जब आधुनिक भाषाविद् भाषा पर अपने विचार प्रकट करते हैं तो कई बार ऐसी बातें कह जाते हैं, जो नितांत भ्रामक और अतार्किक होती हैं। इस लेख में ऐसी ही भ्रामक और अतार्किक बातों पर विचार किया जा रहा है। इन भ्रामक बातों में महत्वपूर्ण है कि भाषा परिवर्तनशील होती है।
विश्व में आजकल बहुत सी भाषाएं मिलती हैं। वास्तव में ये भाषाएं भाषा न होकर बोलियां हैं, लेकिन इन बोलियों या भाषाओं के अस्तित्व को स्वीकार करने और बनाए रखने की प्रवृत्ति के कारण आधुनिक भाषाविदों ने एक मिथक गढ़ा कि भाषा परिवर्तनशील है। विभिन्न क्षेत्रों, प्रांतों, देशों आदि में इसका परिवर्तन हो जाता है। जबकि हमारा मानना है कि भाषा तो मानव समाज की एक ही है। जैसे अन्य प्राण धारी समस्त भूमंडल पर अपनी सजातीय भाषा को एक ही समान बोलते हैं, वैसे ही मनुष्य भी प्राचीन काल में एक ही भाषा का प्रयोग करता था। इसीलिए संसार के समस्त विचारकों और विद्वानों ने सर्वसम्मत निर्णय कर लिया है कि संस्कृत विश्व की प्राचीनतम भाषा है। दूसरे शब्दों में ये कहा जा सकता है कि संस्कृत में प्राचीनकाल में आंख खोलते मानव समाज को लोरियां दे देकर ऊंचाईयों को छूने की प्रेरणा दी। तिब्बत (प्राचीन काल का त्रिविष्टप) मानव की उत्पत्ति का प्रथम स्थान है। यहीं से आर्य संस्कृति=वैदिक-संस्कृति=मानव संस्कृति का निर्माण हुआ और फिर वह संसार के अन्य भागों में प्रसृत हुई। तिब्बत से अन्यत्र विश्व के दूसरे स्थानों में जाने वाले आर्यों ने स्वयं को पांच शाखाओं में विभक्त किया और आर्य संस्कृति को विश्व में फैलाया।
यह स्वाभाविक बात है कि जब आप दूर दूर जा बसेंगे तो आपकी भाषा में कुछ दोष आ जाएंगे। जैसे संस्कृत में आप: जल के लिए कहा जाता है, इसी को फारसी भाषा में आब कहा जाता है। पंजाब को कभी पंचनद प्रांत कहा जाता था लेकिन कालांतर में इसे पंजाब कहा जाने लगा। शब्द पंजाब मुस्लिम काल में अधिक प्रचलन में आया। संस्कृत में स्वत: शब्द है, प्राचीन फारसी में यह शब्द हवत: और वर्तमान फारसी में खुद शब्द है, और इसी से खुदा व खुदाई जैसे शब्द उत्पन्न हुए। फारसी का रोज (दिन) संस्कृत के रोच शब्द से बना है। इसी प्रकार अवेस्ता में संस्कृत के ओज, देव, भैषज्य, रोचयति, सोम, पूर्व्यो शब्दों के समानार्थक शब्द क्रमश: अओजो, दएव, बएषज्यो, रओचयेइति, सओम, पओउर्यो मिलते हैं। इसी प्रकार संस्कृत के अहिदानव का अवेस्ता में अजी दहाक आथर्वण का अथोर्नान आर्याय ने बीजे का आईर्येने कहजहे मिलता है। पुत्र का फारसी में पुथ्र, भूमि का बूमी, भ्रातर का बिरादर, सप्ताह का हफ्त: सोम का होम सिन्धु का हिन्दू, नम: का नमाज, समानार्थक शब्द हैं।
इसी प्रकार अंग्रेजी भाषा में देखें, संस्कृत के शब्दों को थोड़े बहुत परिवर्तन के साथ किस प्रकार बोला जाता है।
संस्कृत इंग्लिश
अत्र here
कुत्र where
तत्र there
शर्करा sugar
चर्वणं chewn
भ्रातर brother
मातर (मात:) mother
पितर (पिता) father
गणन count
गर्त cart
गाजर carrot
गौ cow
क्रमेल (ऊंट) camel
अन्वेषण invention
अग्रसर agressor
नाक naked
त्रि three
त्रयोदश threotene
पुरानी अंग्रेजी में thirteen (वर्तमान में)
इतर other
ईर्म (निरूक्त) arm
उष्टï्र ostrich
ऊर्मिका ring
कुटि cot
गति gaid
डर dread
तक्र curd
दक्ष dextrous
द्रप्स: drop
नासा nose
पोत boat
प्लव flow
भर war
शारिका rice
हेड (अनादर) hate
बोलियां सदियों तक पीछा करती हैं
राजस्थान से गुर्जर समुदाय कई स्थानों से निकलकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में सदियों पूर्व आकर बसा। इस समुदाय की बोली में आज तक राजस्थानी पुट है। राजा को राजस्थान में राणा कहने की परंपरा चली तो उसकी पत्नी को राणी कहा जाता है। भारत में अन्य लोगों ने अंग्रेजी पसंद लोगों की (अंग्रेजी में ण नही है न है) नकल करते हुए राणी को रानी कहना आरंभ कर दिया है, लेकिन गुर्जर लोग इस शब्द को आज भी ज्यों का त्यों बोलते हैं। इसी प्रकार म्हारौ, थारौ, खाणौ, पीणौ, नहाणौ, धौणौ, ये सब शब्द राजस्थानी बोली के हैं, जो सदियों बाद तक गुर्जरों में ज्यों के त्यों बोले जाते हैं। यद्यपि वैयाकरणिक आधार पर इन शब्दों के उच्चारण में दोष है, लेकिन राजस्थानी में नही है। अब विचारणीय बात ये है कि जब एक देश में थोड़ी थोड़ी दूर पर बोलियां बन जाती हैं तो दूर दूर देशों के लोगों की बोलियों में भिन्नता होना स्वाभाविक है। विभिन्न भाषाओं के होने की भ्रांति केवल इसलिए है कि हर कथित भाषा ने अपनी लिपि की अलग खोज की है। परंतु अलग अलग तिथि होने के उपरांत भी संस्कृत के अक्षरों से बाहर जाकर किसी नये वैज्ञानिक अक्षर की खोज कोई भी भाषा नही कर पायी है।
एक भाषा की आवश्यकता
जब विभिन्न भाषाओं के अस्तित्व को बनाए रखने की मानव की अज्ञानता पूर्ण महत्वाकांक्षा उस पर हावी होती है तो उसके लिए संघर्ष होते हैं। भावात्मक अपीलों से कुछ लोग एक भाषा भाषी लोगों को दूसरे भाषा भाषी लोगों के विरूद्घ उकसाते और भड़काते हैं। फलस्वरूप भूमंडल पर देशों और प्रांतों की सीमाएं बांधी जाने लगती हैं। आर्यावर्त कालीन भारत को कुछ लोग अज्ञानता वश वृहत्तर भारत कहते हैं जबकि वह वृहत्तर भारत नही था अपितु संपूर्ण भूमंडल पर भारत के प्रतापी शासकों का राज्य था इसलिए संपूर्ण भूमंडल आर्यावर्त कहलाता था।
इसे वृहत्तर भारत अंग्रेजी मानसिकता के लोगों ने कहा है, जिससे यह सिद्घ किया जा सके कि भारतीय भी साम्राज्यवादी प्रवृत्ति के लोग रहे हैं। जबकि भारतीयों का शासन दूर दूर तक उनकी मानवतावदी नीतियों तथा एक भाषा भाषी वैश्विक व्यवस्था के कारण संभव हुआ था। कालांतर में जैसे जैसे भारत दुर्बल होता गया वैसे वैसे ही विश्व विभिन्न राज्यों में विभक्त होता चला गया। इन राज्यों का आधार भी भाषा बनी। इस प्रकार भाषा की विभिन्नता ने व्यवस्था को तार तार कर दिया। आज लोग विश्व में शांति स्थापित करने की बात करते हैं तो ये भूल जाते हैं कि शांति को तो हम उस समय ही बिदा कर चुके हैं जब हमने विभिन्न भाषाओं के नाम पर विभिन्न देशों की स्थापना करनी आरंभ की थी। भीतर से विखंडन रखते हुए बाहर शांति स्थापित नही हो सकती।
बाद में इन भाषाओं को साम्प्रदायिक रंगत भी दी गयी, जिसने विश्व में साम्प्रदायिक (मजहबी) उन्माद को जन्म दिया। फलस्वरूप मजहब आपस में बैर रखने का सबसे बड़ा कारण बन गया। इसीलिए हमारी मान्यता है कि विश्व शांति के लिए सबसे पहले एक विश्व भाषा को अपनाया जाए और यदि यह विश्वभाषा विश्व के वैज्ञानिकों की दृष्टि में संस्कृत है तो उसे ही विश्व भाषा बनाए जाने का गौरव दिया जाए।
अन्य भाषाओं में संस्कृत शब्द
संस्कृत के अत्र-तत्र शब्द पंजाबी में इत्थे, उत्थे बन गये हैं। त्वत: शब्द तेत्यो बन गया है तो मत्त: मेत्थो बन गया है। इसी प्रकार धावक पंजाबी में धोबी, वट बोड़, यष्टि सीटी, खनन खोदना, खर खोता बन गया है। संस्कृत के अश्व शब्द फारसी में अस्प और अस्व, कहा जाता है। इसे अरब में अर्व कहा जाता है। अरब के घोड़े इसीलिए नामी हैं और अरब का नाम भी घोड़ों की विशेष नस्ल के कारण अरब इसीलिए पढ़ा है। संस्कृत का घोट: हिंदी में घोड़ा और संस्कृत का ह्वेष शब्द इंग्लिश में हॉर्स कहा जाता है। संस्कृत का अर्द्घ लैटिन में ordo तथा पंजाबी में अद्घा कहा जाता है, जबकि हिंदी में इसे आधा कहते है। संस्कृत का स्वसृ: शब्द अंग्रेजी में sister है तो संस्कृत का भगिनी शब्द बंगाली में बोहिनी और हिंदी में बहन हो गया है।
सारे यूरोप की और विश्व की भाषाओं का अध्ययन करने के उपरांत ग्रे ने साहसपूर्वक लिखा था- ‘असंभव नही कि वर्तमान में सर्वथा पृथक माने गये संसार की भाषाओं के प्रधानवर्ग कभी एक ही वंश परंपरा के सिद्घ हों’।
इसीलिए रिसर्च स्कॉलर पं. भगवत दत्त ने लिखा है कि ‘हमारा अध्ययन स्पष्ट करता है कि संसार की सारी भाषाएं अथवा बोलियां अतिभाषा (वैदिक संस्कृत) का परंपरागत विकार है।’
सचमुच जब कभी निष्पक्ष होकर स्वतंत्र रूप से भाषा संबंधी अध्ययन करते हुए भाषा संबंधी कोई निष्कर्ष अंकित किया जाएगा तो हमारा भी मानना है कि भाषाओं के वर्गीकरण का वर्तमान स्वरूप भर भराकर गिर जाएगा।
अत: निष्कर्ष निकला कि भाषा परिवर्तन शील नही होती है, बल्कि नये नये विकारों के आने से और लोगों की अज्ञानता के कारण नये नये शब्दों को मूल शब्द की विकृति के रूप में उच्चारित किया जाता है, जो कुछ काल के पश्चात नई बोली बना देते हैं, जिसे हम भ्रांतिवश नई भाषा मान लेते हैं।
बोली के विषय में बृहत मनुस्मृति में आया है-
वाचो यत्र विभिद्यंते तदेशान्तर मुच्यते।
अर्थात जहां वाक भेद हो जाता है, उसे देशांतर बोली कहा जाता है। यह वाक भेद विकार की ओर ही संकेत करता है। बोलियां विभिन्न नये नये शब्दों को लेकर बनती हैं और इन्हीं में परिवर्तन अनुभव किया जाता है, जबकि भाषा अपने मूलरूप में ज्यों की त्यों रहती है।
वैयाकरणिक दोषों और उच्चारण की त्रुटियों के कारण भाषा में काल्पनिक परिवर्तनशीलता अनुभव की जाती है।
अगले लेख में हम इसी पर विचार करेंगे, कि भाषाओं में यह काल्पनिक परिवर्तनशीलता क्यों आती है?