शहादत दिवस 23 मार्च पर विशेष
डाॅ. राकेश राणा
28 सितम्बर, 1907 को पाकिस्तान परिक्षेत्र में पंजाब प्रांत के गांव लायलपुर में जन्मे भगत सिंह के पूरे परिवार में देशभक्ति की राष्ट्रीय धारा बह रही थी। पिता किशन सिंह, चाचा अजीत सिंह और स्वर्ण सिंह की ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ क्रांतिकारी गतिविधियों के किस्से सुनते बड़े हुए बलवंत सिंह। परिवार के अधिकतर सदस्य ऐसी गतिविधियों के चलते जेलों में रह आए थे। चाचा अजीत सिंह, लाला लाजपत राय के साथ बर्मा की जेल में उन्हीं की कोठरी में साथ थे। उनके दादा क्रांतिकारियों का खुल्लमखुल्ला सहयोग करते रहे थे। बड़े भाई कुलबीर सिंह और कुलतार सिंह भी कम नहीं थे। स्वयं 18 वर्ष की उम्र से ही बलवंत सिंह नाम से भगत सिंह की विद्रोही क्रांतिकारी गतिविधियां सामने आने लगी थी।
कई सवाल जेहन में उठते हैं। क्या भगत सिंह सिर्फ कोई सिरफिरा नौजवान था? क्या वह अल्हड़ और उग्र स्वभाव वाला क्रांतिकारी था? क्या सिर्फ कोई भावुक नौजवान था? या फिर सुनियोजित ढंग से आगे बढ़ने वाला वैचारिक मुहिम का माहिर आन्दोलनकारी देशभक्त युवा था। वास्तव में भगत सिंह का जीवन विचित्र विरोधाभासों का अहसास देता है। भगत सिंह की वैचारिकी के सिरों को खोजना और जोड़ना किसी अधकचरे दिमाग में भरी दिवानगी के बस की बात नहीं है। भगत सिंह जोशीले, उग्र और भावुक भर नहीं हैं। भगत सिंह के बम और पिस्तौल को क्रांति समझना ही भ्रांति है। मुकदमे के दौरान भरी अदालत में साथियों संग ’’सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, देखना है जोर कितना बाजुए कातिल में है’’ गाना। ’’इंकलाब-जिन्दाबाद’’ की तरंगों से नौजवानों में आजादी की उमंगें भर देना। ‘सेन्ट्रल लेजिस्लेटिव असेम्बली’ में बम फेंककर भागने के बजाए गिरफ्तारी को चुनना। जेल में बिताए दिनों को लिखने-पढ़ने और वैचारिक मुहिम को मजबूत करने की योजनाओं में नियोजित करना। अंततः मौत से मुस्कुरा कर मिलना। फांसी के फंदे को गले में डालने से पहने चूमना। यह सब संयोग नहीं है। एक बहुत सुलझे हुए परिपक्कव वैचारिक मस्तिष्क की ही किसी महान मिशन के लिए इतनी ठोस कार्रवाही हो सकती है, जिसे सिर्फ भगत सिंह ही कर सकते हैं। वह भी मात्र 23 वर्ष की अल्पायु में कर दिखाया। क्या सिर्फ जुनून और भावुकता इतनी निडरता ला सकती है, कभी नहीं। भगत सिंह को एक उग्र क्रांतिकारी मात्र मान लेना उनके कद को कम करना है। भगत सिंह में विचार की धार है, दुनिया को बदलने की बयार है, अपने देश और समाज के प्रति गहरा सरोकार है। वह देश का हीरो और मानवता का योद्धा है। देशभक्ति से सराबोर उस शहंशाह को समझना सरल नहीं है। यही वजह है चलताऊ ढंग की विचारधाराएं भगत सिंह से भागती हैं। उसका वैचारिक फ़लक इतना व्यापक है कि संकीर्णताएं उसमें शमित हो जाती हैं, उलझ जाती है। यही उलझन भगत सिंह की वैचारिकी का असल राज है।
भगत सिंह ऐसा भारत चाहते थे जिसमें ’गोरे अंग्रेजों का स्थान काले-अंग्रेज न लें। अपने एक लेख में लिखते हैं कि “अधिक विश्वास और अधिक अंधविश्वास दोनों खतरनाक है, यह मस्तिष्क को मूर्ख और मनुष्य को प्रतिक्रियावादी बना देता है। जो मनुष्य यथार्थवादी होने का दावा करता है उसे समस्त प्राचीन विश्वासों को चुनौती देनी होगी, यदि वो तर्क का प्रहार न सहन कर सके तो टुकड़े-टुकड़े होकर गिर पड़ेंगे। तब उस व्यक्ति का पहला काम होगा तमाम पुराने विश्वासों को धराशायी कर नए दर्शन की स्थापना के लिए जगह साफ करना। इसके बाद सही कार्य शुरू होगा। जिसमें पुनर्निर्माण के लिए पुराने विश्वासों की कुछ बातों का प्रयोग किया जा सकता है। असेम्बली बम कांड के सिलसिले में जनवरी 1930 में अपनी अपील के दौरान ऐतिहासिक बयान देते हैं कि ‘’पिस्तौल और बम इंकलाब नहीं लाते, बल्कि इंकलाब की तलवार विचारों की सान पर तेज होती है और यही चीज थी, जिसे हम प्रकट करना चाहते हैं।’’ हम हत्या के पक्षधर नहीं हैं, मानव जीवन की पवित्रता के प्रति हमारी पूर्ण श्रद्धा है। मानव जीवन पवित्र और गरिमापूर्ण है…..हम जब अपना जीवन मानवता की सेवा में समर्पित कर देंगे, तभी किसी को हानि या पीड़ा पहुंचाने की सोच सकते हैं।’’
जब क्रांतिकारियों ने 23 दिसम्बर 1929 को दिल्ली-आगरा ट्रैक पर वायसराय लार्ड इरविन की स्पेशल ट्रेन को बम से उड़ाने वाली कार्रवाई की तो गांधी ने वायसराय की रक्षा के लिए ईश्वर का धन्यवाद किया और अपने अखबार ‘यंग इंडिया’ में क्रांतिकारियों की इस कार्यवाही की तीखी आलोचना करता अपना लेख ’‘बम की पूजा’’ शीर्ष क से प्रकाशित किया। जिसके जवाब में भगतसिंह ने क्रांतिकारी भगवतीचरण वोहरा से बात कर जवाबी लेख लिखा- ’‘बम का दर्शन’’। भगतसिंह की विचारधारा का अजस्र प्रवाह देखिए। वह अपने समय के उन तमाम सवालों को उठाते हैं, जो सामाजिक और राजनीतिक हर लिहाज से बेहद मौजूं है। अपने लेखन और विचारों से समकालीन समस्याओं पर तीखा प्रहार करते हैं। अस्पृश्यता, साम्प्रदायिकता, युवाओं की राजनीतिक भागीदारी, राजनीतिक संगठन के निर्माण और घोषणापत्र, अपने परिजनों और प्रियजनों को अपने मिशन के महत्व को समझाने वाले पत्र लिखते हैं। ’क्रन्तिकारी कार्यक्रम का मसौदा’ नाम से समाज और राष्ट्र के नवनिर्माण की पूरी मार्गदर्शिका प्रस्तुत की। कौम के नाम सन्देश और युवाओं के नाम संदेश, धर्म और हमारा स्वाधीनता संग्राम, सम्पादक मॉडर्न रिव्यू के नाम ढ़ेरों पत्र लिखे। भगत सिंह ने जेल में रहते चार गंभीर पुस्तकें लिखी। ‘हिस्ट्री ऑफ दि रेव्युल्यूशनरी मूवमेंट इन इण्डिया’, ‘दि आईडियल सोशलिज़्म’, ‘एट दि डोर ऑफ डेथ’ और अपनी आत्मकथा। वहीं से “लेटर टू यंग पॉलिटिकल वर्कर्स“ जैसा महत्वपूर्ण दस्तावेज दिया। अपने जीवन में कई संगठन बनाए। जन-संघर्ष की एक अलग वैचारिकी विकसित की। भगत सिंह का सपना आज भी अधूरा है। भगत सिंह ऐसा भारत चाहते थे जो गरीबी, शोषण, सांप्रदायिकता और हिंसा से मुक्त हो। वह जीवनभर एक समरस और न्यायपूर्ण सामाजिक व्यवस्था की वैचारिक लड़ाई लड़ते रहे।
यहां तक कि जेल में भी जब कैदियों के साथ भेदभाव और शोषण देखा, तो उनके अधिकारों के लिए लम्बी भूख-हड़ताल की। वास्तव में भगत सिंह साम्राज्यवाद के खिलाफ जन-संघर्ष करने वाले सबसे उज्ज्वल नायक हैं। यही वजह है कि 23 मार्च 1931 की शहादत को लगभग पूरी सदी बीत जाने को है फिर भी सम्पूर्ण राष्ट्र के जेहन में भगत सिंह की याद ताज़ा है। भगत सिंह नायक के रूप में आज भी जन-मन में बसते हैं।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)