हे प्रभु ! आदरणीयों में आप उत्तम है
अब हम पुन: अपने मूल मंत्र अर्थात ओ३म् त्वं नो अग्ने….पर आते हैं।
आगे यह वेद मंत्र कह रहा है कि विद्वानों और आदरणीयों में आप सर्वोत्तम हैं। इसलिए सर्वप्रथम पूजनीय भी आप ही हैं। आप गणेश हैं, प्रजा के स्वामी हैं, और न्यायकारी हैं , इसलिए मेरी श्रद्घा और सम्मान के सर्वप्रथम पात्र भी आप ही हैं I
मंत्र के इस भाव का अर्थ का अनर्थ करते हुए पौराणिक लोगों ने गणेश की प्रतिमा बनाकर उसका पूजन आरंभ कर दिया। किसी कार्य के शुभारंभ को श्रीगणेश कहने की परंपरा भी हमारे यहां वेद के ऐसे उपदेशों के दृष्टिगत ही स्थापित की गयी है। इसका भी अर्थ का अनर्थ करते हुए किसी भी शुभ कार्य के पूर्व गणेश की प्रतिमा का पूजन आरंभ हो गया।
वेद का मंत्र आगे कह रहा है कि हमारे हृदयों से समस्त वैर-द्वेष घृणा आदि दूर कीजिए। यह कामना भी बहुत ऊंची है। यदि हमारे हृदयों में वैर विद्वेष और घृणा के भाव समाप्त हो जाएं तो हम मनुष्य से देवता बन जाएंगे। हृदय की पवित्रता और शुद्घता हमें महान से महानता की ओर ले जाती है। अत: वेद मंत्र हमें हृदय की पवित्रता को बनाये रखने की प्रेरणा दे रहा है। अंत में वेद मंत्र यह कह रहा है कि यह आहुति अग्नि और वरूण देव के लिए है-मेरे लिए नहीं है। अग्नि प्रथम पूजनीय भी है, और पवित्र भी है। उसका स्वाभाविक गुण है आगे ही आगे बढऩा। अत: उसकी पूजा से हमारे भीतर भी आगे ही आगे बढऩे की स्वाभाविक प्रेरणा उत्पन्न होगी। हमारी कामना है कि हमारी यह आहुति ऐसे अग्निदेव और वरूण देव के लिए समर्पित हो।
वरूण परकोटा या फसील के लिए भी प्रयोग किया जाता है। ईश्वर के परकोटे में ही यह समस्त चराचर जगत समाया है। अल्पज्ञ जीव के लिए यह संभव नहीं है कि वह सर्वज्ञ ईश्वर की सीमाओं का ज्ञान प्राप्त कर सकें । यही कारण है कि आज तक कोई उसके परकोटे की सीमाओं को जान नहीं पाया। वरूण आदित्य को भी कहते हैं। यह आदित्य हमारा मित्र है। वरूण मित्र का पर्यायवाची भी है। आदित्य से उत्तम मित्र कोई नहीं हो सकता, क्योंकि वह सदा प्रकाश पुंज के रूप में हमारे साथ रहता है। प्रकाश देने वाला यह मित्र यदि हमारा साथ छोड़ जाए तो हमें पता चल जाएगा कि आदित्य का हमारे जीवन में कितना महत्वपूर्ण स्थान है ? हम अपने मित्र के प्रति कृतज्ञता की कामना करते हुए यज्ञीय कामना से प्रेरित होकर इस मंत्र में यज्ञाहुति डालते हैं। यज्ञ से ऐसी ही कामनाएं हमारी पूर्ण होनी चाहिएं।
वेद के जिस मंत्र की सूक्ष्म व्याख्या हम यहां प्रसंगवश कर रहे थे उसे ‘अष्टाज्याहुतियों’ में स्थान दिया गया है। इन्हीं अष्टाज्याहुतियों में तीसरी आहुति इस मंत्र से दी जाती है।
ओ३म् इमं मे वरूण श्रुधी हवमद्या च मृलय।
त्वामस्युरा चके स्वाहा। इदम वरूणाय इदन्नमम्।।
(ऋ . 1/25/19)
यह हमारे याज्ञिक की कामना है कि हे वरूण देव ! आप हमारी पुकार को सुनो, हमारी सामूहिक पुकार क्या है ? यही कि हम सब वैर, द्वेष घृणा से पूर्णत: दूर हों। इस सामूहिक कामना से प्रेरित हुए हम सब अत्यंत शुद्घ पवित्र अंत:करण से आपके दरबार में उपस्थित हैं। हे दयानिधेव ! आप हमारी पुकार सुनो और मुझे सुखी करो। ‘मुझे सुखी करो’ का अभिप्राय यह नहीं कि अब मेरी कामना स्वार्थपूर्ण हो गयी है, अपितु इसका अर्थ है कि मेरी सामूहिक प्रार्थना को सबके साथ जोड़ो, मैं सबका कल्याण चाहता हुआ आनंदित अनुभव करूं। ऐसा ना हो कि सब की सामूहिक प्रार्थना तो सर्वमंगल चाहती रहे और मैं स्वमंगल की कामना करता रहूं, और यदि स्वमंगल भी चाहूं तो भी मेरे शब्द ऐसे हों कि मैं सबका हो जाऊं और सब मेरे हो जाएं। वेद इसी कामना से विश्व में साम्यवाद लाने का प्रेरक रहा है और भविष्य में भी यदि कभी संपूर्ण विश्व में साम्यवाद का डंका बजा तो वेद की इसी कामना के माध्यम से ही बज सकता है। भारत के वर्तमान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी इसी कामना के वशीभूत होकर ‘सबका साथ और सबका विकास’ करने की बात कह रहे हैं।
वेद मंत्र आगे कह रहा है कि मैं आपसे (अपने दिव्य स्वरूप की) रक्षा चाहता हुआ आपको अपने शुद्घ अंतर्मन से पुकार रहा हूँ। कहने का अभिप्राय है कि मेरी नीयत में कोई खोट नहीं है। मेरा मन पवित्र है और पवित्र मन से मैं पवित्र कामना कर रहा हूँ कि मेरी और मेरे दिव्य स्वरूप की आप रक्षा करें। आपके सान्निध्य को मैंने चुम्बक मान लिया है और जान लिया है। अब आपकी इस चुम्बक से गुण मुझ जैसे लोहे में आने और भासने लगे हैं। हे कृपासिंधु! मैं चाहता हूँ कि आप मेरे इसी दिव्य स्वरूप की रक्षा करते रहना। मेरा कभी इस दिव्य स्वरूप से स्खलन न हो पतन ना हो, मैं गिरूं नहीं, अन्यथा मेरी भक्ति मेरे लिए आत्मघाती हो जाएगी। मुझे किसी प्रकार की बगुला भक्ति नहीं चाहिए, मुझे तेरा अखण्ड साथ चाहिए अटूट मैत्री चाहिए, क्योंकि तुझसे उत्तम ऐसा कोई नहीं जो मेरे सत्संकल्पों को जानता हो।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक उगता भारत