24 अक्टूबर 1945 को संयुक्त राष्ट्र संघ (संयुक्त राष्ट्र) की स्थापना हुई थी। इस विश्व संगठन की स्थापना का महत्वपूर्ण उद्देश्य था कि संसार के किसी भी कोने में उत्पीडऩ ना हो, शोषण ना हो। एक वर्ग या संप्रदाय के लोग किसी दूसरे वर्ग या सम्प्रदाय के व्यक्ति पर इसलिए अत्याचार ना करें कि दूसरे वर्ग या संप्रदाय के लोग विपरीत वर्ग या संप्रदाय के हैं। ऐसी व्यवस्था इसलिए भी आवश्यक थी कि विश्व दो-दो महायुद्घ मानव की इसी प्रकार की दुष्प्रवृत्ति के कारण झेल चुका था और बड़े भारी विनाश का साक्षी भी बन चुका था। इसलिए विश्व समुदाय ने ठंडे दिमाग से सोचा और यह निर्णय लिया कि विश्व में कहीं पर भी किसी भी प्रकार की गुलामी के चिन्हों को छोड़ा नही जाएगा, इसलिए विश्व स्तरीय और विभिन्न देशों में राष्ट्रीय स्तर पर मानवाधिकार आयोगों की स्थापना बड़ी तेजी से हुई। लोगों को लगा कि अब मानव भविष्य में मत, पंथ, संप्रदाय या वर्ग आदि को लेकर पुन: दानव नही बनेगा।
परंतु मानवता का दुर्भाग्य रहा कि ‘दुर्बल पर सबल शासन करता ही है’ यह मिथक टूटा नही और बड़ी तेजी से ऊपर उठकर आया। बात भारत की करें तो 1947 में देश स्वतंत्र हुआ। संयुक्त राष्ट्र संघ को तब स्थापित हुए दो वर्ष भी नही हुए थे। परंतु इस देश ने विभाजन की बीती शताब्दी की सबसे महत्वपूर्ण और भयावह दुर्घटना देखी। यह विभाजन मजहब के नाम पर हुआ था-सारा विश्व समुदाय 24 अक्टूबर 1947 को की गयी अपनी प्रतिज्ञा को भूल गया या उसने भूलने का नाटक किया। लाखों करोड़ों लोग अपने देश में ही रातों रात परदेशी विदेशी हो गये। सामान उठाकर चल दिये-अपना नया आशियाना खोजने। तब से अब तक 65 वर्ष हो गये हैं। बहुत सा पानी यमुना व गंगा के पुलों के नीचे से गुजर गया है। भारतीय गणतंत्र के सत्ता सोपानों पर बैठकर लीलाएं करने वाले कई काफिले सजे और अनंत में विलीन हो गये। ‘गुलाब’ खिले भी और मुरझा भी गये-कितनी ही अचकनें नई सरकार में शपथ लेने के लिए सिलवाई गयीं और फिर वे किसी म्यूजियम में जाकर संग्रहीत कर दी गयी। भारत ने सुई से लेकर हवाई जहाज तक बनाना सीख लिया। चांद पर अपना परचम भी लहरा दिया। तकनीकी और विज्ञान के क्षेत्र में भी बड़ी भारी उन्नति की है। कई कीर्तिमान स्थापित किये गये हैं। पाकिस्तान से कई जंगें भी लड़ी गयीं हैं। बांग्लादेश को भी अलग करा दिया गया है। कहने को बहुत कुछ किया गया है। लेकिन एक चीज है जो 24 अक्टूबर 1945 या 15 अगस्त 1947 में जितनी भयावह थी वह आज और भी अधिक भयावह रूप में हमारे बीच खड़ी है और हम ये मानकर चल रहे हैं कि आग दूर हैं, मुझे इससे कोई नुकसान होने वाला नही है। क्या है ये चीज?
निश्चित ही मुस्लिम साम्प्रदायिकता है ये। जी हां, वही पिशाचिनी जिसने देश का बंटवारा कराया था। हमारे देश के हुक्मरानों को पता नही किसने बता दिया कि तुम गुलाब के फूल अपनी अचकन पर लगाओ और देश को बताओ कि वह कांटों में रहकर भी गुलाब की तरह मुसकराना सीखे। हम यह भूल गये कि गुलाब तभी मुस्कुराता है जब उसके हाथ में शस्त्र होता है अर्थात जब अपने आपको कांटों रूपी शस्त्र से सुरक्षित कर लेता है। तब वह दुनिया वालों से कहता है कि मेरी ओर हाथ बढ़ाने से पहले दस बार सोचना। पर हमने क्या किया? हमने गुलाब तोड़ा और उसे अपनी अचकन पर लगा लिया। सब समझ गये कि इस गुलाब के पास कांटे नही हैं। जिस देश के हुक्मरान आत्मप्रवंचना का शिकार बनते हैं उनकी गति ऐसी ही होती है, कांटे विहीन गुलाब के उपासक शोर मचाते रहे कि हम विश्वशांति के बहुत बड़े पैरोकार हैं हम से पूछो कि हम विश्वशांति कैसे स्थापित करेंगे? इनके पास फार्मूला था अपने स्वधर्मी हिदुओं को पाकिस्तान में इस्लामिक शासन के दमन चक्र में पिसने के लिए छोड़ देना और अपने ही कश्मीर में अपने ही देशवासियों को विदेशी मानकर चलने और उनके मानवाधिकारों पर कई प्रकार की बंदिशें लगा देने का। फलस्वरूप पाकिस्तान में ढाई करोड़ हिंदू घटकर आज 25 लाख रह गये हैं और भारत के कश्मीर से हिंदू पलायन कर देश के दूसरे हिस्सों में विस्थापित हो रहा है, ये बड़ी दर्दनाक स्थिति है कि अपने ही देश में आप विस्थापित हों या शरणार्थी हों। क्या मायने हैं तब आपके लिए स्वतंत्रता के, मानवाधिकारों के, या समानता के, या भाषण और अभिव्यक्ति के या सभ्य संसार के या देश की प्रगति के या देश की समृद्घि और संपन्नता के? यदि एक पिता अच्छी कमाई करने के बावजूद भी हर बच्चे को संतुष्ट नही कर पाए और उसके रहते एक बच्चे की आंख में भी आंसू आ जाएं तो सिवाय लानत के उस पिता के हिस्से में कोई और चीज नही आती। भारत के बारे में बहुत कम यानि ना के बराबर जानने वालों ने कहा कि-
सर जमीने हिंद पर अखलाके आवामे फिराक।
काफिले आते गये और हिंदोस्तान बनता गया।
यह बात भारत के विषय में एक सफेद झूठ है, लेकिन इसे इतनी बार बोला गया है कि यह झूठ सच बन गया सा लगता है। पर अब यदि इसे थोड़ी देर के लिए सच मान भी लिया जाए तो भारत तो इस अर्थ में आज भी बन रहा है। क्योंकि भारत में बांगलादेश से मुसलमान आ रहे हैं और पाकिस्तान से हिंदू आ रहे हैं। लेकिन छदम धर्मनिरपेक्षता के उपासक भारतीय नेताओं की कलाबाजियां इन दोनों बातों पर देखने योग्य होती हैं। बांग्लादेश से आने वाले घुसपैठियों को हमारे नेता कहते हैं कि यह एक मानवीय समस्या है और इसका समाधान खोजा जाएगा। जब कि पाकिस्तान से आने वाले हिंदुओं के पुनर्वास को लेकर या उनकी समस्याओं को लेकर इन नेताओं के मुंह पर ताले पड़ जाते हैं। जबकि यह सबको पता है कि बांग्लादेशी मुसलमान देश में उपद्रव फैलाने और उन्माद फेेलाने का काम करता है, वह भारत में रहकर भी भारत से शत्रु भाव रखता है और पाकिस्तान से भारत आने वाला हिंदू भारत की भूमि को, भारत के लोगों को भारत की नदियों को, भारत के धर्मस्थलों को, भारतीय धर्म के प्रतीक चिन्हों को, गंगा को, गाय को, गायत्री को, भारत के ऐतिहासिक तीर्थ स्थलों को भारत की धार्मिक परंपराओं को और पर्वों को अपना मानता है और उनके प्रति असीम श्रद्घा भाव रखता है। पर यहां गद्दारों को फूलों के हार और वफादारों को गदा के प्रहार पुरस्कार में दिये जाते हैं। इसीलिए बांग्लादेशी मुसलमान घुसपैठियों के लिए हमारे सारे नेता ही नही बल्कि बहुत से सामाजिक और मानवाधिकारवादी संगठन भी अपनी अपनी सक्रियता दिखाते हैं, लेकिन पाकिस्तानी हिंदुओं के भारत में पुनर्वास की समस्या पर कोई नही बोलता। हम एक्ट बनाते हैं एक्शन नही लेते। हम संयुक्त राष्ट्र में भाषण झाड़ते हैं, विश्व शांति के ऊपर, लेकिन विश्व में हर व्यक्ति को शांति मिले और इस दृष्टिकोण से पाकिस्तानी हिंदुओं या कश्मीर के हिंदुओं को भी पूरी आजादी मिले इस बात को बिना लाग लपेट के और साफ-साफ कहना हमारे वश की बात नही है। शांति का अभिप्राय हर क्षेत्र में सुव्यवस्थित व्यवस्था का विकास करना है। इर व्यक्ति को हर प्रकार का मानवाधिकार सुलभ हो यह सुव्यवस्थित व्यवस्था का एक अनिवार्य अंग है। इसलिए पाकिस्तान और कश्मीर का हिंदू भी अव्यव्यविस्थत व्यवस्था का शिकार होने के लिए छोड़ा जाना आपराधिक मानसिकता का प्रतीक है। जब तक सुव्यवस्थित व्यवस्था का सम्मान करना विश्व समुदाय नही सीखेगा तब तक विश्व शांति की मृगमरीचिका बनी रहेगी।
भारत की राजधानी दिल्ली में बिजवासन में 479 पाकिस्तानी हिंदू भाईयों से अपनी टीम के साथ मिलने का सौभाग्य मिला। उनके दर्द को सुनकर और उनके रूखे सूखे चेहरों को देखकर बड़ी पीड़ा हुई। 65 वर्ष तक कोई समुदाय किसी देश में नारकीय जीवन जिए और पूरा विश्व समुदाय उस पर मौन रहे तो लगता है कि हमने दो महायुद्घों से कोई शिक्षा नही ली है। हम विकास के नही अपितु विनाश के उपासक हैं और उसी की ओर बढ़ रहे हैं। भारत इन लोगों के लिए शरणस्थली है और पूजास्थली भी है। भारत की सरकार के लिए तो यह बहुत ही आवश्यक है कि वह अपने इन देशभक्त भाईयों के दुख दर्द को मानवीय आधार पर यथाशीघ्र दूर करे। इनका पुनर्वास किया जाए और यदि पाकिस्तान से ऐसे अन्य हिंदू भाई भी आना चाहें तो उन्हें ले लिया जाए। यह तय है कि वो यहां आकर कोई ‘मिनी पाकिस्तान’ नही बनाएंगे बल्कि एक प्यारा हिंदुस्तान बनाकर उसी के लिए समर्पित हो जाएंगे। उनकी धड़कनें भारत के लिए धड़कती हैं और हर धड़कन पर भारत लिखा होता है। 65 वर्ष की बीती अवधि में ऐसी कितनी ही धड़कनें रही हैं जो ‘भारत भारत’ कहते शांत हो गयी हैं, पर उन्हें भारत के दर्शन सुलभ नही हुए। पर अब हमें उनकी थोड़ी सी बची धड़कनों की पवित्रता की ओर ध्यान देना चाहिए। हम लोग श्राद्घ तर्पण करते हैं।
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मुख्य संपादक, उगता भारत