनके साथियों को फांसी से रुकवाने का कोई ठोस उपाय जानबूझकर नहीं किया । गांधीजी के इस प्रकार के आचरण से साम्यवादी लोग ही खासे नाराज थे।
इसके उपरांत 23 मार्च 1931 के दिन भगत सिंह सुखदेव और राजगुरु को जब फांसी दे दी गई तो लोगों ने गांधीजी के विरोध में नारे और सभाएं करनी आरंभ कर दी और यह कहना आरंभ कर दिया कि जब फांसी दे दी गई है तो अंग्रेजों से अब किसी प्रकार का कोई समझौता नहीं होगा।
भगत सिंह और उनके साथियों की फांसी के 3 दिन बाद ही कराची में कांग्रेस का अधिवेशन आरंभ हुआ।
जिसमें कांग्रेस का अध्यक्ष सरदार वल्लभभाई पटेल को बनाया गया। गांधीजी इस अधिवेशन में भाग लेने के लिए 25 मार्च को वहां पहुंचे तो लोगों ने उनके विरुद्ध विरोध प्रदर्शन किया । उनका स्वागत करने वाले लोग काले कपड़े पहने हुए थे । यह लोग नारे लगा रहे थे कि गांधी मुर्दाबाद व गांधी गो बैक।
इस प्रकार के विरोध प्रदर्शनों से पता चलता है कि गांधीजी का उस समय कितना विरोध पूरे देश में हो रहा था ?
अख़बारों की रिपोर्ट के अनुसार, 25 मार्च को दोपहर में कई लोग उस जगह पहुंच गए जहां पर गांधी जी ठहरे हुए थे।रिपोर्टों के अनुसार, ‘ये लोग चिल्लाने लगे कि ‘कहां हैं खूनी’?
तभी उन्हें जवाहर लाल नेहरू मिले जो इन लोगों को एक तंबू में ले गए ।इसके बाद तीन घंटे तक बातचीत करके इन लोगों को समझाया, लेकिन शाम को ये लोग फिर विरोध करने के लिए लौट आए।
इधर कांग्रेस के भीतर नेताजी सुभाष चंद्र बोस और उनके क्रांतिकारी साथी भी गांधीजी के विरोध में उतर आए थे । वह इस बात से कतई सहमत नहीं थे कि गांधीजी सरदार भगत सिंह और उनके साथियों की फांसी को न रुकवा पाएं । अतः सुभाष चंद्र बोस व कई लोगों ने भी गांधी जी और इरविन के समझौते का विरोध किया। वे मानते थे कि अंग्रेज सरकार अगर भगत सिंह की फ़ांसी की सज़ा को माफ़ नहीं कर रही थी तो समझौता करने की कोई आवश्यकता नहीं थी। हालांकि, कांग्रेस वर्किंग कमेटी पूरी तरह से गांधी जी के समर्थन में थी।
गांधी जी ने इस विषय में अपनी प्रतिक्रिया देते हुए कहा – , ‘भगत सिंह की बहादुरी के लिए हमारे मन में सम्मान उभरता है. लेकिन मुझे ऐसा तरीका चाहिए जिसमें खुद को न्योछावर करते हुए आप दूसरों को नुकसान न पहुंचाएं…लोग फांसी पर चढ़ने को तैयार हो जाएं।’
वह कहते हैं, ‘सरकार गंभीर रूप से उकसा रही है. लेकिन समझौते की शर्तों में फांसी रोकना शामिल नहीं था । इसलिए इससे पीछे हटना ठीक नहीं है।
गांधीजी ने यद्यपि अपनी किताब ‘स्वराज’ में लिखा – “मौत की सज़ा नहीं दी जानी चाहिए.”

वह कहते हैं, “भगत सिंह और उनके साथियों के साथ बात करने का मौका मिला होता तो मैं उनसे कहता कि उनका चुना हुआ रास्ता ग़लत और असफल है। ईश्वर को साक्षी रखकर मैं ये सत्य ज़ाहिर करना चाहता हूं कि हिंसा के मार्ग पर चलकर स्वराज नहीं मिल सकता । सिर्फ मुश्किलें मिल सकती हैं।
इस प्रकार उन्होंने अपनी प्रतिक्रिया में भी स्पष्ट कर दिया कि वह हिंसक मार्ग पर जाने वाले लोगों के न तो समर्थक हैं और न ही पैरोकार है।
“भगत सिंह अहिंसा के पुजारी नहीं थे, लेकिन हिंसा को धर्म नहीं मानते थे. इन वीरों ने मौत के डर को भी जीत लिया था. उनकी वीरता को नमन है. लेकिन उनके कृत्य का अनुकरण नहीं किया जाना चाहिए. उनके इस कृत्य से देश को फायदा हुआ हो, ऐसा मैं नहीं मानता. खून करके शोहरत हासिल करने की प्रथा अगर शुरू हो गई तो लोग एक दूसरे के कत्ल में न्याय तलाशने लगेंगे ।”
भगत सिंह की फांसी की सज़ा माफ करने के लिए गांधी जी ने वायसराय पर पूरी तरह से दबाव बनाया हो, इस तरह के प्रमाण शोधकर्ताओं को नहीं मिले हैं।
फांसी के दिन तड़के सुबह गांधी जी ने जो भावपूर्ण चिट्ठी वायसराय को लिखी गई थी वो दबाव बनाने वाली थी ।लेकिन तब तक काफ़ी देर हो चुकी थी।
इस विषय पर वर्त्तमान शोध के आधार पर ये कहा जा सकता है कि फांसी के दिन से पहले गांधी और वायसराय के बीच जो चर्चा हुई, उसमें भगत सिंह की फांसी के मुद्दे को गांधी जी ने अनावश्यक माना।
इसलिए गांधी जी द्वारा वायसराय को अपनी पूरी शक्ति लगाकर समझाने का दावा सही नहीं जान पड़ता है।
गांधीजी नहीं चाहते थे कि किसी हत्यारे की भी हत्या की जाए ।उनका यह न्याय यदि सही था तो फिर उनके ‘हत्यारे’ को फांसी क्यों दी गई ? गांधीवादियों को इस बात का भी उत्तर देना चाहिए।

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत

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